कबीर सिंह जैसी समस्याजनक फ़िल्म के निर्माता संदीप रेड्डी वांगा की हाल ही में एक और फिल्म रिलीज हुई एनिमल। इसके बाद से संदीप रेड्डी की फिल्म, ‘एनिमल’ अपनी रिलीज के बाद से बॉक्स ऑफिस पर रिकॉर्ड तोड़ रही है। फिल्म का मूल एक बेकार पिता-पुत्र संबंध पर आधारित है जहां यह दिखाया जाता है कि अगर इसे संबोधित नहीं किया जाता है, इसका हल नहीं किया जाता है, तो यह उनके आसपास के सभी लोगों के लिए कितना नुकसानदेह हो सकता है।
बेटे को ये बचपन से ही महसूस होता है कि उसके पिता उस से प्यार नहीं करते। पिता बलबीर सिंह का क़िरदार (अनिल कपूर) और बेटे रणविजय सिंह का क़िरदार (रणबीर कपूर) अदा करते हैं। साथ ही फ़िल्म की कहानी में घर परिवार के मर्दों की आपसी लड़ाई को दर्शाया गया है, जिसमें महिलाएं अपना विचार नहीं रख सकती। उनका काम है घर के काम करना, बच्चों को संभालना और यौन उत्पीड़न का सामना करना। पिता, पुत्र का प्यार और घर के मर्दों की आपसी लड़ाई, हिंसा को मर्दों की दुनिया बताकर औरतों को चुप कराती फ़िल्म ‘एनिमल’ फ़िल्म के शुरुआत में रणविजय के बचपन का दृश्य देखने को मिलता है जब वह स्कूल में पढ़ रहा होता है।
रणविजय के किरदार की समस्या
अपने पिता के जन्मदिन के लिए रणविजय क्लास के बीच से उठ कर जाने लगता है जिसका खामियाजा उसे टीचर के मार से भुगतना पड़ता है। अपने पिता के जन्मदिन के लिए उत्साहित रणविजय के घर पहुंचते ही पता चलता है कि उसके पिता किसी काम से अपने फैक्ट्री गए हैं। इस प्रकार के अधिकतर फिल्मों में पुरुषों को बेहद अमीर और महिलाओं को मध्यवर्गीय स्तर का दिखाया जाता है। अपने पिता के इंतजार में छोटा रणविजय पिता के लिए एक छोटा सा पत्र लिखकर सो जाता है। ऐसे ही कई जगह रणविजय को ये एहसास होता रहता है कि उसके पिता उस से जरा भी प्यार नहीं करते। लेकिन वो अपने पिता को दुनिया का सबसे अच्छा पिता मानता है। बचपन से ही रणविजय की हरकतें समस्याजनक रहती है। इस कारण रणविजय के पिता उसे अमेरिका के बोर्डिंग स्कूल में भेज देते हैं। पिता की नज़रों के उनका बेटा एक अपराधी है।
इसके बाद रणविजय का युवावस्था के दृश्य दर्शकों को पसंद आता है, जिसमें वो सिगरेट पीते हुए बाइक पर नज़र आता है। समाज में जिस प्रकार आम धारणा है कि प्यार के नाम पर हिंसा को जायज़ माना जाता है, बिलकुल वैसा ही इस फ़िल्म में दिखाया गया है। आगे फ़िल्म में सीधी कम बोलने और सब कुछ सहने हुए गीतांजली को दिखाया जाता है, जिनका किरदार साउथ इंडियन फिल्म की मशहूर अभिनेत्री रश्मिका मंदाना ने निभाया है। गीतांजलि की सगाई किसी और से होने के बाद रणविजय से होती है। उसे बताया जाता है कि कथित रूप से अल्फा मर्द बहुत ही मजबूत होते हैं। औरतों को वैसे ही मर्दों को चुनना चाहिए। इसके बाद गीतांजलि रणविजय को ही चुनती है जिनकी शादी भी होती है। पिता के ऊपर हमले के बाद रणविजय अपनी पत्नी और दो बच्चों को लेकर वापस भारत चला आता है।
भारतीय समाज में सिनेमा और फ़िल्म का प्रभाव
इस फ़िल्म का मेन क़िरदार निभाने वाले रणबीर कपूर ने इस फ़िल्म में एक खतरनाक और हिंसा करते हुए टॉक्सिक पुरुष की वाहवाही दिखाकर यह साबित कर दिया कि भारतीय सिनेमा में मार-पीट या महिलाओं के साथ किए गए गलत बर्ताव को लगातार स्वीकार किया जा जा रहा है। न सिर्फ इसे स्वीकार किया जा रहा है, बल्कि इसे बढ़ावा दिया जा रहा है। इससे पहले रणबीर अपने फिल्मी करियर में शानदार से शानदार फ़िल्मों में काम किया है। भले एनिमल उनके करियर के लिए तो नुकसानदायक नहीं है, पर समाज के युवाओं के लिए यह काफी नुकसानदायक है। फिल्मों की बात करें, तो फिल्मों का असर कब और कितना रहेगा इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल है।
ऐसी फिल्मों का असर
मेरे एक मित्र ने हाल ही में हुए अपने कॉलेज के एक हादसे को मुझसे साझा किया। उसने बताया कि मैं कॉलेज के कैंटीन में बैठा हुआ था। वहीं कुछ लड़के और लड़कियों का ग्रुप भी बैठा हुआ था। तभी उनके दोस्तों में से एक दोस्त आ कर अपनी महिला मित्र को बैठने की जगह देने को कहता है। लड़की के मना करने के बाद वो बोलना है कि हटती हो या बनूं एनिमल फ़िल्म का रणबीर कपूर। देश के युवाओं के सामने हिंसा करने वाले को हीरो के रूप में प्रस्तुत किया जायेगा तो, ज़ाहिर सी बात है वो उसे ही अपना आइडल मानेंगे और उस से सीख लेंगे। कॉलेज में पढ़ने वाले युवाओं पर ऐसी फ़िल्मों का असर हो रहा है, तो स्कूल के बच्चों के बारे में और भी ज्यादा असर होने की आशंका है। फ़िल्म के लेखक और निर्माता संदीप रेड्डी द्वारा अपनी पितृसत्तात्मक और रूढ़िवादी विचारों वाली फिल्मों को जस्टिफाई करना खतरनाक साबित हो सकता है।
क्यों निदेशक हिंसा को सामान्य बता रहे हैं
दरअसल इस फ़िल्म के निर्माता ने कबीर सिंह फ़िल्म बनाने के बाद पत्रकार और फ़िल्म समीक्षक अनुपमा चोपड़ा से बात चीत के दौरान कहा था कि अगर आप किसी महिला से सच्चा प्यार करते हो तो उसे थप्पड़ मारना, उसे अपनी मर्ज़ी से छूना, गालियों का इस्तेमाल करना, ये सब नहीं कर रहे तो वहां प्यार है ही नहीं। यही कारण है कि संदीप रेड्डी अपनी फिल्मों में महिलाओं के साथ किए गए यौन हिंसा को सामान्य बताते हैं। यही नहीं कबीर सिंह को कुछ दर्शकों के हिंसक फ़िल्म बताने पर भी संदीप रेड्डी ने इस बात पर टिप्पणी की थी। फिल्म के कहानी में निदेशक ने कहीं भी हिंसा को रोकने के लिए पुलिस का नामोंनिशान नहीं दिखाया है।
फिल्मों के हीरो के सहारे समस्याजनक बातें
इंटरवल के बाद उस अभिनेत्री तृप्ति डिमरी की एंट्री होती है जिन्हें 2020 में आई फ़िल्म ‘बुलबुल’ की वजह से काफ़ी प्रसिद्धि मिली थी। तृप्ति ने ज़ोया नामक एक महिला का क़िरदार निभाया है, जो रणविजय के पिता के जान के पीछे पड़े लोगों की साथी हैं। अपने मक़सद के लिए आई ज़ोया रणविजय से प्यार करने लगती हैं और उसे सब कुछ बता देती है। रणविजय उन्हें बताता है कि वह उनसे प्यार का नाटक कर रहा था। लेकिन ज़ोया अपने प्यार को जाहिर करते हुए कहती है, मेरा प्यार झूठा नहीं है। यहां हीरो का उसके चाहने वाली को जूते चाटने को कहना, शादी के बावजूद एक्स्ट्रा मैरिटल रिश्ते को दिखाना और जायज ठहराना जैसी चीज़ों को लेखक द्वारा लिखने में कोई संकोच नहीं हुआ तो ये बात सोचनीय है कि इसे लोग सीखने में भी संकोच नहीं करेंगे। फ़िल्म में ज्यादा से ज्यादा समस्याग्रस्त कहानी और डायलॉग को सामान्य दर्शाया गया है। शादी में पत्नियों को नियंत्रण में रखने जैसी पितृसत्तात्मक सोच को भी बढ़ावा दिया गया है। रणविजय का क़िरदार ना केवल बाहर हिंसा करता है बल्कि वो अपने घर में भी अपनी पत्नि का गला घोंटने की कोशिश करता और बंदूक की नोख पर बात करता है।
अहंकारी, टूटे हुए और समस्याग्रस्त पात्रों को पूरी फिल्म में ऐसे दिखाया गया है जैस ये कोई आदर्श स्थापित कर रहे हो। विजय के पास कोई नहीं है और इसकी अनुपस्थिति में, जानवर सभी स्वैग के रूप में समाप्त होता है और कोई भी पदार्थ पारिवारिक नाटक को पटरी से उतारता है। न केवल महिलाओं को बौद्धिक रूप से पुरुषों से हीन मानी गई है बल्कि पुरुषों के आधिपत्य को स्वीकार करने के लिए दर्शकों प्रोत्साहित किया जाता है। महिलाओं के खिलाफ हिंसा को भी न सिर्फ दिखाया गया बल्कि इसे जायज बताया गया। एक तरह से उस सोच को बढ़ावा दिया गया है जहां समाज अच्छी महिलाओं एक विशिष्ट रूप में देखना और अपनाना चाहता है। अगर महिलाएं उस बनी बनाई रूढ़िवादी सोच के तरह बर्ताव नहीं करती हैं, तो वह अच्छी महिलाएं नहीं कहलाएंगी। फिल्म और मनोरंजन की दुनिया चाहे मनोरंजन के नाम पर ही सही पर ऐसी हिंसात्मक फिल्मों को दिखाने से आम जनता में गलत संदेश जाता है। नैतिक और सामाजिक रूप से भी कलाकारों का यह जिम्मेदारी होनी चाहिए है कि वे समाज में गलत संदेश पहुंचे ऐसे फिल्मों को नकारें।