हिन्दी साहित्य में आदिवासी महिलाओं का योगदान बहुत ही महत्वपूर्ण है। आदिवासी लेखिका को कई चुनौनियों का सामना करना पड़ता है। पहले से हाशिये पर रह रहे समुदाय से होने के कारण उन्हें न सिर्फ पितृस्ता, जाति बल्कि नस्लीय भेदभाव के शोषण का भी सामना करना पड़ता है। आदिवासी महिला साहित्य आदिवासी महिलाओं द्वारा भोगा गया यथार्थ है जो बिना किसी औपचारिकता के बयान किया जाता है। लेकिन यहां समस्या यह है कि भारतीय समाज में आदिवासी लेखकों को बहुत कम लोग जानते हैं। आज हम ऐसी ही एक आदिवासी कवियत्री सुषमा असुर की कविताओं के विषय और उनकी काव्य रचनाओं के बारे के जानेंगे।
सुषमा असुर नेतरहाट, झारखंड की रहने वाली हैं। वे आदिम आदिवासी ‘असुर’ समुदाय की पहली कवियत्री हैं। इंटर तक पढ़ी सुषमा अब तक देश के विभिन्न स्थानों में काव्य पाठ कर चुकी हैं। वो असुर समाज के पुरखा गीतों और ज्ञान का संग्रह कर रही हैं। साथ ही नई रचनाएं भी कर रही हैं। सुषमा असुर की कविताएं प्रेरक और कृषि प्रधान है। असुर समुदाय से आने वाली सुषमा अपने समुदाय की कला संस्कृति और अस्तित्व को बचाने के लिए प्रयासरत हैं। साथ ही प्रकृति से जुड़ी कविताएं भी लिखती हैं। उनकी कविताओं के विषयों में खेत-खलिहान, फूल-पौधें और जंगल अहम हैं। उन्होंने महादेवी वर्मा, भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएं पढ़कर अपने इतिहास का दस्तावेजीकरण किया और अपनी भाषा में निश्चित रूप देने का निर्णय लिया।
अस्तित्व को बचाने की लड़ाई
सुषमा ने अपनी पहली कविता असुर संग्रह के गीत लिखे। ‘झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखंड’ नामक एक समुदाय संगठन से जुड़ी सुषमा असुर कहती हैं कि हम असुर लोग अपनी लोह कला नहीं बल्कि अस्तित्व को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। लोहा बनाना तो हमलोग भूल ही चुके हैं बहुत तेजी से अपनी भाषा भी खो रहे हैं। फिर भी हमारे जैसे कुछ जागरूक लोग अपनी इस कला परंपरा और भाषा संस्कृति के संरक्षण में लगे हैं। किसानों की बात करते हुए वह लिखती हैं-
जब खेत में हल चलोगे
तब धन बोओगे…
यदि आप अपने खेत जोतते हैं
तो आप बीज बोएंगे
अन्यथा जंगली घास उगेगी
हरी घास आपके खेत में बकरियों, गायों और बैलों को लुभाएगी
यदि आप हल चलाते हैं तो आप अपना खेत जोते हैं
आप बीज बोएंगे
यदि आप अपने खेत जोतते हैं
तो बारह महीने तक हर दिन
आप बोएंगे चावल की फसल उगाएं
चावल के पौधे जंगली घास को उगने से रोकेंगे
आपके खेतों में भरपूर फसल लहलहाएगी
यदि आप अपने खेतों की जुताई करेंगे तो
कविताओं की खास बात
संवादात्मक, प्रेरक और कृषि प्रधान कविताएं
सुषमा असुर की कविताएं संवादात्मक, प्रेरक और कृषि प्रधान हैं। वह लिखते हुए अपने लोगों को जीने और काम करने का तरीका बताती है। उनके द्वारा सामने रखी गई छवियां, विचार और मूल्य संस्कृति के ढाल की तरह है जिनका उद्देश्य उनके लोगों की रक्षा करना है। वह सांसारिक जीवन की कड़वाहट को कुछ मुक्तिदायक और सुखदायक में बदलने का प्रयास करती है। कवित्री बताती है कि एक बिना जुताई की गई खेत जल्दी ही हरा-भरा हो जाएगा, जो बकरियों और अन्य जानवरों को खाने के लिए आकर्षित करेगा।
दिन-रात मेहनत करके खेतों में उन्नत फसल होगी। दूर से आने वाले पक्षियां किसान की मेहनत की सराहना करेंगी। किसान की कड़ी मेहनत से घर में पूरा भरण-पोषण होगा। अच्छी फसल से अनाज भंडार भी भरेंगे, वरना कीड़ों की बढ़ती संख्या में समस्या उत्पन्न हो सकती है। किसानों की कड़ी मेहनत पर पक्षियां आकर्षित होकर उनके खेतों में उड़ेंगी। इस कविता के माध्यम से कवयित्री समूह के सदस्यों को प्रेरित करती है कि सुस्ती से बाहर निकलकर मेहनत करना अत्यंत महत्वपूर्ण है।
समुदाय की आवाज़ बनीं है सुषमा
असुर समुदाय की कवयित्री सुषमा असुर ने अपने समुदाय के सदस्यों के गुस्से को आवाज देने का बीड़ा उठाया है। उनकी सादगी और प्रतिभा ने हजारों लोगों का दिल जीता है। अपने कक्षा के किताब में भवानी प्रसाद मिश्र की कविता ‘सतपुड़ा के घने जंगल’ ने उनके मन पर अमिट छाप छोड़ी। सुषमा पांचवी कक्षा में थीं जब उन्हें एहसास हुआ कि वह अपने विचारों को कलमबद्ध कर सकती हैं। लेकिन लिखना या पढ़ना उनके हिस्से में आसानी से नहीं आया। नेतरहाट के सुदूर इलाके में बसी सुषमा हिंदी में स्नातक की हैं। शुरुआत में उन्होंने जो भी लिखा, उसे उन्होंने फाड़कर फेंक दिया।
‘सतपुड़ा के घने जंगल’ पढ़ने के बाद वह बताती हैं कि उनमें भी अपनी जनजाति और अपने गांव के बारे में कविताएं लिखने का उत्साह भर गया। धीरे-धीरे यह आसुरी महिला आगे बढ़ी और हिंदी और आसुरी के अलावा मुंडारी, उराँव, कुड़ुख और नागपुरी भी सीख लीं। सुषमा अब आसुरी और हिंदी दोनों भाषाओं में लिखती हैं। कई भाषाविदों, लेखकों और ज्यादातर द्विभाषी शहरवासियों के लिए, सुषमा की बहुभाषावाद आशा का कारण है क्योंकि इन भाषाओं को लुप्त होने के कगार से वह बाहर ला रही हैं।
आदिवासियों के जीवन की कड़वी सच्चाई
भारत में अनेक आदिवासी जनजातियों का जीवन का संघर्ष किसी से छुपा नहीं है। यहां यह जरूरी है कि हम इन चुनौतियों की बात करें, क्योंकि जहां एक ओर सुषमा के तरह कई लोग अपनी संस्कृति को बचाए रखने की कोशिश कर रहे हैं, वहीं सरकार इनके हालात को सुधारने के लिए इच्छुक नहीं दिखती। द हिन्दू के बिजनसलाइन में छपी एक खबर के अनुसार मात्र 200 किमी दूर रांची से सखुआपानी स्थित अपने घर पहुंचने में सुषमा को दो दिन से अधिक का समय लगता है। दो दिनों में एक बार, एक बस इस सड़क पर चलती है, जो यात्रियों को ऐसी जगह पर उतारती है, जहां से उनके गाँव कम से कम दो घंटे की पैदल दूरी पर हो। अक्सर, यह बस छूट जाती है और बॉक्साइट खदानों की ओर जाने वाले ट्रकों के पीछे सवारी को बिठाया जाता है।
प्रशासन का भी असुर समुदाय तक पहुंचना मुश्किल हो गया है। इन गांवों में बिजली नहीं है, एक प्राथमिक विद्यालय है जिसमें कोई शिक्षक नहीं है और कोई आवश्यक चिकित्सा सुविधाएं नहीं हैं। साल 2007 में, जब सुषमा के पिता खंबिला असुर बीमार पड़ गए, तो सुषमा को उन्हें लोहरदगा के निकटतम स्वास्थ्य केंद्र ले जाने में दो घंटे लग गए, जहां कोई डॉक्टर मौजूद नहीं था। इसके बाद वे गुमला की ओर चली जहां पहुंचने में दो घंटे लग गए, और रास्ते में उनके पिता की मृत्यु हो गई।
सदियों पुराने व्यवस्थित दमन के खिलाफ लेखन
जब सुषमा असुर अपनी संस्कृति और धर्म के सदियों पुराने व्यवस्थित दमन के खिलाफ नारे नहीं लगा रही होती हैं, तो वह कविता लिखने बैठ जाती हैं। एक अन्य कविता, ‘जागो बेटे’, में कवयित्री चावल की फसल के दौरान एक किसान के जीवन के एक दिन का चित्रण करती है। एक आदमी अपने बेटे को सुबह जल्दी उठाता है और उसे काम के लिए तैयार होने के लिए कहता है। वह अपने बेटे को सूर्योदय से पहले उठने और सूर्योदय से पहले खेतों की ओर जाने का निर्देश देता है। वे बैलों को खेतों की ओर ले जाते और अनाज की कटाई का काम शुरू करते। सूखे और कटे हुए चावल के घास से चावल के दाने प्राप्त करने की पूरी प्रक्रिया का वर्णन किया गया है। जैसे ही बुजुर्ग अपने बेटे को उठने के लिए मनाता है, वह बताता है कि उसकी माँ भोजन लेकर खेतों में आएगी। एक आम किसान के जीवन की सभी सामान्य गतिविधियों पर ध्यान दिया गया है। देहाती चित्र को खूबसूरत तरीके से चित्रित किया गया है।
सुषमा असुर अब अपने पूर्वजों के इतिहास और संस्कृति की फिर से खोज कर रही हैं। वह गर्व से कहती हैं कि वह उनके इतिहास का दस्तावेजीकरण करने वाली पहली असुर हैं। एक कैमरे और एक नोटबुक लेकर वह अब असुर कविता और लोककथाओं का दस्तावेजीकरण कर रही है – जो कि सेमर, पापल, गुलनार की छाया और कई लोक कहानियों के बारे में बताती है। वह प्रचलित विचारधारा में ‘असुर’ का मतलब ‘राक्षस’ पर भी आपत्ति जताती हैं।