संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष की इंडिया एजिंग रिपोर्ट 2023 के अनुसार, 60 वर्ष से ऊपर की जनसंख्या 2050 तक 10.5 फीसद या 14.9 करोड़ साल 2022 तक दोगुनी होकर 20.8 फीसद या 34.7 करोड़ हो जाएगी। वृद्ध लोगों की बढ़ती जनसंख्या के लिए बढ़िया सुविधाएं मुहैया कराना, उनके जीवन को स्वस्थ महसूस कराने जैसी चुनौतियां हमारे समक्ष होंगी। इन चुनौतियों से लड़ने के लिए हेल्थी एजिंग का कॉन्सेप्ट अंतर्राष्ट्रीय संस्थान विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दिया है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में हेल्थी एजिंग किस वर्ग के लोगों के हिस्से आती है? यह विषय क्या है? इसे ही समझने का प्रयास इस लेख में करेंगे। क्या है हेल्थी एजिंग विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, कार्यात्मक क्षमता को विकसित करने और बनाए रखने की प्रक्रिया जो वृद्धावस्था में कल्याण को सक्षम बनाती है। कार्यात्मक क्षमता उन क्षमताओं के बारे में है जो सभी लोगों को वह बनने और करने में सक्षम बनाती है जिसे उनके पास महत्व देने का कारण है।
इसमें एक व्यक्ति की कुछ क्षमताएं शामिल हैं। बुनियादी ज़रूरतें पूरी करें; सीखें, बढ़ें और निर्णय लें; गतिशील रहें; संबंध बनाना और बनाए रखना; और समाज में योगदान करें। इन्हीं क्षमताओं के परिपेक्ष्य में भारत में वृद्ध लोगों की मौजूदा स्थिति आखिर क्या है? वर्ग, जाति, जेंडर की इसमें क्या भूमिका है? वृद्ध लोग की बुनियादी जरूरतें कितनी पूरी हो रही हैं? एक वृद्ध व्यक्ति की कार्यात्मक क्षमता विकसित बनी रहे उसके लिए उसकी बुनियादी जरूरतें पूरी होना मुख्य है। इन बुनियादी जरूरतों में अच्छा खाना, रहने की अच्छी जगह, आय का कोई श्रोत, कोई बीमारी हो तो उसका बेहतर इलाज जैसे बिंदु शामिल हैं। यह सभी जरूरतें भारत के चालीस प्रतिशत वृद्धों के पास नहीं हैं। द हिंदू के लिए अभिनय लक्ष्मण की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 40 फीसद से अधिक बुजुर्ग सबसे गरीब संपत्ति वर्ग में हैं। उनमें से लगभग 18.7 फीसद बिना आय के जीवन यापन करते हैं। वृद्धों के पास आय न होना उन्हें हिंसा का शिकार बनाता है।
“बच्चे स्कूल चले जाते हैं। बेटा काम पर और बहु बगल के स्कूल में काम करने उसके बाद भूख लगने पर खाना खा लेती हैं और फिर आंगन में बैठके सबके आने का इंतजार करती हैं।”
आर्थिक परेशानी कैसे मुश्किल का कारण है
72 वर्षीय दिनमेश मथुरा, बताते हैं कि वे जवानी के दिनों में सब्जियां बेचने का काम करते थे। उसी से बच्चों को पढ़ाया लिखाया, दो लड़कियों की शादी कर दी और लड़का पोस्टमास्टर बन गया है। वे आगे बताते हैं, “दो वक्त की रोटी भी गाली सुनते हुए खाने मिलती है। मेरे घरवाली पांच साल पहले गुज़र गई वरना मैं उसके साथ अलग रहना चुनता। लेकिन अब उम्र हो गई है कुछ कर नहीं सकता।” राष्ट्रव्यापी घरेलू सर्वेक्षण, “ब्रिज द गैप : अंडरस्टैंडिंग एल्डर नीड्स” के अनुसार, 35 फीसद बुजुर्गों को अपने बेटों के हाथों दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ता है और 21फीसद ने अपनी बहुओं द्वारा की गई दुर्व्यवहार की शिकायत की। लगभग 2 फीसद बुजुर्गों के साथ उनके घरेलू सहायकों द्वारा दुर्व्यवहार किया गया, जो परिवार का सदस्य नहीं है। रिपोर्ट किया गया दुर्व्यवहार ‘अपमान’ और ‘मौखिक दुर्व्यवहार’ से लेकर ‘उपेक्षा’ और ‘शारीरिक हिंसा’ तक था।
बुजुर्गों के लिए अवसाद खतरनाक
‘सीखें, बढ़ें और निर्णय लें’, का अधिकार क्या बुजुर्गों के पास है? घर के बुजुर्गों के प्रति समाज में यह आम राय होती है कि वे उम्र बढ़ते के साथ सिर्फ अपनी संतान की सुनें और उनके कहे अनुसार ही चलें। अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो संतान उन्हें त्याग सकते हैं। हालांकि बहुत बार परिस्थितियां जैसे बुजुर्गों की बीमारी, खुद ना संभाल पाने की शारीरिक और मानसिक स्थिति में ऐसा जायज़ है कि वे अपनी संतानों की सुनें। बुजुर्ग बच्चों पर पूरी तरह आश्रित हो जाते हैं जिससे वे अपनी पहचान खो देने जैसे भाव से भर जाते हैं जिसके अपने मानसिक दुष्परिणाम भी हैं।
हिंदुस्तान टाइम्स की खबर में छपी, लॉन्गिट्यूडिनल एजिंग स्टडी ऑफ इंडिया (LASI, 2020) से पता चलता है कि 60 और उससे अधिक उम्र के दस में से एक से अधिक बुजुर्गों को संभावित प्रमुख अवसाद है। मथुरा के 78 वर्षीय बिस्ना अपने आंगन में एकदम अकेले बैठी थीं जब हम उनसे बात करने पहुंचे। उनसे पूछा कि वे आजकल अपना दिन कैसे व्यतीत करती हैं? इसके जवाब में वह कहती हैं, “बच्चे स्कूल चले जाते हैं। बेटा काम पर और बहु बगल के स्कूल में काम करने उसके बाद भूख लगने पर खाना खा लेती हैं और फिर आंगन में बैठके सबके आने का इंतजार करती हैं। फिर भी उनसे ज्यादा कोई बोलता नहीं है सब अपने काम या फोन और टीवी में लग जाते हैं। हर दिन यही होता है।”
“हमारे दो बेटे एक बेटी थी। बेटी जयपुर में है और एक बेटा दिल्ली और दूसरा बंबई अपने परिवारों के साथ रहते हैं। हमें अपना यह छोटा शहर अच्छा लगता है। हम खाना बनाते हैं, घूमने जाते हैं, डॉक्टर के पास भी साथ जाते हैं। बच्चों के साथ इसीलिए नहीं गए क्योंकि वहां चार दीवारों में बंद रह जाएंगे।
अपने फैसले लेने के अधिकार क्यों जरूरी है
बुजुर्ग अपने फैसले खुद ले सकें इसके लिए उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी होने के साथ साथ मानसिक रूप से खुश होना भी जरूरी है। हमारे समाज में बुजुर्गों का खुश होना इस बात पर भी निर्भर करता है कि उनके अतीत में वे किस दौर से गुजरे हैं या गुज़र रहे हैं। दलित, गरीब, आदिवासी बुजुर्ग जिन्होंने हिंसा सही है, और खराब परिस्थिति में समय बिताया है, वे अपनी वृद्धावस्था में भी डर के साए में जीते हैं। ऐसे में यह बुजुर्ग हेल्थी एजिंग कैसे पा सकते हैं? बुजुर्गों के अधिकार सामाजिक परिदृश्य में उनकी सामाजिक जगह से भी निर्धारित होते हैं।
वैश्वीकरण के दौर में आर्थिक स्थिति में बच्चे कई बार न चाहते हुए भी एकल परिवार में रहते हैं और हर सदस्य कामकाजी होता है। इस परिस्थिति में बुजुर्गों के साथ उनके बच्चों का कम ही वक्त निकलता है। वे अचानक से अकेले पड़ जाते हैं। बच्चे नौकरी की तलाश में निकलते हैं, कई बार वे मजबूत आर्थिक स्थिति ना होने से भी बुजुर्गों को मजबूरी के चलते अपने साथ नहीं रख पाते हैं। मथुरा की 68 वर्षीय शकुंतला बताती हैं हमारे यह सवाल करने पर कि वे और उनके पति नंदन, 72, पूरे दिन घर में अकेले क्या करते हैं, वह कहती हैं, “हम शुरू से अकेले नहीं थे। बच्चों की नौकरी लगी। वे दिल्ली-बंबई चले गए।”
अलग-अलग रहने की मजबूरी
वह आगे बताती हैं, “हमारे दो बेटे एक बेटी थी। बेटी जयपुर में है और एक बेटा दिल्ली और दूसरा बंबई अपने परिवारों के साथ रहते हैं। हमें अपना यह छोटा शहर अच्छा लगता है। हम खाना बनाते हैं, घूमने जाते हैं, डॉक्टर के पास भी साथ जाते हैं। बच्चों के साथ इसीलिए नहीं गए क्योंकि वहां चार दीवारों में बंद रह जाएंगे। हम किसी को और कोई हमें नहीं जानेगा तो हम किसके पास बैठेंगे, बतियाएंगे क्योंकि बेटा बहु तो सुबह से काम पर चले जाते हैं। जब तक साथ हैं यहीं हैं आगे की पता नहीं। हां बच्चों की याद आती है।” समाज का हिस्सा होने की वजह से बुजुर्ग आखिर पितृसत्ता से तो ग्रसित होते ही हैं। उन्हें लगता है कि उनकी देख-रेख उनकी बहू ही करे। लेकिन समाज बदल रहा है। महिलाएं नौकरियां करना चाहती हैं। यह जरूरत भी है और उनका अधिकार भी। जरूरी है कि बुजुर्गों के लिए एक केयर सिस्टम समाज में बनाया जाए।
केयर सिस्टम का मतलब वर्चस्व नहीं
सरकार ऐसे सिस्टम की पहल करे। इसमें सभी लोगों का कुछ योगदान हो परिवार के हर सदस्य से लेकर समाज के लोगों तक का। भारत के अधिकतर बुजुर्ग गांव कस्बों में रहते हैं ऐसे में उनके लिए चिकित्सा की सुविधा भी यहां एक जरूरी फैक्टर है जो उनके स्वास्थ्य पर अच्छा प्रभाव डाले। बुजुर्गों को गतिशील बनाए रखने के लिए सरकार के पास क्या नीतियां?वृद्धों को लेकर पेंशन एक ऐसी नीति है जो उन्हें परिवार में स्टेबल रखती है। लेकिन क्या पेंशन बुजुर्गों के हिस्से आती है? मथुरा की 73 वर्षीय धारा बताती हैं कि उनके पति मास्टर थे। पेंशन आती है। लेकिन वे खुद कभी रुपए नहीं देख पाती हैं। न ही उन्हें ये पता है कि कितने रुपए आते हैं क्योंकि बेटा खुद ही निकालता है और उन्हें महीने के पांच सौ ही देता है। वे ज्यादा कुछ कह नहीं सकतीं है क्योंकि ऐसा करने पर उनके पास और कहीं ठिकाना नहीं है।
क्या सरकार की योजनाएं काफी है
भारत सरकार द्वारा वृद्धों के लिए घर, दवा अन्य सहायता के लिए अटल वयो अभ्युदय योजना, राष्ट्रीय वयोश्री योजना, वरिष्ठ नागरिकों के लिए राज्य कार्य योजना, वरिष्ठ नागरिकों के लिए आजीविका और कौशल पहल के अंतर्गत सेक्रेड, अग्रसर ग्रुप स्कीम आदि स्कीम शामिल हैं। यह नीतियां मौजूद हैं यह अच्छा संकेत है। लेकिन बुजुर्गों तक यह नीतियां पहुंचेगी कैसे? आजकल बहुत सी चीजें डिजिटल हो चुकी हैं और बुजुर्ग यह सब नहीं जानते। चालीस प्रतिशत बुजुर्ग गरीब हैं जिसका अर्थ है कि वे अधिक पढ़े-लिखे नहीं हैं या हाशिए के समुदायों से आते हैं। ऐसे में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा हेल्थी एजिंग पर फोकस, और भारत सरकार द्वारा सिल्वर इकोनॉमी पर फोकस कहीं-कहीं सतही लगता है।