लिंग आधारित हिंसा सदियों से चली आ रही पितृसत्तात्मक समाज की समस्या है, जिससे अबतक निपटा नहीं जा सका है। अक्सर इसका सामना महिलाएं और वे समुदाय करते हैं, जो हाशिये पर रह रहे हैं। लैंगिक समानता के हर पैमाने पर विकास दर गिरती जा रही है। लेकिन इसके बावजूद समाज के पितृसतात्मक नियमों में बहुत ज्यादा बदलाव नज़र नहीं आता है। लैंगिक हिंसा में विभिन्न कारक जैसे लिंग, जाति, समुदाय, वर्ग, व्यक्ति का शैक्षिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति के अलावा लोगों के बीच पावर डायनामिक्स और लोगों का सामाजिक विशेषाधिकार भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लिंग आधारित हिंसा पर गौर करें, तो यह महिलाओं और पुरुषों के बीच सत्ता पर वर्चस्व और असमानताओं को दर्शाती है।
समाज के पितृसत्तात्मक मानदंडों में सत्ता और शक्ति का असंतुलन है, जिसके कारण दुनिया भर में ज्यादातर नियम महिलाओं के हित में रखकर नहीं बनाए जाते। विभिन्न संस्कृति, समुदाय और धर्म में महिलाओं के लिए बनाए गए नियम न सिर्फ रूढ़िवादी हैं, बल्कि ये उनके मानवाधिकार का हनन करते हैं। समाज में जब हाशिये पर रह रहे समुदाय या महिलाओं के खिलाफ हिंसा होती है, तो यह असंतुलन बना रहता है। भारतीय परिपेक्ष्य में लिंग आधारित हिंसा में अधिकतर विशेषाधिकार प्राप्त पुरुषों का अपनी शक्ति और सत्ता के प्रदर्शन के कारण होता है। सोचने वाली बात है कि पुरुष का महिला के ऊपर एकाधिकार कैसे बनते हैं?
पुरुषों को यह विशेषाधिकार कैसे प्राप्त होते हैं, जो वे महिलाओं पर हिंसा करने को सामान्य ही नहीं बल्कि अपना अधिकार समझते हैं? हर समाज लोगों के जीने के तरीके को, उनके जीवन के हर पहलू को अलिखित लेकिन सख़्त नियमों से चलाता है जिसे सामाजिक मानदंड (सोशल नॉर्म्स) कहते हैं। इन्हीं में से निकल कर आते हैं लैंगिक मानदंड यानि एक महिला, पुरुष को कैसा होना चाहिए उसके लिए निर्धारित किए गए नियम। यह मानदंड बचपन से सिखाए जाते हैं जिसे लोग जीवनभर अपनाए चलते हैं। ये मानदंड हिंसा को बढ़ावा देने वाले हो सकते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) के अनुसार दुनिया भर में तीन में से एक महिला और लड़की अपने जीवनकाल में शारीरिक या यौन हिंसा का अनुभव करती है।
पितृसत्तात्मक मानदंड कैसे हिंसा को बढ़ावा देते हैं
यह सामाजिक लैंगिक मानदंड महिलाओं के प्रति हिंसात्मक कैसे हो उठते हैं? इसे समझने के लिए मैं अपनी अनुभव से एक किस्से से शुरू करना चाहती हूं। हमारे घर एक अंकल अक्सर आते हैं। बहुत कहानियां सुनाते हैं। ना जाने किस गांव, परिवार की वे बातें करते हैं। लेकिन उनकी बातचीत में महिलाओं के प्रति बहुत निम्न सोच दिखती है। मसलन वे जब भी महिलाओं की बात करते हैं, तो गाली के साथ करते हैं। उन्हें अक्सर यह कहते सुना जाता है कि महिला में कोई सुधार न हो, तो बिना हिंसा के वह सुनती नहीं (यानि पुरुषों के मन का नहीं करती)। यही है वे मानदंड हैं जहां महिलाओं से ये अपेक्षा की जाती है कि वे पुरुषों के मन का करें। अगर वह ऐसा नहीं करती हैं, तो उनका शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक या यौन हिंसा का सामना करना जायज है। ये मानदंड ही पावर इंबैलेंस (शक्ति का असमान वितरण) को बढ़ावा देते हैं।
किस तरह काम करती है पावर डाइनैमिक्स
अक्सर भारतीय घरों के आर्थिक मामलों में महिलाओं के मत को सुना ही नहीं जाता, या राय नहीं ली जाती। एक तरह से महिलाओं को अर्थ की दृष्टि से शक्तिहीन बनाए रखने के लिए ऐसे नियमों की इजात हुई है। आपने गौर किया होगा कि घर में माँ कभी आर्थिक मसलों में अपना पक्ष रखने की कोशिश भी करे, तो पिताजी चुप करा देते हैं या उन्हें सुनेंगे नहीं। महिलाओं के आर्थिक अवसरों को प्रतिबंधित करने वाले पक्षपातपाती कानून भेदभावपूर्ण लैंगिक मानदंडों को और पुख्ता करते हैं। साथ ही ये समाज में पहले से मौजूद इस शक्ति असंतुलन को मजबूत करते हैं। सोशल मीडिया पर ध्यान दें तो महिलाओं के हिसाब न कर पाने, या पैसों की कद्र न करने पर हजारों चुटकुले मौजूद हैं। इस तरह की घरेलू स्थिति को अक्सर एक ही नजरिए से देखा जाता है। यहां साबित कर दिया जाता है कि महिलाएं हिसाब नहीं जानती और इसलिए उनका आर्थिक मामलों में बिल्कुल न बोलना ही अच्छा है।
सार्वजनिक स्थानों पर सत्ता का प्रदर्शन
इसी तरह सार्वजनिक जगहों में पुरुष आसानी से महिलाओं के ऊपर चिल्ला देते हैं। इसका कारण यही है कि महिला की गरिमा, आत्मसम्मान जैसे भाव उनकी नज़र में होते ही नहीं हैं। पुरुष चिल्लाए तो औरत को सिर्फ़ सुनना चाहिए, आम तौर यही मानदंड है। अक्सर, घर के बुजुर्ग पुरुषों के मौखिक हिंसा को सिर्फ इस बुनियाद पर जायज ठहराते हैं कि पुरुषों का ऐसा व्यवहार सामान्य है। दिखने में यह सब चीजें छोटी लगती है। लेकिन है नहीं। सीधे तौर पर ये हिंसा की वो छोटी-छोटी घटनाएं हैं जिसे महिलाएं शारीरिक और मानसिक समस्याओं से ग्रसित हो सकती हैं। हर उस फैसले ले पाने की स्थिति से ही महिला की आवाज को गायब कर दिया जाना, उन्हें किसी कठपुतली की श्रेणी में रख देने जैसा है, जिनका मंच पुरुषों का जीवन है और जिनकी डोर है सामाजिक मानदंड।
हिंसा के माध्यम से सत्ता पर बने रहने की कोशिश
नारीवादी आंदोलन की दूसरी लहर के दौरान जब ‘निजी राजनीतिक है’ का नारा दिया गया, उसका अर्थ यही था कि महिलाओं के प्रति चार दीवारों में जो हिंसा हो रही है, उसे बाहर लाया जाए। लेकिन चार दीवार का कॉन्सेप्ट भारतीय समाज में आज भी जस का तस है, जो महिलाओं के खिलाफ़ हो रहे हिंसा को बाहर नहीं आने देती है। महिलाओं के प्रति हिंसात्मक रिवाज़ों की मौजूदगी आज भी है। सामाजिक मानदंड मे मुताबिक लोगों का जीवन कंट्रोल करने के लिए रीति-रिवाज़ महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसमें ख़ासकर महिलाओं को भागीदार बनाया जाता है। हमारी सामाजिक संरचना ऐसी है कि इसमें कई कारणों से महिलाएं भाग लेती भी हैं। अमूमन अगर वे इन तय मानकों पर नहीं चलेंगी, तो उनके चरित्र से लेकर कामकाज तक, सभी पर सवाल उठेंगे। संभव है कि उन्हें आम जीवन में परेशानी का सामना करना पड़े।
पितृसत्ता ने जाति, वर्ग, धर्म, जेंडर जैसे कई कारकों के बुनियाद पर कन्या भ्रूण हत्या, बाल विवाह, ऑनर किलिंग, दहेज हत्या जैसे हिंसा को आम बना दिया है। लड़की बड़ी होकर अपना मत देना ना सीख जाए, इसलिए जल्द ही शादी कर दी जाती है। तमाम बंदिशों के बावजूद अगर वह प्रेम करने की हिम्मत करे, तो उसपर जाति और समुदाय के आधार पर रोक लगाई जाती है, या यहां तक कि हत्या भी कर दी जाती है। घरों में महिलाओं पर न सिर्फ बेटा पैदा करने के लिए जोर डाला जाता है, बल्कि कई बार बेटे के जन्म न होने पर उसे प्रताड़ित किया जाता है। ये सभी रिवाज़ पुरुषों को शीर्ष पर रखते हैं।
हिंसा को समझा जा रहा है उचित
महिलाओं के खिलाफ हिंसा सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, कानूनी, शैक्षणिक, सामुदायिक, मानवाधिकार और स्वास्थ्य का भी मुद्दा है। हिंसा विभिन्न कारणों से हो सकती है। लेकिन एक वजह जो हर वर्ग और समुदाय के महिलाओं के हिंसा में एक जैसी पाई जाती है, वह है पुरुषों के सत्ता पर बने रहने की इच्छा। इंटरनेशनल सेंटर फॉर रिसर्च ऑन वुमेन के विभिन्न राज्यों पर किए गए एक शोध अनुसार 85 फीसद पुरुषों ने स्वीकार किया कि उन्होंने पिछले 12 महीनों में कम से कम एक बार अपनी पत्नियों के खिलाफ हिंसक व्यवहार किया था। इस हिंसा का सामना करती महिलाओं के वर्ग, समुदाय और धर्म में भिन्नता के बावजूद, यह पाया गया कि इनके साथ कभी भी किसी भी परिस्थिति में हिंसा की गई। हिंसा तब और भी ज्यादा की गई, जब परिवार या समाज के लोग मौजूद थे और पुरुषों को अपना वर्चस्व दिखाना था।
पुरुषों को सामाजिक, शैक्षिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विशेषाधिकार प्राप्त हैं। इसलिए बतौर महिला आगे बढ़ाना मुश्किल है। लिंग आधारित हिंसा और उसको बढ़ावा देते पावर इंबैलेंस, विशेषाधिकार को समझने में सिर्फ इतना नहीं समझना है कि इस हिंसा में शारीरिक हिंसा ही एक मात्र फैक्टर है। हिंसा में मानसिक, यौनिक, भावनात्मक हिंसा शामिल है। इसलिए, जरूरी है कि रीति-रिवाज या संस्कृति के नाम पर ऐसे किसी भी मान्यता को बढ़ावा न दी जाए, जो समाज को असंतुलित बनाए। साथ ही, पुरुषों को भी अपने विशेषाधिकार को छोड़ने और एक समान समाज बनाने के लिए तैयार रहना होगा। यह समझना जरूरी है कि मतों का टकराव और किसी के साथ हिंसा करना एक बात नहीं।