कैंपस में नारीवादी शिक्षा की आवश्यकता को जानने के लिए पहले हमें ये समझना होगा कि नारीवादी शिक्षा क्या है, और किस तरह ये शैक्षिक संस्थानों तक पहुंचाई जा सकती है। नारीवादी शिक्षा मूल रूप से महिलाओं और हाशिए पर रहे समुदायों को उनके अधिकारों, समानता, और सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने की बात करता है। इसका उद्देश्य समाज में महिलाओं और उन समुदायों को सशक्त बनाना है और उन्हें शिक्षा के माध्यम से हर क्षेत्र में उच्चतम स्तर तक पहुंचने में मदद करना है। हालांकि आम धारणा से उलट, इसका उद्देश्य पुरुषों की अवहेलना नहीं है। नारीवाद शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए नारीवाद और उसके जुड़े इतिहास को भी जानना अहम है। मूलतः नारीवाद उस हक़ की मांग की बात करता है जिससे समाज ने महिलाओं और हाशिये पर रह रहे समुदायों को वर्षों तक वंचित रखा है।
नारीवादी आंदोलन में, समानता का मतलब महिलाओं को पुरुषों से ऊपर उठाना या अन्य हाशिए पर रहने वाले समूहों के अनुभवों और संघर्षों की अनदेखी करना नहीं है। यह सभी व्यक्तियों के लिए, उनकी लिंग के पहचान की परवाह किए बिना एक अधिक न्यायपूर्ण और न्यायसंगत समाज की बात करता है। नारीवाद केवल महिलाओं का मुद्दा नहीं है। कोई भी समाज तब आगे बढ़ सकता है जब समाज की आधी आबादी को उसका पूरा हक़ मिले। ये हक़ तब मिलेगा जब महिलाओं के साथ- साथ पुरुषों में भी नारीवाद की समझ विकसित होगी। इसकी शुरुआत कॉलेज और यूनिवर्सिटी के कैंपस से की जा सकती है। जहां विद्यार्थियों को नारीवाद का सही अर्थ समझया जा सके और उनके मन में जो नारीवाद की ग़लत या एकतरफा विचारधारा के बजाय सही शिक्षा का बीज रोपण किया जा सके।
भारत में नारीवाद
सामाजिक संरचना और उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष के कारण भारत का नारीवादी आंदोलन पश्चिम से अलग है। भारत में नारीवादी आंदोलन सामाजिक सुधार आंदोलन और राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ा हुआ है। भारत का पहला नारीवादी आंदोलन 19वीं शताब्दी में शुरू हुआ, जो उस समय समाज में अंधविश्वासों और रूढ़वादी परंपराओं जैसे- सती प्रथा, बाल विवाह, देवदासी प्रथा आदि को समाप्त करने के उद्देश्य पर ज़ोर देता था। राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर,ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले, फातिमा शेख, ताराबाई शिंदे, स्वामी दयानंद सरस्वती, पंडिता रमाबाई, सर सैय्यद अहमद खान जैसे चिंतकों और समाज सुधारकों ने महिलाओं से जुड़े हुए मुद्दे पर आवाज़ उठाई। सामाजिक संगठनों और कानूनी सुधार के ज़रिए महिला शिक्षा, विधवा विवाह और उनके अधिकारों को दिलाने के लिए काम किया गया।
वहीं भारत में हुए दूसरे चरण में महिलाओं ने सक्रिय भागीदारी दिखाई। इस समय में महिलाएं स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर श्रमिक आंदोलन में भी हिस्सा लेने लगीं। इसी दौरान भारतीय महिला संघ(1917) जैसे संगठनों की स्थापना हुई और शारदा एक्ट (1929) जैसे कानूनी सुधार हुए। भारत में नारीवादी आंदोलन का तीसरा चरण देश की आजादी के बाद शुरू हुआ। इसमें महिलाओं को सार्वजनिक और निजी जीवन में समानता का अधिकार जिसमें मुख्य रूप से सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक समानता, शिक्षा तक पहुंच, संपत्ति में अधिकार जैसे मुद्दे शामिल थे। लेकिन जब हम इतिहास के पगडंडी को पार कर के वर्तमान की ज़मीन पर आते हैं तो आज भी हमें महिलाओं की स्थिति बहुत बेहतर होती नहीं दिखती। हालांकि कुछ बदलाव ज़रूर आया है।
“यह बहुत ज़रूरी है कि विद्यार्थियों में इसको लेकर समझ विकसित हो। मैं मानती हूँ कि अगर पुरुषों में नारीवाद की समझ हो, तो महिलाओं को किसी आंदोलन की ज़रूरत नहीं होगी।”
नारीवादी शिक्षा और नारीवादी शैक्षिक संस्थानों की जरूरत
नारीवादी शिक्षा या शैक्षिक संस्थानों की बात करें, तो भारत कुछ ऐसी संस्थाएं हैं, जहां कैंपस में नारीवादी शिक्षा फल-फूल रही है। लेकिन इनकी संख्या मुठ्ठी भर ही है। जबकि ज़्यादातर कैंपस अभी नारीवादी शिक्षा से अनभिज्ञ हैं। कैंपस में नारीवादी शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए ज़रूरी है कि, कैंपस में समर्थन का माहौल बनाएं ताकि विद्यार्थी खुलकर अपने विचार साझा कर सकें और महिलाओं सहित हाशिये के समुदायों की भी बातें सुनी जा सके। वहीं नारीवादी शिक्षा कार्यक्रमों के ज़रिए नारीवादी शिक्षा को बढ़ाने और इसपर चर्चा और विमर्श की कोशिश की जाए। कैंपस से नारीवादी शिक्षा के प्रसार से समाज में जागरूकता बढ़ाने के लिए माहौल बनाया जाए ताकि समाज में हर वर्ग तक नारीवादी शिक्षा के महत्व का आदान-प्रदान हो।
नारीवादी शैक्षिक संस्थान आखिर क्यों
प्रोफ़ेसर मधु सिन्हा( बदला हुआ नाम) अंग्रज़ी विषय पढ़ाती हैं। उनसे पूछने पर कि कैंपस में एक महिला प्रोफ़ेसर होने के नाते उन्हें कैसा महसूस होता है, वो बताती हैं, “कॉलेज में होने वाले अंग्रेजी के ज्यादातर क्लास मैं अकेली लेती हैं। मेरे पर ज़्यादा से ज़्यादा क्लास लेने, एग्जाम की कॉपियाँ जांचने और अंग्रेज़ी विभाग से जुड़े कामों को अकेले निपटने का दबाव होता है। वहीं, मेरे सहकर्मी जोकि पुरुष हैं, वो हर ज़िम्मेदारी से दूर रहते हैं। ये उनके पुरुषवादी मानसिकता को दर्शाता है।”
प्रोफ़ेसर सिन्हा का मानना है कि किसी महिला का घर से निकल कर काम करना बहुत बड़ी बात होती है। लेकिन उन्हें कार्यस्थल पर भी पितृसत्तात्मक विचारधारा का सामना करना पर रहा है। प्रोफ़ेसर सिन्हा शैक्षिक संस्थानों में नारीवाद का समर्थन करते हुए कहती है, “यह बहुत ज़रूरी है कि विद्यार्थियों में इसको लेकर समझ विकसित हो। मैं मानती हूँ कि अगर पुरुषों में नारीवाद की समझ हो, तो महिलाओं को किसी आंदोलन की ज़रूरत नहीं होगी।”
कैंपस में नारीवाद शिक्षा या शैक्षिक संस्थानों में नारीवाद की आवश्यकता पर पूछे जाने पर वह कहती हैं, “ये बहुत ज़रूरी है कि महिलाओं के साथ पुरुषों में भी नारीवाद की भावना विकसित हो ताकि वो महिलाओं की मानसिक क्षमता को उनके लिंग के आधार पर कम नहीं समझेंगे।”
नारीवादी माहौल का क्या है मतलब
वहीं बी.एस.सी की छात्रा स्वीटी (नाम बदला हुआ) बताती हैं, “जब मैं अपने कॉलेज में गईं तो मैं क्लास में अकेली लड़की थीं। शुरुआत में लड़कों ने मुझे क्लास छोड़ देने के लिए हर तरह से परेशान किया।” वह आगे बताती है, “पीछे बैठे लड़के मेरे पर कमेंट करते और अगर वो शिक्षक से कोई सवाल कर लेती थीं, तो लड़के इसका भी मजाक बनाते थे।” कैंपस में नारीवाद शिक्षा या शैक्षिक संस्थानों में नारीवाद की आवश्यकता पर पूछे जाने पर वह कहती हैं, “ये बहुत ज़रूरी है कि महिलाओं के साथ पुरुषों में भी नारीवाद की भावना विकसित हो ताकि वो महिलाओं की मानसिक क्षमता को उनके लिंग के आधार पर कम नहीं समझेंगे।”
कैसे नारीवादी शैक्षिक माहौल मदद कर सकता है
इस विषय पर बी.टेक की छात्रा मनीषा बताती हैं, “मेरे कॉलेज में एक ड्रेस कोड है जिसमें छात्र और छात्राओं को एक समान शर्ट और पैंट पहनना होता है।” मनीषा बताती हैं कि वह एक रूढ़िवादी परिवार से आती हैं। ड्रेस कोड के विषय पर वह बताती हैं, “मुझे कॉलेज में एडमिशन लेने के लिए पहले ही बहुत संघर्ष करना पड़ा है। ऐसे में ड्रेस कोड मेरे लिए एक और चुनौती है। मेरा मानना है नारीवाद का मतलब सिर्फ़ पुरुषों के जैसा कपड़े पहनना नहीं है बल्कि पुरूषों के बराबर अधिकार, सम्मान और आज़ादी मिलनी चाहिए।” नारीवाद सिर्फ़ मानवाधिकारों की बात नहीं करता है, बल्कि मानवीय क्षमता, समानता और समता, संसाधनों तक समान पहुंच की बात करता है।
“मुझे कॉलेज में एडमिशन लेने के लिए पहले ही बहुत संघर्ष करना पड़ा है। ऐसे में ड्रेस कोड मेरे लिए एक और चुनौती है। मेरा मानना है नारीवाद का मतलब सिर्फ़ पुरुषों के जैसा कपड़े पहनना नहीं है बल्कि पुरूषों के बराबर अधिकार, सम्मान और आज़ादी मिलनी चाहिए।”
जब महिलाओं या हाशिये के समुदायों को समान अधिकारों से वंचित किया जाता है, तो असल में वैश्विक आबादी का आधे से अधिक हिस्सा बुनियादी सुविधाओं, अवसरों से वंचित हो जाता है। लेकिन नारीवादी शिक्षा को बढ़वा देने की राह में कई चुनौतियां भी हैं। जैसे, कुछ समुदायों में आज भी लड़कियों को शिक्षा से दूर रखने की मानसिकता है। वहीं नारीवादी शिक्षा को बढ़ावा देने की राह में महिलाओं में आर्थिक समस्या और जेंडर स्टीरियोटाइप प्रमुख चुनौतियां हैं। ऐसे में सामूहिक बदलाव लाकर नारीवादी शिक्षा को समर्थन मिल सकता है। कैंपस में नारीवादी शिक्षा और माहौल को बढ़ावा देना इसकी शुरुआत हो सकती है। वैसे तो नारीवादी आंदोलन की शुरुआत सड़क से शुरू हो कर घर-घर पहुंची। लेकिन इसे जन-जन तक का सफ़र तय करना अभी बाक़ी है। इस राह में कैंपस में नारीवादी शिक्षा और माहौल को बढ़ावा देना एक उम्मीद की तरह काम कर सकता है।