इंटरसेक्शनलLGBTQIA+ कैंपस में प्यार और सेक्सुअलिटी के मायने समझाती यश की कहानी 

कैंपस में प्यार और सेक्सुअलिटी के मायने समझाती यश की कहानी 

मैं पितृसत्तात्मक समाज की उस बनावटी स्वतंत्रता पर लानत भेजती हूं जो किसी को उसकी चाह के अनुसार अभिव्यक्ति की आज़ादी नहीं देता। कवि मार्कण्डेय राय ‘नीरव’ की लिखी पंक्ति याद हो आती है- “प्रेमियों को एक कोना देने में दुनिया की सारी ज़मीन नप जाती है।”

प्रेम! वह भावना जिसे अभिव्यक्त करने के लिए किसी अलंकार की आवश्यकता नहीं होती। हां! लोगों को एक सुन्दर जीवन जीने के लिए इससे अलंकृत होने की आवश्यकता ज़रूर है। संसार में धड़कते हर हृदय को किसी अन्य धड़कन की गाहे-बगाहे चाह उठती है, थमती है, पूर्ण होती है और कई दफा टूट भी जाती है। फिर भी, प्रेम को जीवन का सार कहा गया है। मनुष्य अपने मन मुताबिक़ अपनी भावना व पहचान का प्रर्दशन करना चाहता है। पर क्या हर किसी का अपने तन और मन पर सम्पूर्ण अधिकार है? होना चाहिए, पर है नहीं। और कई छोटे-बड़े अधिकार से वंचित रहने की तरह इसका श्रेय भी अकेले पितृसत्ता ले जा रही है।  

लोग अपनी भावना और पहचान दोनों को सामाजिक रूप से स्वीकार करने से झिझक खाते हैं। ख़ास तौर पर लड़कियां और एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के लोग। हमारे जीवन काल के बदलते परिवेश में भिन्न प्रकार की चुनौतियां विकसित होती है। इन्हीं में से कैंपस एक मुख्य जगह है जहां युवा पीढ़ी एक लंबा समय व्यतीत करते हैं। तो ऐसी जगह प्यार और सेक्सुअलिटी के क्या मायने हैं इसे समझना खुद में एक चुनौती है। इसे बेहतर समझने के लिए हमने यशस्विनी से बात की है। यशस्विनी बिहार की रहने वाली है और फ़िलहाल जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से राजनीतिक विज्ञान की पढ़ाई कर रही हैं। 

“अपनी सेक्सुअलिटी को समझना मेरे लिए मुश्किल नहीं था क्योंकि मैं इन विषयों पर बनी फिल्में, लेख, आदि खूब देखा पढ़ा करती थी। सोशल मीडिया पर नारीवाद से जुड़े संस्थानों को फॉलो करना और उनसे सही जानकारी प्राप्त करना भी मेरी यात्रा को सहज बनाते गए।”

अपनी सेक्सुअलिटी को स्वीकारने की शुरुआत

“बचपन से ही मुझे छोटे बाल रखना, शर्ट-पैंट पहनना, मार्शल आर्ट्स सीखने आदि का शौक था। बड़े होकर मुझे ब्रूस ली जो बनना था। ख़ैर राजनीतिक व सामाजिक विज्ञान में मेरी रुचि मुझे जेएनयू ले आई और यहां आते हीं मेरी मुलाकात श्रीलक्ष्मी से हुई। श्री और मैं पहली बार अपने हॉस्टल के कार्यालय में मिले और श्री को वहां मुझसे पहली नज़र वाला इश्क़ हो गया। शुरुआत में हम एक ही डॉरमेटरी में थे और चूंकि श्री केरल से है और मैं बिहार से, हमारी बमुश्किल ही कभी बात हुई। भाषा और संस्कृति में विविधता होने के कारण हम दोनों आपस में बात करने से झिझकते रहे। एक दिन श्री ने हिम्मत करके मुझसे बात की और कुछ ही दिनों बाद अपने दिल की बात बता दी। मैंने उसकी भावनाओं का आदर किया लेकिन मैंने उसे किसी प्रेम संबंध के लिए मना कर दिया। इसका कारण यह था कि मैं एसेक्सुअल हूं और मुझे उसके प्रति कोई आकर्षण नहीं था।

 तस्वीर साभार: ऋषू

इसे थोड़ा विस्तार से बताऊं तो मुझे किसी भी व्यक्ति के प्रति कभी कोई यौन आकर्षण महसूस नहीं होता। अपनी सेक्सुअलिटी को समझना मेरे लिए मुश्किल नहीं था क्योंकि मैं इन विषयों पर बनी फिल्में, लेख, आदि खूब देखा पढ़ा करती थी। सोशल मीडिया पर नारीवाद से जुड़े संस्थानों को फॉलो करना और उनसे सही जानकारी प्राप्त करना भी मेरी यात्रा को सहज बनाते गए। मेरे लिए प्रेम का मतलब एक-दूसरे को सम्मान देना, संवाद करना, कविताएं लिखना, चित्र बनाना और एक-दूसरे का पूरा ख्याल रखना है। लिंग, जाति, धर्म, उम्र, आदि का इसमें कोई स्थान नहीं है। परंतु मैं श्री को धोखे में नहीं रखना चाहती थी इसलिए मैंने उसे सारी बात अच्छे से समझाई।

उसने मेरे निर्णय का सम्मान किया और हम दोनों अच्छे दोस्त बने रहे। धीरे-धीरे हम दोनों नारीवाद, पितृसत्ता, मार्क्सवाद, एलजीबीटीक्यू+ कम्युनिटी की समस्याओं जैसे विषयों पर संवाद करने लगे और मुझे उसके विचार आकर्षित करते रहे। हमने एक-दूसरे की सेक्सुअलिटी को अच्छे से समझने का प्रयास किया, मेरी सीमाएं पसंद-नापसंद को अच्छे से सुनना, समझना श्री की वह खूबी थी जिसने मुझे सुरक्षा और सम्मान का अनुभव कराया और इस पूरी प्रक्रिया में मुझे श्री से प्रेम हो गया। तो कुछ ऐसे शुरू हुई हमारी प्रेम कहानी! हम पिछले छह महीनों से साथ हैं पर ऐसा लगता है जाने कितने वर्षों से एक-दूसरे को जानते हों। बिल्कुल घर जैसा अनुभव। 

इस फ्रेंडशिप डे को देखें क्वीयर दोस्ती के झरोखे से
तस्वीर: रितिका बनर्जी फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए

“मैं सार्वजनिक रूप से अपने रिश्ते को बताने में झिझकती हूं और नहीं भी। परिवार के कुछ सदस्यों का प्रेम और विश्वास मिला है जबकि कुछ को बताने में अस्वीकृति का डर है। रही बात दोस्तों की, ज्यादातर दोस्तों ने यह जानते ही मुझे खूब प्यार दिया और अपना समर्थन जताया लेकिन कुछ दोस्त ऐसे भी थे जिन्होंने मेरा मज़ाक उड़ाया या मेरे प्रेम को कोई मनोरोग समझकर मुझसे दूरी बना ली।”

विश्वविद्यालय प्रशासन का भेदभावपूर्ण रवैया

हालांकि, क्वीयर प्रेमियों को समाज में जो चुनौतियां झेलनी पड़ती हैं, हमें भी झेलनी पड़ीं। जैसे होमोफोबिक टिप्पणियां, भेदभाव, परिवार में स्वीकृति न मिलना आदि, पर अभी सबसे बड़ी चुनौती थी कैंपस में साथ रहना! चूंकि जेएनयू में क्वीयर विद्यार्थियों के लिए अभी तक अलग से कोई प्रावधान नहीं हैं, हमें साथ में हॉस्टल का कमरा मिलना लगभग असंभव था। दो महीने तक आधिकारिक भागदौड़ के बाद फिलहाल हम दोनों साथ ही रह रहे हैं।

जेएनयू प्रशासन क्वीयर विद्यार्थियों की सुरक्षा और उनके लिए समावेशी माहौल बनाने में पूरी तरह से विफल रहा है। और विफलता तो तब होगी जब प्रयास हो! दरअसल प्रशासन के लिए यह कोई महत्त्वपूर्ण मुद्दा ही नहीं है। हम कैंपस के क्वीयर कलेक्टिव से जुड़े हैं और हमारी लगातार यह मांग है कि महिलाओं व क्वीयर विद्यार्थियों की सुरक्षा के लिए चयनित संस्था काम करे, जेंडर-न्यूट्रल हॉस्टलों का निर्माण हो तथा कैंपस को पूर्णतया समावेशी बनाने का प्रयास हो। देश में तो मैरिज इक्विलिटी को लेकर बहस चल ही रही है, सुप्रीम कोर्ट से हमें उम्मीद है कि वह इसे कानूनी मान्यता ज़रूर प्रदान करेंगे पर ऐसे में देश की तमाम यूनिवर्सिटीज और उनमें पढ़ने वाले लाखों नौजवानों से भी हमें यह अपेक्षा है कि वह सामने आएं और प्रेमहित में इस लड़ाई का समर्थन करें।” 

यशस्विनी और श्री के रिश्ते पर परिवार और दोस्तों की प्रतिक्रिया 

“मैं सार्वजनिक रूप से अपने रिश्ते को बताने में झिझकती हूं और नहीं भी। परिवार के कुछ सदस्यों का प्रेम और विश्वास मिला है जबकि कुछ को बताने में अस्वीकृति का डर है। रही बात दोस्तों की, ज्यादातर दोस्तों ने यह जानते ही मुझे खूब प्यार दिया और अपना समर्थन जताया लेकिन कुछ दोस्त ऐसे भी थे जिन्होंने मेरा मज़ाक उड़ाया या मेरे प्रेम को कोई मनोरोग समझकर मुझसे दूरी बना ली। कुछ ऐसा ही अनुभव श्री का भी था। यही कारण है कि अब हम दोनों नए दोस्त बनाने में या पुराने दोस्तों को अपने रिश्ते के बारे में बताने से झिझकते हैं। हम नहीं चाहते कि कोई हमारे प्रेम को बिना समझे किसी भी प्रकार की टिप्पणी करे।”

क्वीयर समुदाय के मानसिक स्वास्थ्य पर बात करना ज़रूरी है
तस्वीर: रितिका बनर्जी फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए

प्रेम पाने, जताने और स्वीकारे जाने की आकांक्षा और वर्तमान स्थिति 

जब कभी हमारे आस पास घट रही घटनाओं में प्रेम या सेक्सुअलिटी का उल्लेख पाती हूं तो ज्यादातर वाकिया उदास करने वाला ही होता है। कभी कॉलेज के व्हाट्सएप ग्रुप में एलजीबीटीक्यू+ समुदाय से जुड़ी सूचना शेयर की जाती है तो लोगों का उस पर हँसना और उसे मीम मैटेरियल की तरह इस्तेमाल करना इतना गुस्सा पैदा करता है मन में कि सोचने पर मजबूर हो जाती हूं कि युवा पीढ़ी जो देश का भविष्य हैं कितनी शर्मनाक हरकतों से सुख पाते हैं। कभी कैंपस में घूमते वक्त किसी प्रेमी जोड़े को संग खिलखिलाते देख मन में सन्तोष आता तो वहीं यह भी दिखता है कि कुछ लोग एक झुंड में आकर उन्हें डरा धमकाकर भगा दे रहे हैं। हम अपने परिवार और समाज जो पहले से रूढ़िवादी विचारधारा के तले पिसा पड़ा है से क्या ही समर्थन की अपेक्षा करेंगे जब हमारे सहपाठियों में ही द्वेष की भावना का उपज इतना घना हो। विकसित शहरों के शिक्षकों में प्यार और सेक्सुअलिटी की सोच को समझती हूं तो पाती हूं कि उनके मन में सराहना का वास है किंतु पहल करने के प्रयास से बचते भी हैं। 

“देश में तो मैरिज इक्विलिटी को लेकर बहस चल ही रही है, सुप्रीम कोर्ट से हमें उम्मीद है कि वह इसे कानूनी मान्यता ज़रूर प्रदान करेंगे पर ऐसे में देश की तमाम यूनिवर्सिटीज और उनमें पढ़ने वाले लाखों नौजवानों से भी हमें यह अपेक्षा है कि वह सामने आएं और प्रेमहित में इस लड़ाई का समर्थन करें।” 

पितृसत्तात्मक समाज में लड़कियों को तमाम पाबंदियों की भांति अपना प्रेमी चुनने का हक़ नहीं, बल्कि लड़कों से दोस्ती रखने को भी गलत ठहराया गया है। चुकि मेरा मन भी इससे अछूता नहीं है, मेरे खुद के मन पर सम्पूर्ण अधिकार न होने का दोष मैं इस समाज पर ही थोपती हूं। मैं पितृसत्तात्मक समाज की उस बनावटी स्वतंत्रता पर लानत भेजती हूं जो किसी को उसकी चाह के अनुसार अभिव्यक्ति की आज़ादी नहीं देता। कवि मार्कण्डेय राय ‘नीरव’ की लिखी पंक्ति याद हो आती है, “प्रेमियों को एक कोना देने में दुनिया की सारी ज़मीन नप जाती है।”


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