लैंगिक समानता पर जब चर्चाएं, बातचीत होती है, तो बात आती है शैक्षिक संस्थानों, सार्वजनिक नीतियों, किताबों, सामानों, कपड़ों और सामाजिक मानदंडों की। आम तौर पर बच्चे के जन्म के साथ-साथ पारिवारिक, सामाजिक और सामुदायिक तौर पर हमें यह सीखा दिया जाता है कि कैसे कपड़े पहनने हैं। अमूमन रंग से लेकर कपड़ों का कट सब लिंग के आधार पर तय हो जाता है। इसलिए साधारण अवधारणा यही कहती है कि कपड़े अपनी लैंगिक पहचान को व्यक्त करने का एक तरीका है। लेकिन जब आपके पहनावे की बात आती है तो क्या हम लैंगिक मानदंडों से बाहर सोचते हैं? या क्या कभी ऐसा लगता है कि जो कपड़े आज बॉलीवुड में कई लोग पहन रहे हैं, वह आपके गांव या कस्बे में चलेगा या नहीं। भले महानगरों में यह तौर-तरीका नई पीढ़ियों में आज अधिक स्वीकार हो रहा है, जो फैशन में लैंगिक मानदंडों को तोड़ने का काम भी कर रहे हैं। हालांकि इतिहास में जाएं, तो कई जगह कपड़ों के बनावट और इस्तेमाल में यह लैंगिक भेद मिटती नजर आती है। लेकिन भारत में कथित ‘जेन्डर फ्लूइड’ फैशन की अवधारणा बहुत ज्यादा पुरानी नहीं है।
हम सक्रिय रूप से परिधान को दो मुख्य भागों में विभाजित करते हैं- पुरुष और महिला। लेकिन जहां लैंगिक समानता पर बातचीत हमारे समाज के भीतर तेजी से हो रही है और लोग इसे धीरे-धीरे ही सही मान रहे हैं, तो फैशन इसे बनाए रखने की पुरजोर कोशिश कर रहा है। यह सच है कि कपड़ों में लिंग होने की धारणा एक सामाजिक निर्माण है और हम आम तौर पर उसी के इर्द-गिर्द चलते हैं। हालांकि इसमें भी सदियों पहले के तौर तरीकों में बदलाव आया है। लेकिन उसके मूल में महिलाएं और पुरुष का अंतर अब तक बना हुआ है। जैसेकि जब हम ऊंची एड़ी के जूते का आविष्कार का इतिहास देखते हैं, तो पुरुष उन्हें अपनी उच्च वर्ग की स्थिति का संकेत देने के लिए पहनते थे। यह केवल वही पहनते थे, जिसे काम नहीं करना पड़ता था, आर्थिक और व्यावहारिक रूप से, ऐसे असाधारण जूते पहनने का खर्च वह उठा सकता था। लेकिन वहीं आज जब आप हील्स खोजे, तो गूगल पर आपको महिलाओं के हील्स मिलेंगे।
भारत में क्या जेन्डर फ्लूइड कपड़ों का चलन था
फैशन शब्द की अवधारणा भले तूलनामूलक रूप से नया हो, लेकिन फैशन कभी भी सिर्फ कपड़े पहनना नहीं था, बल्कि यह आपके व्यक्तित्व का हिस्सा है। चाहे राजा, महाराजाओं की बात करें, नेताओं या राजनीतिज्ञों की। कपड़ों के माध्यम से हम व्यक्ति का समुदाय और पेशा तक बता सकते हैं। लोग; खासकर युवा बहुत सोच-समझकर ऐसे परिधान चुनते हैं जिससे कपड़ों से उनका व्यक्तित्व निखर कर बाहर आए। भारत के परिधान इतिहास पर अगर गौर करें, तो कुछ अर्थों में यह लैंगिक रूप से समान कपड़ों के लिए जाना गया है। हाइपर मैसक्यूलिन या हाइपर फेमिनीन की अवधारणा का उदय बहुत बाद में हुआ, जो अबतक अधिकतर बना हुआ है।
मुग़ल काल में दोनों जेन्डर के कपड़ों में एकरूपता
पारंपरिक भारतीय पहनावे में हमेशा लैंगिक समानता की झलक दिखाई दी है। अतीत में, लोग कई कपड़े ऐसे पहनते थे जहां कोई निर्धारित सीमा नहीं थी। उदाहरण के लिए, साड़ी हालांकि महिलाओं द्वारा पहनी जाती थी, लेकिन इसमें विविधताएं भी थीं। जैसे, पुरुषों का धोती, जो आमतौर पर पुरुषों द्वारा पहनी जाती थी। गलाबंद या नेहरू जैकट जैसे परिधान भी महिलाओं और पुरुषों के लिए एक जैसे हुआ करते थे। मुगल काल, जो अपनी समृद्धि और भव्यता के लिए जाना जाता है, इस दौर में ‘अंगरखा’ जैसे परिधानों की लोकप्रियता देखी गई। इतिहास में जाएं, तो यह एक ऐसा परिधान था जिसे पुरुष और महिला दोनों पहन सकते थे। मुगल काल में स्त्री और पुरुष दोनों ही आभूषणों के शौकीन थे। मुगल महिलाएं विभिन्न प्रकार के आभूषण पहनती थीं।
उनकी वेशभूषा में आम तौर पर पायजामा, अंगरख, चूड़ीदार, सलवार, गरारा और फरशी शामिल थे। राजपूतों की मुख्य वेशभूषा में दरबारी-पोशाक थीं जिनमें अंगरखा, , अंगरखी (छोटा जैकट), पगड़ी, चूड़ीदार पायजामा और कमरबंद शामिल थे। अहीर समुदाय आम तौर पर जामा पहनते थे, ऊपरी परिधान के रूप में शेरवानी और निचले वस्त्र के रूप में सलवार, चूड़ीदार-पायजामा पहनते थे। उस समय धोती भी परंपरा में थी लेकिन इसे पहनने के तरीके अलग-अलग थे। मुग़ल काल में देश में ट्रांस समुदाय मूल रूप से महिलाओं के अनुरूप ही परिधान पहनते थे।
ब्रिटिश साम्राज्य का असर
ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के दौरान, भारतीय परिधान कई बदलावों से गुज़रे और इसमें स्पष्ट रूप से यूरोपीय प्रभाव दिखने लगा। अंग्रेजों के पास पोशाक के लिए सख्त नियम थे। यह मूल रूप से खुद को सांस्कृतिक और सामाजिक रूप से श्रेष्ठ मानने और दिखाने के तहत था। इस दौर में वे अपने साथ जेन्डर के बारे में अपने विचार भी साथ लेकर आए। उन्होंने पुरुषत्व और स्त्रीत्व की पश्चिमी अवधारणाओं को लागू किया, जिससे भारतीय समाज में बदलाव आया। उच्च और मध्यम वर्ग के भारतीय पुरुष सार्वजनिक स्थानों पर पश्चिमी कपड़े पहनते थे। इसमें भारतीय और पश्चिमी कपड़ों के तत्वों का संयोजन शामिल था। कुछ पुरुष शर्ट और कोट के साथ ‘धोती’ पहनते थे। वहीं दूसरों ने शेरवानी पहनना शुरू कर दिया, जो ब्रिटिश फ्रॉक कोट और अचकन को एक साथ जोड़ती थी।
आख़िरकार, कुछ पुरुषों ने पैंटसूट जैसी पूरी यूरोपीय परिधान भी पहनना शुरू कर दिया। महिलाओं के कपड़े और फैशन भी अंग्रेजों से प्रभावित थे। वे पुरुषों की तरह पूरी तरह से पश्चिमी कपड़े नहीं पहनते थे, लेकिन कई महिलाओं ने अपनी साड़ियों के नीचे पेटीकोट और कुछ खास ब्लाउज़ स्टाइल पहनना शुरू कर दिया। एक समय भारतीय पोशाक में समावेशिता दिखाने वाले कपड़े पश्चिमी फैशन से जुड़े लिंग मानदंडों को लागू करने के कारण खत्म हो गई थी। लोगों ने सख्त लिंग मानदंडों का पालन करना शुरू कर दिया और पारंपरिक रूप से समावेशी कपड़े का चलन धीरे-धीरे लैंगिक मानदंडों में फंसती चली गई, जहां कपड़ों को जेन्डर बाइनरी में बांट दिया गया।
फैशन इंडस्ट्री के माध्यम से जेन्डर नूट्रल कपड़ों का चलन
हालांकि जेन्डर नूट्रल फैशन नई विचारधारा लगती है, लेकिन इसकी शुरुआत 21वीं शताब्दी से हो चुकी थी। जैसे-जैसे भारत ने 21 वीं शताब्दी में कदम रखा, फैशन परिदृश्य में साहसिक बदलाव देखने को मिले। यह लैंगिक रूप से समावेशी फैशन का शुरुआती चरण था और जिस तरह आज लोग विशेष कर युवा इसे अपना रहे हैं, वह नहीं था। लेकिन रोहित बाल और अर्जुन सलूजा जैसे डिजाइनरों ने 2000 के दशक की शुरुआत में अपने ब्रांड लॉन्च करते समय अपने कलेक्शन में समावेशी तत्वों का प्रयोग किया। रोहित अक्सर पुरुषों को स्कर्ट, धोती जैसे कपड़ों में दिखाते हैं। वहीं साल 2003 के शो में उन्होंने पुरुषों को लुंगी और सिन्दूर में रैंप वॉक करवाया गया। वहीं सलूजा के सिल्हूट ‘जेन्डर फ्लूइड’ फैशन में काफी पसंद किया जाता है।
बात जब भारत के फैशन रुझानों की आती है, तो पिछले दशक में एक स्पष्ट पैटर्न देखा गया है। साल 2016 में, रणवीर सिंह ने L’Officiel कवर पर सेप्टम रिंग और बो के साथ ब्लाउज पहना था। यह उस वक्त तक भारत में किसी पुरुष सेलिब्रिटी का सबसे शक्तिशाली ‘जेन्डर फ्लूइड’ परिधान माना जा रहा था। इसके अलावा अली फज़ल, विजय वर्मा, जिम सर्भ जैसे अभिनेताओं ने निडर होकर ऐसे फैशन विकल्पों को अपनाया जो रूढ़ियों को चुनौती देते हैं और पारंपरिक हाइपर मैसक्यूलीन से परे है। हालांकि जेन्डर नूट्रल फैशन आज भी एक महानगरीय अवधारणा है जिसे गांव और कस्बों तक पहुंचने में लंबा रास्ता तय करना बाकी है। जेन्डर नूट्रल कपड़ों का मतलब कोई एक ट्रेंड नहीं। वे पारंपरिक लैंगिक भूमिकाओं को चुनौती देने और अधिक समावेशी समाज बनाने की गहरी इच्छा का प्रतिनिधित्व करते हैं। केवल कपड़ों के माध्यम से यह आशा करना कि हम इस दिशा में कामयाब होंगे, यह तर्कपूर्ण नहीं। लेकिन समावेशी कपड़ों के सहारे ही सही लैंगिक समानता के दिशा में यह महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।