इंटरसेक्शनलजेंडर स्त्री की यौनिकता पर शिकंजा कसती पितृसत्ता

स्त्री की यौनिकता पर शिकंजा कसती पितृसत्ता

महिलाओं द्वारा यौन इच्छाओं पर बेबाकी से बात करना, पितृसत्ता समाज को जरा भी पसंद नहीं रहा। भारतीय संस्कृति और संस्कारों की दुहाई देने वाले लोग अक्सर मुखर महिलाओं के प्रति हिंसक हो जाते हैं। अपनी यौन इच्छाओं और संबंधों को स्वीकारने वाली औरतों को नफरत की नजर से देखते हैं और उन्हें अपशब्द कहकर अपमानित करते हैं।

जैसे-जैसे मानव विकास प्रक्रिया में आगे बढ़ा, वैसे-वैसे धर्म और पितृसत्ता ने घुसपैठ शुरू कर दी। यह बताना लगभग असंभव सा है कि धर्म और पितृसत्ता ने समाज में कब अपनी जड़ें मजबूत कर ली लेकिन धर्म और पितृसत्ता के जोड़ का सबसे ज्यादा बुरा प्रभाव महिलाओं पर पड़ा। इसका गठबंधन इतना मजबूत है कि पितृसत्ता पर बात करते-करते धर्म पर बात करना भी ज़रूरी है। पितृसत्ता यानी पुरुषसत्ता घुसपैठिया से स्वामी कैसे बन गई, इस पर सभी के अलग-अलग विचार हैं। एंगेल्स पितृसत्ता के घुसपैठ का कारण निजी संपत्ति मानते हैं। 

प्राचीन काल में पितृसत्ता नहीं बल्कि ‘मातृवंशीय प्रणाली’ थी, हालांकि कुछ लोग इसे ‘मातृसत्ता’ कहते हैं जो पूरी तरह से सही नहीं है। मातृवंशीय व्यवस्था के बारे में बताते हुए लेखिका सुजाता अपनी पुस्तक ‘आलोचना का स्त्री पक्षः पद्धति, परंपरा और पाठ’ में लिखती है कि एंगेल्स निजी संपत्ति को एकल विवाह और पितृसत्ता के आरंभ का बिंदु और मातृप्रणाली (मातृसत्ता नहीं, वह उस अर्थ में सत्ता कभी रही नहीं जिस अर्थ में पुरुष सत्ता है, वह मातृवंशीय व्यवस्था है।) पितृसत्ता का समाज पर अधिकार होने के बाद संपत्ति, संसाधनों पर पुरुष का कब्जा हो गया। महिलाओं को चारहदीवारी के अंदर कैद कर लिया, काम के बंटवारे में घर के अंदर के काम औरतों के जिम्में आए और बाहर के पुरुषों के जिम्में। औरतें पूरी तरह से पुरुषों पर आश्रित हो गई, उनको अपने फ़ैसले खुद लेने का अधिकर नहीं था, उसके बाहर आने-जाने पर रोक लगा दी गई, साथ ही उसकी कामुकता और यौन इच्छाओं पर भी कब्ज़ा कर लिया गया। 

आज का आधुनिक समाज भी पितृसत्ता के मजबूत शिकंजे में कैद है बस उसका रूप बदल गया है। बेशक जागरूक महिलाएं और पुरुष पितृसत्ता के दोयम दर्जे के नियमों के विरोध में बोलने लगे हैं, परंतु पितृसत्तात्मक समाज को यह नागवार है। स्त्रियों के अधिकारों की बातें होने लगी हैं, महिला सशक्तिकरण और महिला मुद्दों पर चर्चा होने लगी है, परंतु महिला यौन इच्छाओं पर बहुत ही कम बात होती है। कुछ लोगों का मानना है कि महिला कामुकता बेकार का विषय है, महिला सशक्तिकरण के लिए अन्य मुद्दों पर बात होनी चाहिए, जो कि मेरे विचार में सही नहीं। स्त्री स्वतंत्रता बिना यौन स्वतंत्रता के पूरी नहीं है (जो कि वैज्ञानिक है) इस लेख में हम महिलाओं की दमित यौन इच्छाओं पर बात करेंगे जिसे टैबू माना जाता है और अनुचित विषय समझ छोड़ दिया जाता है। महिला कामुकता को भारतीय संस्कृति में किस तरह से देखा जाता था और वर्तमान में क्या स्थिति है।

महिलाओं को चारहदीवारी के अंदर कैद कर लिया, काम के बंटवारे में घर के अंदर के काम औरतों के जिम्में आए और बाहर के पुरुषों के जिम्में। औरतें पूरी तरह से पुरुषों पर आश्रित हो गई, उनको अपने फ़ैसले खुद लेने का अधिकर नहीं था, उसके बाहर आने-जाने पर रोक लगा दी गई, साथ ही उसकी कामुकता और यौन इच्छाओं पर भी कब्ज़ा कर लिया गया। 

हजारों वर्षों पहले महिलाएं यौन संबंधों के लिए भी स्वतंत्र थीं। ‘आलोचना का स्त्री पक्ष’ किताब में लेखिका सुजाता लिखती है, “बच्चों को उनकी मां और उनके झुंड के नाम से पहचानने का रिवाज था, जैसे कौतेय और राधेय। महाभारत के कई प्रसंगों में जाती हुई मातृवंशीय प्रणाली और स्थापित होती हुई। पितृसत्ता, उत्तराधिकारी के नियमों के तय होने के तमाम संघर्ष दिखाई देते हैं।” लेकिन आज मातृवंशीय प्रणाली देखने को नहीं मिलती है। संतान की पहचान उसके पिता के नाम से की जाती है। दूसरा यौन स्वतंत्रता पर लोगों की मानसिकता बहुत तंग है, तथा भारतीय संस्कृति का हवाला देते हुए इस विषय को टैबू बना दिया जाता है। 

लेकिन जो लोग भारतीय संस्कृति की दुहाई देते नहीं थकते वे वास्तव में भारतीय संस्कृति को जानते भी नही। क्योंकि यहीं वह देश है जहां कामसूत्र लिखा गया है। कौटिल्य की पुस्तक अर्थशास्त्र में काम पर लेख, लगभग दो सौ साल पुराने है। महर्षि वात्सायायन द्वारा लिखी पुस्तक कामसूत्र (लगभग 3-4 ई.पू.) है, वाममार्गी संप्रदाय (योनि पूजा, और योनि भोगने वाले), बंगाल का तारापीठ मंदिर, असम का कामाख्या मंदिर, कोणार्क मंदिर और खजुराहो के मंदिर बहुत बड़ा उदाहरण है कि प्राचीन काल में सेक्स के प्रति लोगों का नज़रिया तंग नहीं था।

उस समय महिलाओं की यौन स्वतंत्रता को तब का समाज किस नजरिए से देखता था? वेदों और पौराणिक कथाओं से जान पड़ता है कि तब स्त्रियां स्वतंत्र थी और एक से अधिक या पति के अलावा पुरुषों से शारीरिक संबंध बनाना सामान्य था। उदाहरण के लिए, गीतेश शर्मा अपनी पुस्तक भारतीय संस्कृति और सेक्स में एक प्रसंग बताते है, “सत्यबाला का पुत्र जाबाली गौतम ऋषि के आश्रम में अध्ययन हेतु जाता है तो पिता के स्थान पर अपनी माता का नाम लिखता है। गौतम ऋषि के पूछने पर कि पिता का नाम क्या है तो जाबाली कहता है, मुझे नहीं मालूम, मां से पूछ कर आता हूं। मां से जब उसने पूछा तो माँ ने जवाब दिया, जाकर ऋषि को बता दो मैं कई लोगों की अंकशायिनी हूं मुझे नहीं पता कि किससे तुम्हारी उत्पत्ति हुई है।” जाबाली ने जब ये बात लौटकर ऋषि गौतम को बताई तो उनका जवाब था कि तुम्हारे सच बोलने से मैं प्रसन्न हूं और तुम आश्रम में भर्ती हो सकते हो।”

नारीवादी निगाह से किताब में लेखिका निवेदिता मेनन लिखती है कि कैसे अपनी आत्मकथा में यौन संबंध स्वीकारने वाली लेखिकाओं को हिंदी के प्रमुख लेखक नारायण राय ने एक पत्रिका को दिए अपने इंटरव्यू में कहा था कि हिंदी की लेखिकाओं द्वारा हाल में लिखी गई बेबाक आत्मकथाएं बेवफाई का महिमामंडन करती है।

इसी तरह कहीं-कहीं पर तो जान पड़ता है मानों कुछ लेखकों को महिला संबंधी विज्ञान का ज्ञान था जैसे कौटिल्य, अर्थशास्त्र में लिखते हैं कि “कामेच्छा एक प्राकृतिक स्वभाव है। स्त्री-पुरुष दोनों इसके प्रभाव में हैं। साथ ही वह कहते हैं इस दौरान स्त्री को आंनद वंचित रखना अनुचित है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिससे पता चलता है कि प्राचीन काल के समाज का नज़रिया आज के समाज की तरह तंग होने के बजाय बिल्कुल उलट और बहुत खुला था। 

हंगामा क्यों है बरपा

महिला अधिकारों एवं लैंगिक समानता के लिए आंदोलन शुरू हुए जिनमें नारीवादियों की भूमिका महत्वपूर्ण है। हालांकि नारीवादियों पर आरोप लगते रहे है कि वे असली मुद्दों से भटक कर महिला यौन इच्छा जैसे बेकार मुद्दों पर बोलती हैं। उन्हें पहले समय की नारीवादियों की तरह सिर्फ अन्य मुद्दों पर ही बोलना चाहिए इसका उत्तर यह है कि पहले की नारीवादियों ने आंदोलन के लिए एक जमीन तैयार की है आगे की पीढ़ी के लिए जिसमें सभी मुद्दों पर लैंगिक समानता को लागू करने की दिशा में बात होगी। पुरुषों के समान ही यौन इच्छाओं में भी समानता होनी चाहिए। एक पक्ष भी नहीं छूटना चाहिए तभी सच्चे अर्थों में समानता कहा जा सकता है।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए श्रिया टिंगल।

महिलाओं के ऑर्गेज़्म पर शोध करने वाली प्रथम शोधकर्ता राजकुमारी मैरी बानोपार्ट थीं, जिनके बाद महिलाओं की यौन इच्छाओं पर बात होने लगी। महिलाओं द्वारा यौन इच्छाओं पर बेबाकी से बात करना, पितृसत्ता समाज को जरा भी पसंद नहीं रहा। भारतीय संस्कृति और संस्कारों की दुहाई देने वाले लोग अक्सर मुखर महिलाओं के प्रति हिंसक हो जाते हैं। अपनी यौन इच्छाओं और संबंधों को स्वीकारने वाली औरतों को नफरत की नजर से देखते हैं और उन्हें अपशब्द कहकर अपमानित करते हैं। नारीवादी निगाह से किताब में लेखिका निवेदिता मेनन लिखती है कि कैसे अपनी आत्मकथा में यौन संबंध स्वीकारने वाली लेखिकाओं को हिंदी के प्रमुख लेखक नारायण राय ने एक पत्रिका को दिए अपने इंटरव्यू में कहा था कि हिंदी की लेखिकाओं द्वारा हाल में लिखी गई बेबाक आत्मकथाएं बेवफाई का महिमामंडन करती है। उनका कहना था कि हिंदी की लेखिकाओं में इस बात की होड़ लग गई है कि उनमें सबसे बड़ी छिनाल कौन है? मेनन आगे इस शब्द का अर्थ बताती हैं, यह एक ऐसी स्त्री के लिए प्रयोग किया जाता है जो कई पुरुषों के साथ यौन संबंध रखती है, हालांकि इसे सीधे वेश्या नहीं माना जाता, किंतु इसे अंग्रेजी के ‘स्लट’ शब्द के अर्थ में लिया जा सकता है। क्योंकि अपने वंश की शुद्धता के कारण महिलाओं की वर्जिनिटी आवश्यक समझी गई और स्त्रियों की इच्छा को कैद किया गया। 

वेदों और पौराणिक कथाओं से जान पड़ता है कि तब स्त्रियां स्वतंत्र थी और एक से अधिक या पति के अलावा पुरुषों से शारीरिक संबंध बनाना सामान्य था।

किताब में आगे लेखिका लिखती है कि लेखक विभुति नारायण राय के उत्तर में नारीवादी लेखिका अर्चना वर्मा ने इस प्रकरण पर उत्तर दिया कि स्त्री-पुरुष संबंधों में यौन निष्ठा का मूल विचार ही एक संदिग्ध मसला है क्योंकि इसमें निष्ठा की अपेक्षा केवल एक पक्ष से की जाती है। उन्होंने कहा कि बेवफाई का जन्म उसी दिन हो गया था जिस दिन यौन कामनाओं के प्राकृतिक प्रवाह को विवाह के कानूनी और औपचारिक स्थायित्व से बांध दिया गया था, उप-पत्नी, वैश्या एवं अन्य प्रावधान निश्चित किए जबकि महिलाओं की पवित्रता भंग न हो इसीलिए उसे घर तक सीमित कर दिया। महिलाओं की पवित्रता को इतना टैबू बनाया गया कि विधवा होने पर उसे सती कर दिया जाता था या उसका जीवन मृत्यु से भी बदतर बना दिया जाता था। 

इतना ही नहीं उसे आर्थिक स्वतंत्रता भी इसीलिए न दी गई कि अगर वह बाहर निकली तो अपने जीवन के फैसले खुद लेगी और खुद की इच्छाओं को वरीयता देगी। औरत को आर्थिक पंगु बना पुरुषों पर आश्रित कर दिया ताकि वह पितृसत्ता के जाल में फंसी रहें, बाहर न निकल पाए (क्योंकि सभी संसाधनों पर तो पुरुषों का कब्जा है आखिर जीवनयापन कैसे करेगी)। इस लोक में तो पुरुषों ने अपनी यौन इच्छाओं का हमेशा सर्वोपरि रखा है। विवाह के रिश्ते में भी पुरुषों की इच्छा और मर्जी को हमारे समाज में सही माना जाता है। वही तय करते हैं कि वे किसके साथ सेक्स करेंगे और उसपर बात भी करेंगे। वहीं महिलाओं की यौन इच्छाएं दमित हीं नही अपितु प्रतिबंधित है।


Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content