पर्दा उठता है, एक महिला दौड़ रही है। वो माँ है और इसी माँ के जीवन की आपाधापी को फिल्म “फायर इन द माउंटेन्स” कुमाऊं क्षेत्र की रहने वाली चंद्रा की कहानी को पर्दे पर उतारा गया है। अधिकांश महिलाओं की तरह उसका जीवन भी अनेक संघर्षों से भरा बिछौना है। जिस पर न चाहते हुए भी उससे सोना पड़ता है। क्योंकि दूसरा कोई विकल्प ही नहीं है। पहाड़ों में घर है जब यह बात कही जाती है तो मैदानी इलाकों के रहवासियों के मन-मस्तिष्क में एक सुहानी छवि उभर के आती है। लेकिन पहाड़ का जीवन बहुत संघर्षों से भरा है। वहां पर रहने वाले लोगों को हर छोटी चीज़ के लिए एक लंबी दूरी तय करनी पड़ती हैं।
फिल्म “फायर इन माउंटेन्स” में आम पहाड़ियों के जीवन-संघर्ष पर बात कही गई है। घर तक जाने के लिए सड़क नहीं है। महिलाओं सिर पर पानी ढ़ोती नज़र आती है। सड़क जैसी समस्या के साथ-साथ यह फिल्म कई पहलुओं पर बात करती नज़र आती है। अजीतपाल सिंह द्वारा निर्देशित इस फिल्म में पहाड़ी जीवन, पितृसत्तात्मक भारतीय समाज, नौकरशाही, भष्ट्राचार और अंधविश्वास की तीखी आलोचना की गई है। राजनीति से मानवता तक प्रेरित किरदारों से भरी यह कहानी अपने-आप में एक संदेश है। कहानी का मुख्य किरदार चंद्रा है जो दिनभर कामों में लगी रहती हैं। वह कभी खाली नहीं रहती है। कभी घर का काम, कुएं से पानी लाना, पहाड़ पर आए पर्यटकों का सूटकेस ले जाना या फिर कभी अपने किशोर बेटे को ले जाती दिखती है जो व्हील चेयर इस्तेमाल करता है। चंद्रा को अपने बेटे को अस्पताल ले जाने, स्कूल ले जाने के लिए काफ़ी मशक्कत का सामना करना पड़ता है।
उसके घर पर एक उसकी बेटी है, एक नाराज़ विधवा ननद है और एक पति जो अधिकतर शराब के नशे में रहता है। उससे हमेशा हर काम समय पर पूरा करने की उम्मीद की जाती है। हर व्यक्ति को अपना काम पहले होने की आशा रहती है। घर में सब कामों के प्रबंधन का जोर उसी पर रहता है। वह अपने लड़के की पढ़ाई-लिखाई, दवा और अपनी रोजी-रोटी चलती इसके लिए लगी रहती है। वह बेटे के उपचार के लिए पैसै बचाती है, उसका पति भी उससे अपने काम में हताश होने के बाद धार्मिक अनुष्ठान के लिए पैसों की उम्मीद लगाए बैठा है। इन्हीं सब के बीच चंद्रा अपने गाँव के भ्रष्टाचारी नेता से लंबे समय से सड़क बनाने से जुड़ी याचिका भी दायर की गई है। कहानी का पूरा सार इसी कथावस्तु पर टिका हुआ है। कथानक कसा हुआ है और शुरू से लेकर अंत तक फ़िल्म दर्शकों को बांधकर रखती है।
प्राथमिकता क्या है सड़क या मंदिर?
आज हुक्मरानों की पहली प्राथमिकता क्या है? मंदिर बनवाना? भारत ने आज़ाद मुल्क के रूप में 75 वर्षों की यात्रा पूरी कर ली है। लेकिन, आज भी चंद्रा जैसी महिलाओं के जीवन में कोई खास परिवर्तन नहीं आया है। अगर पहाड़ में कोई बीमार पड़ जाता है तो अस्पताल तक पहुँचने में ही दम तोड़ देता है। सरकार ने भले ही पहाड़ के हर घर तक नल से जल की बात कही है लेकिन वास्तविकता इसके उलट है। आज भी अधिकांश घरों में पानी दूर से ढोकर लाना पड़ता है। चंद्रा जैसी औरतें या फिर कंचन जैसी लड़कियों की यह जिम्मेदारी होती है। स्कूल जाने की उम्र में पानी सिर पर लादना और शिक्षा से दूर होना इसका महिला सशक्तिकरण पर क्या असर पडे़गा यह फिल्म में दिखाया गया है।
विज्ञान बनाम पोंगापंथ के बारे में संदेश
चंदा का पति अपने जीवन की नाकामयाबियों को दोष देता नज़र आता है। वह शराब पीने लगा है वह मेहनत करने के बजाय दैवीय शक्ति के सहारे होने वाले चमत्कार के ज़रिये जीवन को बदलने के बारे में सोचता है। वह अपनी किस्मत बदले के लिए घर में धार्मिक अनुष्ठान करवाना चाहता है उसका मानना है कि इसके बाद उनकी जीवन की सारी परेशानियां दूर हो जाएंगी लेकिन इसके लिए एक मोटी रकम की आवश्यकता पड़ती है जो उसके पास नहीं है। इस काम को पूरा करने की उम्मीद भी वह चंदा से रखता है लेकिन उसकी ना उसके लिए बड़ी बाधा है। वह मानता है कि उसका मना करना देवी के काम में बाधा डालना है। फिल्म में अंधविश्वास के ऊपर बात की गई है और बताया गया है कि बीमारी के पीछे देवी-देवताओं के नाराज़ होने को जिम्मेदार ठहराना खुद को अंधेरे में धकेलने जैसा है।
घरेलू हिंसा और ‘माता’ का आना
प्रधान सड़क नहीं बनवाना चाहता है। क्यों? जनसेवा का बिल्ला लटका कर घूम रहे महामहिमों का असली मकसद अपना उल्लू सीधा करना है। जनता को बदले में क्या मिलता है? शोषण। शारीरिक और मानसिक। जिसका सामना चंद्रा करती है। घर में उनके साथ की जाने वाली हिंसा को घर की चार दीवारी के भीतर ही रखने की कोशिश की जाती है। घुट-घुटकर जीना पड़ता है। परिणामस्वरूप हिंसा का मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है। तभी समाज और धर्म के कुछ ठेकेदार उसे दैवीय प्रकोप की संज्ञा दे देते हैं। घरेलू हिंसा से ग्रस्त लोगों को दैवीय प्रकोप का परिणाम बताना असल में हिंसा को छुपाने की पुरानी तरकीब है।
पटकथा में किरदारों की संख्या संतुलित है। न कम न ज्यादा। समस्याओं को गहराई से दिखाने के लिए कई किरदारों का सहारा लिया है। चंद्रा की लड़की के साथ घरेलू हिंसा की नींव पड़ गई है। कुछ वक्त बाद जब वो किसी मानसिक तनाव से गुजरेगी तब ठेकेदार उसे दैवीय प्रकोप की संज्ञा दे देंगे। फ़िल्म में, छोटे-छोटे व चुस्त संवादों का इस्तेमाल किया है। भाषा में प्रवाह है। बीच-बीच में पहाड़ी भाषा का तड़का दर्शक को रोमांचित करता है। ऐसे ही, फ़िल्म में शूल और फूल दोनों को जगह दी गई है। जैसे प्रेमचंद अपने उपन्यासों में देते हैं। यानी किरदारों की जीवन में सुख भी है और दुख भी है।
कैमरे से उम्दा काम किया है। पहाड़ी परिवेश को बड़े ही बारीकी के साथ उतारा है। फ़िल्म के सारे किरादरों का अभिनय आँखों से संवाद करता है। किसी को माता क्यों आती है? किसी शख्स के बीमार होने की वजह देवी-देवताओं का नाराज होना है? घरेलू हिंसा सामान केवल महिला ही करती है? चंद्रा के साथ क्या हुआ? इन सबके सवालों के जवाब दिए गए है। निर्देशक ने जटिल मुद्दों पर चर्चा की है। कहानी बांधे रखती है। यह फिल्म कई अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त कर चुकी हैं।