इंटरसेक्शनलजेंडर यौन हिंसा के लिए महिलाओं के कपड़ों को दोष देना कब होगा बंद?

यौन हिंसा के लिए महिलाओं के कपड़ों को दोष देना कब होगा बंद?

हमारे समाज में महिलाओं का पहनावा हमेशा से सामाज के निर्धारित मानदंडों के अंतर्गत न सिर्फ तय किया जाता है, बल्कि उनके चरित्र को भी आँका जाता है। कई बार अपनी पसंद के कपड़ों के कारण उन्हें शारीरिक, मानसिक या यौन हिंसा का सामना करना पड़ता है। किसी भी प्रकार की हिंसा कभी भी जायज नहीं होती। पर जब यह सिर्फ कपड़ों के बुनियाद पर होता है, तो यह महिलाओं को सिर्फ एक वस्तु की तरह देखता है जिसे एक समाज के एक निश्चित तरीके के अनुसार पहनावा करना है। असल में न सिर्फ महिलाओं और लड़कियों को ही बल्कि हर व्यक्ति को अपने मन-मुताबिक कपड़ों का चयन करने की पूरी आज़ादी मिलनी चाहिए। लेकिन बात यदि महिलाओं की करें, तो इसपर हमेशा सवाल उठाए जाते रहे हैं। कोई भी व्यक्ति अपने धार्मिक पहचान के हिसाब से कपड़े पहनना चाहता है या फिर अन्य तरह के, जो भी उसका मन है, यह फैसला पूरी तरह व्यक्ति विशेष का होना चाहिए। व्यक्तिगत होना चाहिए।

हाल ही में, छतरपुर की डिप्टी कलेक्टर निशा बांगरे को भोपाल में उनकी ‘न्याय पद यात्रा’ के दौरान पुलिस ने जबरन हिरासत में लेकर कथित तौर पर पिटाई की। पुलिस से झड़प के दौरान उनके कपड़े फट गए। भारत में ऐसा कई बार देखा गया है कि महिलाओं को अपने कपड़ों या पहनावे को लेकर हिंसा का सामना करना पड़ता है। यह हिंसा केवल शारीरिक प्रताड़ना या सामाजिक तौर पर शर्मसार करने तक ही सीमित नहीं है। इसका असर महिलाओं को भावनात्मक रूप से भी झेलना पड़ता है। अपनी पसंद और नापसंद का अधिकार हर किसी को होता है। फिर भी इसमें जेंडर के आधार पर समाज का बदलता रवैया कहां तक प्रासंगिक है; यह बहस का मुद्दा हो सकता है।

असल में न सिर्फ महिलाओं और लड़कियों को ही बल्कि हर व्यक्ति को अपने मन-मुताबिक कपड़ों का चयन करने की पूरी आज़ादी मिलनी चाहिए। लेकिन बात यदि महिलाओं की करें, तो इसपर हमेशा सवाल उठाए जाते रहे हैं।

पसंद के कपड़े पहनने पर बहिष्कार का सामना

महिलाओं को समाज ने एक दायरे में बांध कर रखने की कोशिश की है। यहां हम देखते हैं कि कैसे समाज के रूढ़िवादी विचारधारा का विरोध करने वाले को बहिष्कार का सामना करना पड़ता है। आज हम मूल रूप से महिलाओं पर होने वाले उन हिंसा की बात करेंगे जो उनके पसंदानुसार पहने गए कपड़ों के कारण उन्हें झेलनी पड़ती है। कथित रूप से छोटे कपड़े पहनने वाली महिलाएं या वेस्टर्न कपड़े पहनने वाली महिलाओं को समाज में उचित स्थान नहीं दिया जाता है। इसके पीछे मूल कारण है पितृसत्तात्मक मानसिकता, जो महिलाओं को मनुष्य समझने के बजाए उन्हें आब्जेक्टिफाइ करते हैं। इस विचारधारा को आगे बढ़ाने में हमारा मेनस्ट्रीम भारतीय सिनेमा भी कम नहीं है। अक्सर फिल्मों में, महिलाओं को सिर्फ एक वस्तु की तरह दिखया जाता है। किसी भी प्रकार के कपड़े का चुनाव गलत नहीं है। मुद्दा यह है कि महिलाओं को अपनी पसंद के अनुसार कपड़े पहन लेने से कई बार उन्हें हिंसा और भेदभाव झेलना पड़ जाता है। हाल ही में 198 देशों के प्यू रिसर्च सेंटर के अध्ययन के विश्लेषण के अनुसार, 56 देशों में महिलाओं को धार्मिक या धर्मनिरपेक्ष पोशाक मानदंडों का उल्लंघन करने वाले कपड़ों के कारण उत्पीड़न का सामना करना पड़ा।

कपड़ों से जज किया जा रहा महिलाओं को

इसी विषय से कुछ मिलती-जुलती दिल्ली की एक घटना है, जहां महिला के साथ एक क्लब में यौन हिंसा का मामला सामने आया है। एक महिला ने आरोप लगाया कि कथित रूप से क्लब में उसके कपड़े फाड़ दिए गए और उसके साथ यौन हिंसा भी हुई। यह घटना केवल यौन उत्पीड़न का मामला नहीं दर्शाती बल्कि इसके पीछे छिपी विकृत और हिंसक मानसिकता भी झलकती है। कैसे एक क्लब में जाने वाली महिला और उसके पहनावे को देखकर कुछ लोग महिलाओं के लिए अपनी तरफ से कैरेक्टर सर्टिफिकेट जारी कर देते हैं। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि कभी-कभी यह सोच हिंसा का रूप ले लेती है। कॉलेज में एक लड़के से बात करके मुझे पुरुषों के दृष्टिकोण के बारे में और भी साफ़ तौर से पता चला। उसके अनुसार छोटे कपड़े पहनने वाली लड़कियों को जल्दी गर्लफ्रेंड बनाया जा सकता है। क्लब में वेस्टर्न कपड़ों में आई लड़कियां अज़नबी लड़कों से जल्दी घुल-मिल जाती हैं। पुरुषों के दृष्टिकोण के हिसाब से क्लब में जाने वाली और छोटे कपड़े पहनने वाली लड़कियों को जल्दी एप्रोच किया जा सकता है।

कॉलेज में एक लड़के से बात करके मुझे पुरुषों के दृष्टिकोण के बारे में और भी साफ़ तौर से पता चला। उसके अनुसार छोटे कपड़े पहनने वाली लड़कियों को जल्दी गर्लफ्रेंड बनाया जा सकता है। क्लब में वेस्टर्न कपड़ों में आई लड़कियां अज़नबी लड़कों से जल्दी घुल-मिल जाती हैं।

क्या घरों में कपड़ों के चुनाव की आज़ादी है

यह तो रही बाहर की बातें। लेकिन विडंबना की बात तो यह है कि महिलाओं को खुद अपने घर में भी अपनी पसंद-नापसंद को चुनने का अधिकार नहीं होता। उनके साथ चलती है घर-परिवार की इज़्जत और बड़ों की आज्ञा। वाकई में अगर इस स्थिति पर गौर करें, तो समस्या को मूल रूप से हटाने के लिए जड़ों से काम करना आवश्यक है। जब महिलाओं को अपनी पसंद के कपड़े पहनने की आजादी घर में ही न मिले, तो बाहर के बारे में सोचना ही व्यर्थ है। उत्तर प्रदेश के एटा जिले की प्रियदर्शिनी, जिनकी अभी-अभी शादी हुई हैं बताती हैं कि कैसे शादी की अगली सुबह जब वह सलवार-सूट पहन कर कमरे से बाहर निकली, तो घर की औरतों ने मिलकर उन्हें काफी कुछ कहा और सुनाया। वो कहती हैं, “शादी में भारी-भरकम कपड़े और गहनों को पहन कर मुझे काफी थकान हो गयी थी। इसीलिए, मैंने कुछ हल्का पहनने का सोचा। लेकिन सलवार-सूट और हलके गहनों में मुझे देखकर ससुरालवालों के मुझे काफी कुछ सुनाया।”

तस्वीर साभार: श्रेया टिंगल फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए

ससुराल में प्रियदर्शिनी का पहला दिन अपने-आप में ढेर सारी चुनौतियों से भरा होगा। ऐसे में कपड़ों को लेकर उठाया गया यह मुद्दा केवल उसे परेशान ही नहीं बल्कि मानसिक तौर पर उसके मन में एक डर और घबराहट को भी पैदा करेगा। केवल खुद को नयी जगह पर कम्फ़र्टेबल करने के लिए प्रियदर्शिनी ने सलवार-सूट पहन लिए और इस बात पर ससुराल की सभी औरतों का उसे बातें सुनाना, समाज में औरतों के साथ हो रहे एक ऐसे प्रकार के हिंसा से पर्दा हटाती है, जिसके ऊपर शायद ही किसी का ध्यान गया हो।

यह हिंसा है भावनात्मक रूप से मनोबल को तोड़ देने की। जहां व्यक्ति अपनेआप पर सवाल उठाना शुरू कर देता है। कई बार समाज ऐसी स्थिति बना देती है कि हिंसा और शोषण का शिकार व्यक्ति स्वयं को गुनहगार मानने लगता है। शादी से ही जुड़ा एक मामला मेरी दोस्त सौम्या ने भी मुझसे साझा की। वह बताती है, “घर की शादी में पहनने के लिए मैंने जो लहंगा चुना था, उसका ब्लाउज बैक-लेस था और मेरे चाचा ने मुझे वह लहंगा पहने से साफ़ मना कर दिया। लेकिन फिर भी मैंने वो लहंगा शादी में पहना और मेरी माँ ने मुझे बाल खुले रखने को बोला ताकि मेरी ब्लाउज का पीछे का हिस्सा छुपा रहे और वह ‘भद्दा’ भी न लगे।” घर के पुरुष सदस्य, लड़कियों और महिलाओं को कुछ विशेष प्रकार के कपड़ों को पहनने से मना कर देते हैं क्योंकि शायद वह स्वयं भी उस संकीर्ण मानसिकता से ग्रस्त हैं जहां कम कपड़ों में महिलाओं को देखने का नजरिया सेक्सुअल हो सकता है या शायद ‘भद्दा’ लग सकता है। आखिर किसी के पसंद के कपड़े चाहे लहंगा हो या कुछ और का भद्दा होना कहां तक तर्कसंगत है?

वो कहती हैं, “शादी में भारी-भरकम कपड़े और गहनों को पहन कर मुझे काफी थकान हो गयी थी। इसीलिए, मैंने कुछ हल्का पहनने का सोचा। लेकिन सलवार-सूट और हलके गहनों में मुझे देखकर ससुरालवालों के मुझे काफी कुछ सुनाया।”

कपड़ों के माध्यम से पुलिसिंग नहीं सोच में हो बदलाव

ऐसे हम देखते हैं कि अपनी पसंद के कपड़े पहनने पर महिलाओं को किस प्रकार भावनात्मक रूप से प्रताड़ित किया जाता है। अपने ही घर में महिलाएं और लड़कियां दोहरे मापदंडों के बीच उलझती हुई दिखाई देती है। उनका यही डर और समाज का रवैया महिलाओं के विकास में रुकावट पैदा करता है। असल में महिलाओं और लड़कियों के लिए कुछ विशेष तरीके के कपड़ों को ही उनके अस्तित्व से जोड़कर रखना समाज की मानसिकता को दिखाता है। समाज महिलाओं के ऊपर हो रहे हिंसा को रोकने के लिए भी कपड़ों को एक हथियार के रूप में प्रयोग करने से पीछे नहीं हटता। ‘यह तुमने कैसे कपड़े पहने हैं?’ इसका संबंध महिलाओं के पहनावे पर सवाल उठाने मात्र से नहीं होता बल्कि यह महिलाओं के अस्तित्व पर एक चोट सी दिखती है। जब हम ड्रेस कोड और कपड़ों के माध्यम से पुलिसिंग के बारे में बात करते हैं, तो वे नियम अधिकतर लड़कियों और महिलाओं के कपड़ों पर लागू होते हैं। जैसे, लड़कियों का शरीर कितना दिखा रहा है और इसका उनके आसपास के युवा लड़कों और पुरुषों पर क्या प्रभाव पड़ सकता है।

कपड़ों पर पुलिसिंग ने LGBTQIA+ समुदाय के लोगों पर भी प्रभाव डाला है। अक्सर उन्हें उनके कपड़ों के कारण हीन दिखाया जाता है और भेदभाव का सामना करना पड़ता है। अपनी पसंद के कपड़े पहने की आजादी हर किसी को होनी चाहिए। इसपर किसी लिंग का विशेषाधिकार होना उचित नहीं है। कपड़े किसी व्यक्ति का तथाकथिक कैरेक्टर परिभाषित नहीं करते। हम ऐसे समाज में रह रहें हैं, जहां शायद किसी लड़की के लिए अपनी इच्छा अनुसार कपड़े पहनना, आरामदायक और कम्फ़र्टेबल कपड़े पहनना ही उसके लिए काफी बड़ी बात होती हो। ऐसे में समाज को अपनी विचारधारा में परिवर्तन लेन की खासा जरूरत है।

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