अभी बीते महीने में 17 अक्टूबर को स्मिता पाटिल की जयंती पर सोशल मीडिया प्लेटफॉम पर उनके जीवन पर और उनकी की गई फ़िल्मों पर आधारित कुछ ऑर्टिकल पढ़े, तो पता चला कि स्मिता पाटिल ने अपने फिल्मी करियर में सिर्फ़ उन्हीं फ़िल्मों को जगह दी है जिसमें भारतीय महिलाओं का संघर्ष और दर्द दिखाई देता है। उनके बारे में पढ़कर मन उनकी फिल्में देखने को मन बेचैन होने लगा। चूंकि मुझे उनकी सारी फिल्में देखनी ही थी, तो मैंने सबसे पहले उनकी फ़िल्म ‘भूमिका’ को चुनी। यह मराठी अभिनेत्री ‘हंसा वाडकर’ की आत्मकथा पर आधारित थी। हंसा ऐसे परिवार से हैं जहां उनकी दादी प्रसिद्ध देवदासी परंपरा की गायिका थीं और हंसा वाडकर को भी संगीत सिखाया करती थीं।
मैंने स्मिता पाटिल का केवल नाम ही सुना था। कभी उनकी फिल्में नहीं देखी थी। ज़ाहिर सी बात है जिस भारतीय सिनेमा को महिलाओं का स्वतंत्र होना और परिस्थिति से लड़ते हुए दिखाना चाहिए, वो भारतीय सिनेमा कबीर सिंह जैसी लव स्टोरी दिखाता है जिसमें प्यार के नाम पर हिंसा और प्यार में सत्ता के खेल को ज़रूर दिखाता है। ऐसे में स्मिता पाटिल की फ़िल्मों का ज़िक्र कौन ही करना चाहेगा, जिसमें वे रूढ़ियों तो तोड़ती नज़र आती हैं। भूमिका देखने के बाद मुझे एक बात जो स्पष्ट हुई वो थी उषा (स्मिता पाटिल) का उस फ़िल्म में अंतर्द्वंद।
क्या है फिल्म की कहानी
फ़िल्म की शुरूआत होती है एक लड़की के किए गए खूबसूरत नृत्य से जो कि फ़िल्म की शूटिंग का हिस्सा होती है। वह लड़की फ़िल्म की नायिका उषा (स्मिता पाटिल) होती हैं। फ़िल्म में दो पहलू दर्शाए गए हैं। एक अतीत की कहानी जिसे ब्लैक एंड व्हाइट में दिखाया गया है। दूसरा वर्तमान की कहानी जिसे रंगीन चित्रों में दिखाया गया है। वापस आते हैं फ़िल्म की कहानी पर। नृत्य करती उषा के बाद वो दृश्य सामने आता है जिसमें वे बहुत ही गंभीर नज़र आती हैं। इसी सीन में फ़िल्म के दूसरे कलाकार अनंत नाग जो फ़िल्म में भी एक एक्टर का ही अभिनय कर रहे हैं, वे उषा (स्मिता पाटिल) को अपनी गाड़ी से उनके घर तक छोड़ने जाते हैं। उषा के घर पहुंचते ही उसे बालकनी से घूरते एक आदमी को देख दर्शकों को यह समझ आ जाता है कि वह उषा के पति होंगे। उनके पति ‘केशव’ का किरदार हिंदी सिनेमा के जाने-माने अभिनेता ‘अमोल पालेकर’ निभाते हैं । उषा जब अपने कमरे में पहुंचती हैं, तब केशव उन पर ढेर सारे बेतुके सवालों की बारिश कर देते हैं। जैसे- देर से क्यों आई, तुमको छोड़ने कौन आया था, तुमने अपने नाम का अलग बैंक अकाउंट खुलवाया है क्या?
अपनी आवाज़ उठाती उषा
विभिन्न फिल्मों से उलट, इस पर उषा चुपचाप सहने के बजाय बिना डरे जवाब देती है। तब केशव ये बोलने मे नहीं चूकते कि उषा के पिता के गुजरने के बाद उषा और उनके घर वालों को उन्होंने संभाला और उषा उनकी वजह से ही एक्ट्रेस बन पाईं। कहने का मतलब है कि भारतीय पितृस्तात्मक समाज के पुरूष यही चाहते आए हैं कि महिलाएं चाहे कितनी ही स्वतंत्र क्यों न हो जाए, लेकिन जीना उनको अपने पति के हिसाब से ही है। इन्हीं सब झगड़ों की वजह से उषा घर छोड़कर जाने का फैसला कर लेती हैं। यह दिखाया जाता है कि इस से पहले भी वह ऐसा कर चुकी होती हैं। परंतु केशव उन्हें वापस घर ले आते हैं। ये सोच कर नहीं कि वे उनकी पत्नि है, बल्कि ये सोचकर कि एक औरत अकेले गुजारा नहीं कर सकती। इन सभी झगड़ों को उषा और केशव की बेटी सुषमा भी अच्छे से देख और समझ रही होती है। अब फ़िल्म का वो हिस्सा देखने को मिलता है जिसे ब्लैक एंड व्हाइट में दर्शाया गया है। इसमें उषा के बचपन को दिखाया गया है।
उषा का बचपन
लगभग 8-10 साल की उषा जो एक मुर्गे को खुद की मां से ही बचाती हुई भागती हैं। आख़िर में जीत मां की होती है। फिर मुर्गा सीधा मेहमानों के खाने की थाली में दिखता है। इसके अगले ही पल फ़िल्म का वह क़िरदार नज़र आता है, जो अपनी कुंठित सोच के लिए जाना जाता है। एक नौजवान युवक जिसे हम ‘केशव’ के नाम से जानते हैं। हालांकि इस फ़िल्म में कुंठित सोच के सिर्फ केशव ही नहीं हैं। उनके अलावा और भी पुरुष हैं। केशव को एक नौजवान युवक के रूप में देखना और उषा को नाबालिग बच्ची के रूप में दिखाना ये संकेत दे रहा था कि उषा की शादी भी काफ़ी कम उम्र में एक अधेड़ उम्र के कुंठा से भरे आदमी से कर दी जाती है। उषा के बचपन से ही केशव की उससे शादी करने की चाहत रखता है। वो छोटी सी उषा से ये कसम मांग लेता है कि उषा उसी से शादी करेगी। आगे उषा के पिता के देहांत के बाद उनका (उषा) का फिल्मी करियर बचपन से ही शुरू हो जाता है। उषा के किशोरावस्था में आते ही केशव उस से शादी करने की बात करने लगता है। उसको उषा के अभिनेता राजन (अनंत नाग) से मिलना और बातें करना नापसंद है।
उषा की माँ की भूमिका
हालांकि उषा की मां को जिनका क़िरदार सुलभा देशपाण्डे अदा करती हैं, उनको उषा का केशव से मिलना पसंद नहीं आता। इसलिए वे उषा को मना करने के साथ-साथ उन्हें कसम भी देती हैं कि वो केशव से दूर रहे। इसके बावजूद भी उषा केशव से शादी करने को तैयार हो जाती है। शादी के बाद उषा का मन हर किसी में प्यार ढूंढने में लगा रहा। लेकिन उनको हर कोई वैसा ही मिला जो उनको या तो कैद कर के रखना चाहा या सिर्फ़ अपने फ़ायदे के लिए उनके साथ कुछ दिन के लिए रहा। उषा जिस किसी पुरुष के साथ रहती हैं, उसको फ़िल्म में इतना नॉरमलाइज तरीके से दर्शाया गया है कि लगता ही नहीं कि ये कोई बड़ी बात है। यह वाकई में कोई बड़ी बात होनी भी चाहिए।
महिला को अपने जीवन के निर्णय लेने की आज़ादी
घर छोड़ने के बाद उषा अपने कोएक्टर राजन के पास जाती हैं। लेकिन वे उनके घर ना रुककर एक होटल में अकेले रहना पसंद करती हैं। नसीरूदीन शाह फ़िल्म में सिर्फ थोड़े देर के लिए एक डायरेक्टर के किरदार में नज़र आते हैं। वे उषा से जीने-मरने, जन्म-पुनर्जन्म की बातें कर फिल्म से गायब हो जाते हैं। आगे चल कर उषा के होटल के पड़ोसी (काले) का क़िरदार अमरीश पुरी निभाते हैं जिनके साथ उषा उनके घर जाने का फ़ैसला करती हैं। चूंकि काले की पत्नि अपनी बीमारी के कारण बिस्तर पर अपनी बची हुई ज़िंदगी को काट रही है, इसलिए उषा और काले बिना शादी के ही साथ रहना पसंद करते हैं।
मर्दों की कुंठित सोच को दर्शाने के लिए निर्देशक ने बखूबी अपने किरदारों का इस्तेमाल किया है। काले का लगभग 8 साल के बेटे के मेले में जाने की ज़िद करने और काले के घर पर ना होने के कारण उषा घर के नौकर से गाड़ी निकलने को कहती है। लेकिन नौकर के गाड़ी निकलने के मना किए जाने पर उषा का इसपर शिकायत कोई काम नहीं आता। काले बताता है कि उसके घर की औरतें कभी बाहर नहीं जाती हैं। बहस के दौरान उषा को थप्पड़ भी सहना पड़ता है। उषा फैसला करती है कि वह काले के घर पर नहीं रह सकती। वह अपने पति केशव और पुलिस की मदद से वहां से चली जाती है।
महिलाओं की सामाजिक मजबूरी
वहां से जाते हुए केशव और उषा इस नतीजे पर आते हैं कि वे साथ नहीं रहेंगे। उषा अपनी बेटी सुषमा से मिलने जाती हैं। पर अपनी बेटी से वह उसके गर्भवती होने की बात जान कर हैरान और दुखी हो जाती है। उषा की बेटी सुषमा अपनी मां से मिलते ही अपने गर्भवती होने की ख़बर बताती है। लेकिन उषा इसपर दुखी होती है और औरत के चरित्र को सबसे बड़ी पूंजी बताती है। सुषमा के शादी की बात पर ही उषा को तसल्ली होती है। निर्देशक ने इस किरदार से भी समाज में मौजूद पितृसत्ता को बखूबी दिखाया है जहां महिला चाह कर भी उससे छूट नहीं सकती। इस बात में समाज की सच्चाई दिखाई देती है। यह फ़िल्म हर मायने में समय से आगे की फिल्म थी और एक बेहतरीन प्रयास था। ‘भूमिका’ साल 1977 की फिल्म है, लेकिन पितृसत्तात्मक समाज द्वारा महिलाओं पर लगाए जाने वाली वो सारी बंदिशे आज भी प्रासंगिक है। इसलिए फ़िल्म में श्याम बेनेगल ने एक स्त्री को विद्रोह करते तो दिखाया ही है। साथ ही यह भी दिखाया है की आर्थिक रूप से स्वतंत्र महिला भी समाज के बंधनों में बंधी रहती है।