स्वास्थ्यशारीरिक स्वास्थ्य गर्भधारण के बीच अंतराल की कमी माँ और बच्चे के लिए है बेहद खतरनाक

गर्भधारण के बीच अंतराल की कमी माँ और बच्चे के लिए है बेहद खतरनाक

दुनिया भर के शोध से पता चलता है कि एक महिला के जन्म और उसकी अगली गर्भावस्था के बीच के अंतराल की लंबाई सीधे तौर पर बच्चे, शिशु मृत्यु दर और मातृ मृत्यु दर के जोखिम से संबंधित होती है।

आज भले दूरदर्शन का दौर खत्म हो चुका हो, लेकिन दूरदर्शन में 90 के दशक में दिखाया जाने वाला परिवार नियोजन वाला विज्ञापन लोगों को आज भी याद है, जहां पहले और दूसरे बच्चे के बीच कम से कम दो साल का अंतराल होना जरूरी बताया जाता था। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के दिशानिर्देश को देखें, तो महिला के स्वास्थ्य की बहाली और बच्चे की उचित देखभाल के लिए गर्भधारण के बीच दो से पांच साल का अंतर रखने की सलाह दी गई है। गर्भधारण से एक महिला के शरीर में कई बदलाव होते हैं। विशेष रूप से, गर्भावस्था से पहले, उसके दौरान और बाद में। यह कुछ ऐसा भी होता है जो उनके यौन जीवन को भी प्रभावित करता है। जैसे, प्रसव के बाद उनके शरीर को ठीक होने के लिए पर्याप्त समय की जरूरत। इसलिए कई महिलाएं प्रसवोत्तर अवधि के दौरान अनियोजित गर्भावस्था से भी डरती हैं।

पोषक तत्वों की पर्याप्त आपूर्ति गर्भावस्था के परिणाम को प्रभावित करने वाला सबसे महत्वपूर्ण कारक है। मातृ पोषक तत्वों की कमी इन महिलाओं में समय से पहले जन्म और भ्रूण के विकास में देरी जैसी घटनाओं को बढ़ा सकती है। इसके साथ-साथ यह मातृ मृत्यु और विभिन्न रोगों के बढ़ोतरी में भी योगदान कर सकती है। घरेलू कामगार के रूप में काम कर रही सुनीता की उम्र लगभग 19-20 साल है। उसके दो बच्चे हो चुके हैं। समझ आता है कि शादी की उम्र से पहले ही उसकी शादी कर दी गई थी। सुनीता बिहार की रहने वाली है और परिवार चलाने के लिए लोगों के घरों में काम करती है। शादी के विषय में पूछने पर वह बताती है, “शादी तो शायद 14-15 साल में ही हो गई थी। फिर तुरंत ही बच्चा भी हो गया।” हालांकि पूरे देश में ही लड़के की चाह कोई हैरान करने वाली बात नहीं। लेकिन बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल या पंजाब जैसे राज्यों में लड़के की चाह कितनी है यह महिलाओं के गर्भधारण के तरीके और अंतराल से समझा जा सकता है।

हर्षित बिहार में एक राजमिस्त्री का काम करते हैं। उम्र बढ़ जाने की वजह से अब वे यह काम कम ही कर पाते हैं। बेटे की चाह में उनकी 9 बेटियां और 1 बेटा है। वहीं इस क्रम में उनकी पत्नी का दो बार गर्भपात भी हो चुका है। ये सारे बच्चे लगभग एक साल या उससे कुछ ज्यादा के अंतराल में हुए हैं।   

बेटों को प्राथमिकता

बेटे को प्राथमिकता देना, प्राचीन काल से भारत में व्याप्त एक परंपरा है, जिसका बेटी न चाहने से गहरा संबंध है। यह इस धारणा से उपजा है कि बेटियां घर पर बोझ हैं। साथ ही हमारे देश में सिर्फ बेटे को वंश को आगे बढ़ाने, बुढ़ापे में अपने माता-पिता को सहायता देने, पारिवारिक स्थिति में सुधार करने और ‘दहेज लाने’ के रूप में देखा जाता है। बेटे को प्राथमिकता देने के जबरदस्त सामाजिक दबाव के अलावा, आर्थिक कारक भी यहां एक प्रमुख भूमिका निभाते हैं।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए श्रेया टिंगल

बेटियों के प्रति भेदभाव जन्म से पहले भ्रूण हत्या, निम्न माध्यम वर्ग या गरीब घरों में स्वास्थ्य, भोजन और शिक्षा के मामले में भेदभाव के साथ-साथ अधिक दहेज देने से बचने के लिए बेटी की शादी पहले कर दी जाती है। हर्षित बिहार में एक राजमिस्त्री का काम करते हैं। उम्र बढ़ जाने की वजह से अब वे यह काम कम ही कर पाते हैं। बेटे की चाह में उनकी 9 बेटियां और 1 बेटा है। वहीं इस क्रम में उनकी पत्नी का दो बार गर्भपात भी हो चुका है। ये सारे बच्चे लगभग एक साल या उससे कुछ ज्यादा के अंतराल में हुए हैं।   

पोषण की कमी से कैसे माँ और बच्चा प्रभावित होते हैं

अतीत में, यह माना जाता था कि भ्रूण एक परजीवी के रूप में कार्य करता है और अपनी पोषण संबंधी आवश्यकताओं को माँ के टिशू यानि ऊतकों से ले लेता है। हालांकि, जानवरों और मनुष्यों दोनों में किए गए अध्ययन से पता चलता है कि यदि माँओं में पोषक तत्वों की आपूर्ति अपर्याप्त है, तो माँ और भ्रूण की जरूरतों के बीच संतुलन बिगड़ जाता है और दोनों के बीच एक जैविक प्रतिस्पर्धा की स्थिति मौजूद हो जाती है। साइंस डायरेक्ट में छपे एक शोध अनुसार गर्भधारण के बीच कम अंतराल या पीरियड्स के 2 वर्ष के भीतर गर्भधारण से, समय से पहले जन्म और अविकसित शिशुओं (रिटारडेड) का खतरा बढ़ जाता है। इन खराब गर्भावस्था परिणामों के संभावित कारण के रूप में माँ में पोषक तत्वों की कमी को बताया गया है। गर्भावस्था के दौरान कम अंतराल या कम उम्र में गर्भावस्था के परिणामस्वरूप माँ में ऊर्जा और प्रोटीन की कमी से गर्भधारण के समय मातृ पोषण की स्थिति में कमी आती है और गर्भावस्था के परिणाम बदल जाते हैं।  

जानवरों और मनुष्यों दोनों में किए गए अध्ययन से पता चलता है कि यदि माँओं में पोषक तत्वों की आपूर्ति अपर्याप्त है, तो माँ और भ्रूण की जरूरतों के बीच संतुलन बिगड़ जाता है और दोनों के बीच एक जैविक प्रतिस्पर्धा की स्थिति मौजूद हो जाती है।

गर्भधारण के बीच अंतराल की कमी से समस्याएं   

फोलिक एसिड और आयरन दोनों गर्भावस्था और स्तनपान के दौरान माँ के शरीर से एकत्रित होते हैं और गर्भावस्था के बीच की अवधि में इन्हें एक तरह से रीस्टोर किया जाना चाहिए। यदि गर्भधारण के समय माँ में  फोलेट और आयरन की कमी है, तो इन सूक्ष्म पोषक तत्वों की आपूर्ति में कमी से माँ या भ्रूण के विकास में खराब परिणामों का खतरा बढ़ सकता है। आयरन एक ऐसा पोषक तत्व है जो गर्भावस्था के दौरान माँ से प्राप्त होता है, और प्रसव के बाद कई महीनों तक शरीर में आयरन की कमी रहती है। आयरन की कमी से एनीमिया गर्भवती किशोरियों में एक प्रमुख समस्या है और यह समय से पहले प्रसव और जन्म के समय बच्चे के कम वजन से जुड़ा होता है।

हमें यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि महिलाओं की शादी या बच्चे छोटी उम्र में न हो। साथ ही, दो बच्चों के बीच उचित अंतराल हो। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार आज भी देश में 20-24 वर्ष की 23.3 फीसद महिलाओं की शादी 18 वर्ष से पहले हो जाती है। 15-19 वर्ष की 6.8 फीसद महिलाएं सर्वेक्षण के समय पहले से ही मां बन चुकी थीं या गर्भवती थीं। देश में 59 फीसद 15-19 वर्ष की महिलाएं एनीमिया से पीड़ित हैं। वहीं देश में 52.2 फीसद 15-49 वर्ष की गर्भवती महिलाएं एनीमिया से पीड़ित हैं। पिछले एनएफएचएस के आंकड़ों से इनमें वृद्धि दर्ज हुई है।

भारत में दो बच्चों के जन्म के बीच का अंतराल तुलनामूलक रूप से कम है। इस तरीके को लोग अपनाए इसके लिए जागरूकता, सामाजिक-सांस्कृतिक मानदंडों में बदलाव के अलावा सामाजिक-सांस्कृतिक और संरचनात्मक बाधाओं को संबोधित करने की जरूरत है। भारत में गर्भधारण के बीच स्वस्थ अंतर को बढ़ावा देने के लिए जरूरी कारकों पर एक स्टडी की गई जहां महिलाओं के अलावा पतियों और सास से बातचीत कर पता लगाया गया कि किस तरह यह बदलाव किया जा सकता है। इस अध्ययन में यह पाया गया कि शैक्षिक अभियानों के परिणामस्वरूप गर्भवती महिलाओं के बीच अंतर के लिए गर्भ निरोधकों का अधिक उपयोग हुआ।

एनएफएचएस-5 के आंकड़ों के विश्लेषण अनुसार भारतीय महिलाओं में हाई रिस्क यानि उच्च जोखिम वाली गर्भधारण की व्यापकता 49.4 फीसद है, जिसमें 33 फीसद  महिलाएं एक हाई रिस्क गर्भावस्था और 16.4 फीसद कई हाई रिस्क गर्भावस्थाओं से गुजर चुकी हैं। लगभग 31.1 फीसद महिलाओं में बच्चों के जन्म के समय कम अंतर था और 19.5 फीसद महिलाओं में पिछले बच्चे के जन्म के दौरान हानिकारक जन्म परिणाम थे।

दुनिया भर के शोध से पता चलता है कि एक महिला के जन्म और उसकी अगली गर्भावस्था के बीच के अंतराल की लंबाई सीधे तौर पर बच्चे, शिशु मृत्यु दर और मातृ मृत्यु दर के जोखिम से संबंधित होती है। इसके अलावा, जो गर्भधारण बहुत कम अंतराल पर होते हैं या जो 18 वर्ष से कम उम्र के किशोरियां जब गर्भवती होती हैं, उनमें समय से पहले जन्म और शिशुओं के लिए जन्म के समय कम वजन, जन्म संबंधी जटिलताओं, एनीमिया जैसे स्वास्थ्य समस्याओं का खतरा अधिक होता है।

हाई रिस्क प्रेग्नन्सी का डर

गर्भधारण में अंतराल न होने से हाई रिस्क प्रेग्नन्सी की संभावना बढ़ जाती है। “हाई रिस्क गर्भावस्था” का मतलब है कि किसी महिला के गर्भवस्था के दौरान एक या एक से ज्यादा कारक उसे या उसके बच्चे के स्वास्थ्य समस्याओं या समय से पहले प्रसव की संभावना को बढ़ा रहे हैं। किसी महिला की गर्भावस्था को हाई रिस्क तब माना जा सकता है यदि वह 17 वर्ष या उससे कम उम्र की हो। उम्र 35 वर्ष या उससे अधिक हो या  गर्भवती होने से पहले वजन कम या अधिक हो। एनएफएचएस-5 के आंकड़ों के विश्लेषण अनुसार भारतीय महिलाओं में हाई रिस्क यानि उच्च जोखिम वाली गर्भधारण की व्यापकता 49.4 फीसद है, जिसमें 33 फीसद  महिलाएं एक हाई रिस्क गर्भावस्था और 16.4 फीसद कई हाई रिस्क गर्भावस्थाओं से गुजर चुकी हैं। आंकड़ों के अनुसार मेघालय और मणिपुर में विशेष रूप से गर्भवती महिलाओं में 67.8 फीसद और 66.7 फीसद एक या एक से अधिक हाई रिस्क वाले कारक थे। लगभग 31.1 फीसद महिलाओं में बच्चों के जन्म के समय कम अंतर था और 19.5 फीसद महिलाओं में पिछले बच्चे के जन्म के दौरान हानिकारक जन्म परिणाम थे।

एक बच्चे के बाद अंतर को बनाए रखने में पोस्टपार्टम गर्भनिरोधक भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। ये वो विधियां हैं जो जन्म देने के बाद पहले वर्ष में दोबारा गर्भधारण को रोकने में मदद करती हैं। अक्सर बार-बार गर्भवती होने को खतरनाक समझा ही नहीं जाता। इसलिए महत्वपूर्ण है कि यौन और प्रजनन स्वास्थ्य को जरूरी समझा जाए और इस दिशा में जरूरी कदम उठाया जाए। इस दिशा में न सिर्फ महिला को, बल्कि उसके जीवनसाथी और परिवार को भी बराबर की भूमिका निभानी होगी। लैंगिक समानता, महिला और बच्चे के बेहतर स्वास्थ्य यह एक जरूरी और संवेदनशील कदम है जहां हमें रूढ़ियों और प्रथाओं के विरुद्ध काम करना होगा।   

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