भारतीय समाज में पीरियड्स एक ऐसा विषय है जिसके संबंध में जल्दी कोई खुल कर बात नहीं करना चाहता है। हम सबसे पहले अपने परिवार में ही देखे, जहां पीरियड्स को लेकर मां ही बात करती हैं। इसमें पिता और भाई की कोई भूमिका नहीं होती। जब हम कार्यस्थल पर होते हैं, उस दौरान अगर पीरियड्स हो जाए, तो हम किसी महिला स्टाफ को बताते हैं। पुरुषों से जल्दी सहज नहीं हो पाते। ये कौन सी चीज है जो हमें रोक देती है। क्यों हम अब तक पुरुषों से सहज नहीं हो पाएं हैं या क्यों पुरुष भी इसे समझ नहीं पाए हैं? चुटकुले के नाम पर पीरियड्स पर सेक्सिस्ट बातें आम है। लेकिन इस साधारण जैविक विषय को इतना जटिल क्यों बना दिया गया? जब हम इसके जड़ तक जाते हैं, तो मालूम होता है कि रूढ़िवादी सोच इस रास्ते में सबसे बड़ी रुकावट है। जहां पीरियड्स को लोक-लाज की विषय समझा जाता है और इसे लेकर हमेशा फुसफुसाहट में ही बात होती है।
पीरियड्स को लेकर पुरुषों का संवेदनशील होना जरूरी
संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ) के रिपोर्ट के तहत हम पाते हैं कि भारत में केवल 13 फीसद लड़कियों को ही पीरियड्स होने से पहले इसके बारे में पता होता है। ऐसे में जब बचपन से ही जड़ मजबूत न हो तो महिलाएं कैसे सहज और जागरूक होंगी। किस तरह वो पुरुषों के सामने अपनी बात रख पाएंगी। हालांकि इसमें समाज और नागरिक समाज की अहम भूमिका है। इस विषय पर बीबीसी की पत्रकार सदफ खान बताती हैं, “जब पुरुष पीरियड्स को लेकर संवेदनशील होंगे तो महिलाएं खुद सहज हो जाएंगी। लेकिन हमें समाज की जड़ पकड़नी है और वो है सोशल कंडीशनिंग जो बचपन हमें सिखाए जाते हैं और जिसके ढाँचे बने हुए हैं। चाहे परिवार हो, स्कूल हो या फिर रिश्तेदार। जब पीरियड्स की चर्चा की शुरुआत एकदम निचले स्तर से होगी तो आगे और कोशिशों की ज़रूरत नहीं होगी।”
बीबीसी की पत्रकार सदफ खान बताती हैं, “जब पुरुष पीरियड्स को लेकर संवेदनशील होंगे तो महिलाएं खुद सहज हो जाएंगी। लेकिन हमें समाज की जड़ पकड़नी है और वो है सोशल कंडीशनिंग जो बचपन हमें सिखाए जाते हैं और जिसके ढाँचे बने हुए हैं। चाहे परिवार हो, स्कूल हो या फिर रिश्तेदार।”
पीरियड्स से जुड़ी झिझक और शर्म हो खत्म
पीरियड्स को लेकर झिझक सिर्फ महिलाओं या किशोरियों में नहीं है। यह सभी वर्ग, समुदाय और आयु में देखने को मिलती है। इसलिए जरूरी है कि हम पीरियड्स पर बातचीत शुरू करें ताकि इससे जुड़ी शर्म और झिझक खत्म हो। इस संबंध में वह कहती हैं, “स्कूलों में पुरुषों और महिलाओं सभी को जागरूक करने के लिए इस मुद्दे पर क्लासेज़ होनी चाहिए। सहज रूप से चर्चा हो। अगर ऐसी क्लासेज़ ख़ुद पुरुष अध्यापक लें और उतनी ही संवेदनशीलता से लें जितना संवेदनशील ये मुद्दा महिलाओं के लिए है तो और बेहतर होगा। पुरुष प्रधान समाज में ज़्यादातर ग्रामीण इलाक़ों में पुरुषों के बात का ज्यादा प्रभाव होता है।”
हमारे समाज के अधिकतर घरों में पुरुष ही निर्णायक भूमिका में होते हैं। ऐसे में सबसे पहला काम हम यह कर सकते हैं कि पीरियड्स को लेकर खुद जागरूक हो और पुरुषों को भी जागरूक करें। साथ ही, पुरुष भी इसे स्वीकारने के लिए तैयार रहें।
राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग में काम कर चुकी अपर्णा तिवारी कहती हैं, “परिवारों में पुरुषों यानी भाई, पिता, पति को चाहिए कि वो इस विषय को टैबू ना बनाये बल्कि खुद को जागरूक करे और शिक्षित करें। अपने परिवार की महिलाओं के साथ इस बारे में खुलकर बात करें। यह समझना होगा कि पीरियड्स सिर्फ मूड स्विंगस और चॉकलेट के बारे में नहीं हैं, जोकि युवा लड़कों की प्रमुख धारणा है।”
कैसे पुरुष निभा सकते हैं पीरियड्स में अपनी भूमिका
यूनिसेफ के रिपोर्ट में हम पाते हैं कि भारत में 60 फीसद लड़कियां पीरियड्स शुरू होने के बाद, स्वच्छता उत्पादों की कमी से स्कूल छोड़ देती है। यह बहुत चिंता का विषय है। इस विषय पर राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग में काम कर चुकी अपर्णा तिवारी कहती हैं, “परिवारों में पुरुषों यानी भाई, पिता, पति को चाहिए कि वो इस विषय को टैबू ना बनाये बल्कि खुद को जागरूक करे और शिक्षित करें। अपने परिवार की महिलाओं के साथ इस बारे में खुलकर बात करें। पीरियड्स के दौरान कुछ चीज़ें को ध्यान रखे। जैसे, भावनात्मक समर्थन, घर के काम में महिलाओं का सहयोग देना। यह समझना होगा कि पीरियड्स सिर्फ मूड स्विंगस और चॉकलेट के बारे में नहीं हैं, जोकि युवा लड़कों की प्रमुख धारणा है। इसके अलावा, कार्यस्थल पर पीरियड्स लीव विरोधी होने के बजाय उसका समर्थन करने जैसी महत्वपूर्ण बातों में पुरुष अपना योगदान दे सकते हैं।”
पीरियड्स को सामान्य कैसे बनाए पुरुष
अगर पुरुष साथ दे और वो खुद इस मुद्दा को लेकर संवेदनशील हो, तो यह मुद्दा इतना जटिल नहीं होगा। महिलाएं इतनी असहज नहीं होगी। इस विषय पर कीट स्कूल ऑफ लॉ की छात्रा तनु प्रिया कहती हैं, “महिलाओं के मन मे बहुत संकोच होता है किसी भी पुरुष से पीरियड्स को लेकर बात करने में! पुरुष अगर अपनी सोच बदलें तो महिलाएं जरूरत अनुसार उनसे खुलकर बात कर सकती हैं। मदद मांग सकती हैं। पुरुष को इतना सहज और संवेदनशील तो होना चाहिए।”
भारतीय समाज रूढ़िवाद से ग्रसित है। यहां पर पुरुषों ने हमेशा अपने आप को सर्वोपरि रखा। समाज के हर नियम कानून अपने हिसाब से बनाए। पीरियड्स के दौरान महिलाओं अपवित्र और गंदा महसूस करवाया। आज भी कई घरों में, विशेष कर ग्रामीण इलाकों में पीरियड्स के दैरान महिलाओं को घर से अलग-थलग कर दिया जाता है। इस तरह उन्हें शारीरिक और मानसिक रूप शोषण किया जाता है।
“इसे एक सार्वजनिक स्वास्थ्य मुद्दा बनाने में पुरुषों की बराबर जिम्मेदारी हो जाती है। पुरुष यह जिम्मेदारी पीरियड्स को गंदी और अपवित्र घटना से इतर एक जैविक और प्रजनन के लिए महत्वपूर्ण प्रक्रिया मानकर पूरी कर सकते हैं।”
पुरुष मानें कि पीरियड्स एक जैविक प्रक्रिया है
इस विषय पर दिल्ली विश्वविद्यालय के शोधार्थी जगरनाथ यादव कहते हैं, “भारतीय समाज पितृसतात्मक है। जाहिर है समाज के हर नैतिक मूल्यों और पवित्रता-अपवित्रता की परिभाषा पुरुषों ने अपने ढंग से गढ़ा। उसमें खुद को सर्वोपरि रखा। महिलाओं को उनके पीरियड्स के चलते उन्हें अपवित्र बताया गया। पीरियड्स के दौरान उन्हें मंदिर और सार्वजनिक स्थानों से बाहर रहने को मजबूर किया। बतौर पुरुष हमें सबसे पहले पीरियड्स को लेकर जो एक आम धारणा बना दिया गया है कि यह कोई अपवित्र घटना है, उसे दूर करने की दिशा में सोचना होगा। हमें अपने परिवार और आसपास के समाज में बताना होगा कि यह एक जैविक प्रक्रिया है। साथ ही, इस विषय पर अपने आसपास खुल कर बात कर इसे सुलभ बनाना होगा। इसे एक सार्वजनिक स्वास्थ्य मुद्दा बनाने में पुरुषों की बराबर जिम्मेदारी हो जाती है। पुरुष यह जिम्मेदारी पीरियड्स को गंदी व अपवित्र घटना से इतर एक जैविक और प्रजनन के लिए महत्वपूर्ण प्रक्रिया मानकर पूरी कर सकते हैं।”
पीरियड्स से जुड़ी मिथकों को दूर कर सकते हैं पुरुष
पीरियड्स में स्वच्छता के लेकर आज भी हजारों लोग जागरूक नहीं है। आज भी ग्रामीण इलाकों में या शहर में भी आर्थिक रूप से गरीब महिलाएं पीरियड्स के दौरान कपड़ा का उपयोग करती है। भारत में ‘शुचि योजना’ जैसी योजनाओं का पहल किया है, जहां किशोरियों को सैनिटेरी नैप्किन मुहैया कराने और जागरूकता पर जोर दिया जाता है। लेकिन क्या योजना शुरू कर देने भर से जमीनी हकीकत सुधर रही है? पीरियड्स को लेकर बातचीत में पुरुष आज भी गायब नजर आते हैं।
इस विषय पर जूनियर रिसर्च फेलो आयुष कहते हैं, “पुरुषों को पीरियड्स को एक स्वास्थ्य आवश्यकता के तौर पर देखना चाहिए। वे स्वयं भी इसे लेकर जागरूक हों। स्त्री-पुरुष मिलकर ऐसे समूहों का निर्माण करें जिनमें पीरियड्स से जुड़े मुद्दों पर खुलकर चर्चा की जाए। साथ ही वे इस विषय के प्रति संवेदनशील हो सकें। पीरियड्स से जुड़े तमाम मिथकों को तोड़ने में पुरुष अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।”
“पुरुषों की सबसे बड़ी भूमिका यह हो सकती है कि वे महिलाओं के साथ संवेदनशील व्यवहार करें। उन्हें समर्थन दें। यह सुनिश्चित करें कि महिलाएं अपने पीरियड्स के समय में अधिक सकारात्मक और सुरक्षित महसूस करें।”
सुरक्षित और सहज पीरियड्स में योगदान दें पुरुष
वहीं जामिया मिलिया कॉलेज में पत्रकारिता के छात्र परवेज़ आलम कहते हैं, “पुरुषों की सबसे बड़ी भूमिका यह हो सकती है कि वे महिलाओं के साथ संवेदनशील व्यवहार करें। उन्हें समर्थन दें। यह सुनिश्चित करें कि महिलाएं अपने पीरियड्स के समय में अधिक सकारात्मक और सुरक्षित महसूस करें।” जब हम पैड्स लेने के लिए दुकानदार के पास जाते हैं, तो वह पैड्स को कागज़ या प्लास्टिक में लपेट कर देते हैं। पीरियड्स से जुड़े इसी शर्म को दूर करने की जरूरत है। इसपर जामिया मिलिया के हिंदी साहित्य के छात्र वंशज कहते हैं, “सबसे पहले तो पुरुषों को इसके बारे में अपनी भ्रांतियां मिटानी होगी। दूसरा ये कि इस विषय पर खुलकर बात करनी होगी। युवा विभिन्न प्रकार के जागरूकता अभियानों में हिस्सा बन सकते हैं।” पीरियड्स के लिए अनेकों प्रयासों के बावजूद पूर्वाग्रह, वर्जनायें और मिथक आज भी जारी हैं। ये महिलाओं की शारीरिक और मानसिक या भावनात्मक स्थिति को प्रभावित करती है। इसलिए, जरूरी है कि परिवार पीरियड्स को लेकर सिर्फ लड़कियों को नहीं लड़कों को जागरूक और शिक्षित करें।