“जब मैं कॉलेज की प्रवेश प्रक्रिया पूरी करने के लिए एक टीचर के पास गई, तब उन्होंने मुझसे पूछा कि तुम लड़का हो कि लड़की? मेरे जवाब देने के बाद वो ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगी। मेरी लैंगिक पहचान का वो मजाक उड़ा रही थी। उस समय मैं अंदर से बिल्कुल टूट गई थी। जिस जगह शिक्षा को लेकर मैं समाज का अपने प्रति प्रति पूर्वाग्रह दूर करना चाहती थी, वहां मेरी लैंगिक पहचान का मज़ाक उड़ाया जाना मेरे लिए बहुत ही असहज करने वाला अनुभव था। यह अनुभव एक ट्रांस महिला का है जिन्होंने अपने कॉलेज में अपनी लैंगिक पहचान की वजह से अनेक परेशानियों और अपमान का सामना किया है।
ट्रांस समुदाय एक ऐसा वर्ग है जो आजादी के 75 साल पूरा होने के बाद अपने मौलिक अधिकारों से वंचित है। ट्रांस समुदाय मानव जाति का ही अभिन्न अंग है। लेकिन हमारे समाज और देश में ट्रांस समुदाय के लोगों को हीन भावना से देखा जाता है। सबसे पहले तो ट्रांस व्यक्तियों को उनके परिवार और परिचितों द्वारा ही अपमान का सामना करना पड़ता है। उनकी लैंगिक पहचान की वजह से उन्हें घर-परिवार तक त्याग करना पड़ता है। देश के प्रत्येक नागरिक की तरह शिक्षा, ट्रांस व्यक्तियों का मौलिक अधिकार है लेकिन इससे आज भी कई लोग दूर हैं। हिंसा, उत्पीड़न और अनुचित व्यवहार का सामना उन्हें हर दिन करना पड़ता है। उन्हें सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन से बाहर रखा जाता है। ऐसे में शिक्षा वह शस्त्र है जिससे ट्रांस समुदाय के लोग अपना जीवन बदल सकते हैं।
बहुत आवश्यक है कि एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के लोगों के लिए शिक्षा पाने के लिए शैक्षिक संस्थान समावेशी हो। दरअसल शैक्षिक संस्थान वो जगह है जहां ट्रांसजेंडर समुदाय के खिलाफ़ मौजूद पूर्वाग्रहों को खत्म किया जा सकता है। लेकिन यूनस्को की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत में प्राइमरी स्तर पर ही एलजीबीटी बच्चों को बुली यानि परेशान किया जाता है। यह परेशानी केवल भद्दे मजाक तक नहीं, बल्कि यौन हिंसा तक होती है। यौनिक और लैंगिक पहचान की वजह से उनके साथ अपमानजनक व्यवहार किया जाता है जिसके कारण बच्चे बीच में ही स्कूल ड्राप आउट करते हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी खबर के अनुसार 60 फीसद विद्यार्थी मिड या हाई स्कूल में बुलिंग का सामना करते हैं। 43 फीसद प्राइमरी स्कूल में यौन हिंसा का सामना करते है। 70 फीसद विद्यार्थी इस वजह से डिप्रेशन, एंग्जायटी और पढ़ाई में ध्यान की कमी जैसी परेशानियों का सामना करते हैं। इतना ही नहीं 30 फीसद विद्यार्थियों ने स्कूल से ड्रापआउट किया।
स्कूल हो या कॉलेज हर क्वीयर विद्यार्थियों को अपमान, तिस्कार और हिंसा का सामना करना पड़ता है। विद्यार्थियों को अपमानजनक नामों से पुकारकर हर दिन उनका मानसिक शोषण किया जाता है। एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के लोगों के प्रति ऐसा व्यवहार उन्हें सार्वजनिक तौर पर शिक्षा लेने से और स्वास्थ्य सेवा लेने के बीच बाधा बनता है, जिसके परिणाम स्वरूप समुदाय के लोग कौशल प्रशिक्षण से दूर रह जाते हैं। पैसे के लिए सेक्स वर्क, भीख मांगने जैसे कामों की ओर मुड़ जाते है। ऐसे में बहुत आवश्यक है कि हमारे शिक्षण संस्थान एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के लिए एक समावेशी माहौल बनाए जिससे वह जीवन में एक आम नागरिक की तरह ही रह सकें और आगे बढ़ सकें। यह लेख उस विद्यार्थी के अनुभव पर हैं जो एक ट्रांस-महिला है और किस तरह स्कूल के बाद कॉलेज में उसे अपनी लैंगिक पहचान की वजह से हर स्तर पर बुरे अनुभवों का सामना करना पड़ा। निजता का ध्यान रखते हुए यहां उनका नाम उजागर नहीं किया गया है।
कॉलेज में प्रवेश के दौरान छिपानी पड़ी अपनी पहचान
“विज्ञान स्ट्रीम से अपनी बाहरवीं की परीक्षा अच्छे गुणों से उत्तीर्ण करने के बाद मेरी आगे पढ़ने की इच्छा थी। सामाजिक भेदभावों से बचने के लिए अपनी लैंगिक पहचान को छिपाकर रखा था। खुद में महिला महसूस होने के कारण मुझे लंबे बाल रखना पसंद है। मेरे परिवार को भी हालांकि यह सब पसंद नहीं था क्योंकि उन्होंने एक महिला के तौर पर मुझे कभी स्वीकार नहीं किया। कॉलेज में प्रवेश परीक्षा से पहले ही उन्होंने मुझे बाल छोटे करने के लिए कहा। लेकिन मैंने बाद में काटने के आश्वासन देकर बात टाल दी। घर वालों की बात मानकर बालों को छिपाने के लिए मैं प्रवेश परीक्षा के लिए सिर पर टोपी पहनकर गई।
मेरे पिता जब प्रवेश के लिए मुझे कॉलेज लेकर गये तब सब छात्रों को देखकर मुझे खुद में कमी महसूस होने लगी। ऐसा लगने लगा कि मैं अपनी लैंगिक पहचान के वजह से इन-सब लोगों में घुलमिल नहीं पाऊंगी। शायद वो मुझे समझेंगे नहीं और मुझे अपने से दूर रखेंगे। जब मैं प्रवेश प्रक्रिया के लिए एक टीचर से मिली, तब उन्होंने मुझसे सवाल पूछना शुरू किया जैसे कि तुम्हें क्या पसंद हैं? तुम किताबें पढ़ते हो क्या? वो मुझे एक लड़का ही समझ रही थी और अचानक से उन्होंने मुझे अपने सर की टोपी निकालने को कहा। उनकी उस आवाज़ के लहजे से मैं डर गई। मैंने अपनी टोपी निकाली। मेरे कानों तक बड़े हुए बाल देखकर उन्होंने कहा कि ये सब यहां नहीं चलेगा। तुम्हें अपने बाल छोटे करने होंगे। एक चेतावनी जैसी आवाज़ में उन्होंने पूछा कि बाल छोटे करोगे ना? मैं डर गई थी और मुझे इस कॉलेज में प्रवेश लेना था इसीलिए मैंने डर की वजह से हाँ कहा।
मुझे वो सब चीजें अच्छी नहीं लगी। मैंने विचार कर अपनी माँ से कहा कि मुझे इस कॉलेज में प्रवेश नहीं लेना है। वे बहुत पुराने विचारधारा के लोग हैं। माँ ने कहा तुम प्रवेश लो, आगे पढ़ो और बालों के बारे में कुछ न बोलने के लिए कहा। अगले दिन हम कॉलेज गए। उस टीचर ने मुझे प्रवेश प्रक्रिया के लिए किसी और टीचर के पास मेरे ज़रूरी पेपर लेकर भेजा। जब मैं वहाँ गई उस दूसरे टीचर ने मुझसे काफ़ी हास्यास्पद भाव से देखा और पूछा कि तुम लड़का हो कि लड़की? मैंने अपनी लैंगिक पहचान साझा नहीं की और उन्हें वही जवाब दिया जो वह सुनना चाहते थे कि मैं एक लड़का हूँ। जवाब सुनकर वह मुझपर जोर-जोर से हंसने लगी और कहने लगी कि मुझे तो लगा तुम लड़की हो। मुझे उस समय इतना बुरा लगा कि मैं उसे शब्दों में बयान नहीं कर सकती। खुद के अस्तित्व पर मुझे शर्म आ रही थी। मुझे महसूस होने लगा कि मैं इन सब लोगों से काफ़ी निचले स्तर पर हूँ। मुझे लगा ये कॉलेज आगे मेरे लिए अच्छा साबित नहीं होगा।
मेरे लैंगिक पहचान को एक रोग घोषित किया गया
कॉलेज में प्रवेश के बाद जब मैं अपनी क्लास में गई तब सब छात्र मुझे एक अलग नज़र से देख रहे थे। मुझसे बात करने में उन्हें झिझक सी महसूस हो रही थी। लेकिन कुछ दिन मिलने-जुलने के बाद कुछ मेरे अच्छे दोस्त बने। उन्होंने मुझे समझने का प्रयास किया और मुझसे एक महिला के समान ही बर्ताव किया। वो मुझे महिला भांति ही संबोधित करते थे, मुझसे जो वरिष्ठ छात्र थे वो काफ़ी समझदार थे। उन्होंने मुझे उनके छोटी बहन जैसा संभाला। उन्होंने मुझे कभी महसूस नहीं होने दिया कि मैं उनसे अलग हूँ। अब मेरे कॉलेज में पता चल चुका था कि मैं लड़का नहीं बल्कि लड़की हूँ। मेरे टीचर्स तक को पता चल चुका था कि मैं एक ट्रांस महिला हूँ। मैं इससे खुश भी थी कि अब मुझे कॉलेज में झूठी और घुटन भरी ज़िंदगी नहीं जीनी पड़ेगी।
एक दिन विज्युअल कल्चर विषय पर एक कक्षा चल रही थी। एक पीएचडी करे हुए टीचर हमें पढ़ा रहे थे। विषय चल रहा था कि विज़ुअल कल्चर की वजह से कैसे सोशल मीडिया पर बुली और शोषण बढ़ रहा हैं। बातों-बातों में उन्होंने कहा कि डिस्फोरिया नामक एक मानसिक रोग अभी बढ़ रहा है जिसमे एक व्यक्ति अपने जन्म के समय प्राप्त लिंग से संतुष्ट नहीं होता है। वो अपनेआप को जन्म से प्राप्त लिंग से अलग समझता हैं जो कि एक मानसिक रोग हैं। यह सुनके काफ़ी छात्र हंसने लगे और कुछ छात्र मेरी तरफ़ देखने लगे। मुझे उस समय इतना अपमानजनक महसूस हुआ कि उस हंसी कि आवाज से मैं पूरी तरह अंदर से टूट गई थी। 18 साल की उम्र में ही मुझे काफ़ी कुछ सहना पड़ रहा था और आगे चलकर क्या होगा इस सोच से मैं बहुत डरने लगी थी। यह बात घर पर भी नहीं बता सकती थी क्योंकि वे तो मुझे स्वीकार नहीं करते हैं और मेरी पहचान को कॉलेज में छुपा रखने की उन्होंने मुझे सख्त हिदायत दी थी। मुझे ऐसा लगने लगा था कि हर वक्त लोग मुझे घूर रहे हैं और मेरे बारे में बात कर रहे हैं।
कैंपस में ग़लत विशेषण और असमान शर्ते
मेरी लैंगिक पहचान को अब साझा करने के बाद भी मुझे कई शिक्षक एक लड़के के विशेषणों से पुकारते थे। मैं लड़की जैसे दिखती तो थी लेकिन इनके ग़लत विशेषण से बुलाने के वजह से मेरा जेंडर डिस्फोरिया बढ़ रहा था। मुझे लग रहा था मैं लड़का तो नहीं दिख रही? वो मुझे जान-बूझकर सबके सामने लड़के जैसा संबोधित क्यों करते थे और सब लोग मेरी ओर देखते थे ये देखने के लिए कि मैं क्या प्रतिक्रिया देती हूँ। इस तरह के उतार-चढ़ाव के बीच पहला साल कॉलेज का बीत गया। जब मुझसे यह सहन नहीं हुआ मैंने अपने हेड टीचर को इस विषय के बारे में बताया। उन्होंने कहा मैं उन टीचर से बात करूँगी। अगले दिन उस टीचर ने मुझे रोका और बताने लगे, “देखो तुम्हारे कागजों पर तुम्हारा जेन्डर के तौर पर पहचान पुरुष की है। हम तुम्हें लड़की संबोधित नहीं करेंगे। ऊपर से तुम लड़की हो ये तुम अपने दोस्तों को बता सकते हो लेकिन हम शैक्षणिक संस्थाओं को नहीं। प्रोफेशनल जीवन में ये सब नहीं होता। क्या तुम अपने माँ और बाप को मना सकते हो कि वो तुम्हें लड़की समझे? नहीं ना? फिर हम तो इतने प्रोफेशनल लोग हैं हमें कैसे बोल सकते हो? और हम भी कम्फर्टेबल नहीं हैं तुम्हें लड़की समझने में। मेडिकली खुद को प्रूव करो और वो कागज हमें सब्मिट करो तब हम तुम्हें लड़की जैसे संबोधित करेंगे।”
ठीक इसी तरह एक बार वर्धा के गांधी आश्रम में एक कार्यशाला थी। कॉलेज से सिर्फ़ दो लोग ही जा सकते थे। मेरी एक वरिष्ठ दोस्त जाने वाली थी। मुझे भी जाना था इसीलिए मैंने जाने के लिए इच्छुकों में अपना नाम दर्ज किया। एक टीचर ने मेरी वरिष्ठ को कहा कि लिंग के जगह पर उसकी पहचान क्या डालेंगे? इसलिए उसे भेजा नहीं जा सकता। कॉलेज से अलग कई जगह प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेकर मुझे कई पुरस्कार मिले हैं। लेकिन कॉलेज की तरफ़ से मुझे वो प्रोत्साहन कभी नहीं मिला। अन्य विद्यार्थियों की साधारण उपलब्धि पर भी उन्हें बहुत सम्मानित किया गया है। लेकिन मुझे शब्दों से भी सराहना नहीं मिली है।
कैंपस में हम एक बार छात्रों से भेदभाव की हम उम्मीद रख सकते हैं। लेकिन जब इतने पढ़े लिखे टीचर, उच्च शिक्षा और पदों पर बैठे लोग लैंगिक भेदभाव करते हैं तब स्थिति बहुत मुश्किल हो जाती है। मेरे स्नातक के पढ़ाई के तीन वर्ष काफ़ी मुश्किल से बीते हैं। तमाम तरह के भेदभाव से मैं मानसिक रूप से शोषित हुई थी। आज क्या नया सुनने को मिलेगा इसके डर में रहती थी। ये मुश्किलें ज़्यादा तौर पर टीचर्स से ही हुई। मैं इतनी मज़बूत थी कि मैंने बीच में पढ़ाई छोड़ने का फैसला नहीं लिया। भेदभाव और अपमान का सामना करते हुए अपनी पढ़ाई पूरी की। लेकिन मुझ जैसे कई ट्रांस लोग हैं जो इस तरह के व्यवहार की वजह से अपनी शिक्षा को पूरा नहीं कर पाते हैं जिस वजह से उनके पास जीवन में आगे बढ़ने के लिए वे मजबूरन अन्य कामों की ओर बढ़ते हैं।
जीवन में सफलता प्राप्त करने और कुछ अलग करने के लिए शिक्षा सभी के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण साधन है। यह हमें जीवन के कठिन समय में चुनौतियों से सामना करने में सहायता प्रदान करती है। शिक्षा से प्राप्त किया गया ज्ञान व्यक्ति को अपने जीवन में आत्मनिर्भर बनने में मदद करता है। यह जीवन में बेहतर संभावनाओं को प्राप्त करने के अवसरों के लिए विभिन्न दरवाजे खोलती है। लेकिन ट्रांस समुदाय के लोगों के लिए शिक्षा के मौलिक अधिकार तक पहुंच बहुत मुश्किलों से भरी है। नौकरी, आत्मनिर्भरता के साथ-साथ शिक्षा सामाजिक और पारिवारिक सम्मान तक पहुंच बनाने में मदद करती है। इसलिए यह बहुत आवश्यक है कि ट्रांस व्यक्ति शिक्षा वंचित ना रहे और उनके ख़िलाफ़ समाज में जो पूर्वाग्रह है वे खत्म किए जाए। शिक्षण संस्थान ही वह पहली जगह है जिससे हम ट्रांस समुदाय के लोगों के लिए समावेशी समाज बना सकते है इसलिए बहुत ज़रूरी है कि वहां मौजूद हर स्तर के कर्मचारी को भी बहुत संवेदनशील और समावेशी सोच वाला होना चाहिए जिससे एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के लोगों के लिए समानता वाला माहौल बनाया जा सकें।