शिक्षा की समाज में समानता और समावेशन को लाने में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। ख़ासकर के तमाम सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक असमानताओं को पहचानने और उन्हें खत्म करने में शिक्षा केंद्र में रही है। तमाम तरह के विकलांगता से ग्रस्त वो बच्चे जो लगातार स्कूल से वंचित रह जाते हैं, जिनके स्कूली व्यवस्था से वंचित रह जाने के पीछे सबसे बड़े कारण आज भी वही हैं, जो पहले हुआ करते थे। इन कारणों में, विकलांगता को लेकर सामाजिक पूर्वाग्रह और भेदभाव, स्कूलों का ख़राब व्यवहार, कमज़ोर पाठ्यक्रम, स्कूलों में अपर्याप्त बुनियादी ढांचा और विकास के अनुपयुक्त संसाधनों की समस्याएं प्रमुख हैं। ये कारण आज भी इनको शिक्षा के अधिकार के अवसर से दूर रखती हैं।
विशेष आवश्यकता वाले बच्चों (सीडब्ल्यूएसएन) के परिवार जब आर्थिक रूप से सशक्त नहीं होते, तो कई बार न तो विकलांगता की ठीक जाँच और पहचान हो पाती है और न ही उसके निदान की संभावना होती है। शिक्षा मंत्रालय द्वारा जारी शिक्षा के लिए एकीकृत ज़िला सूचना प्रणाली (यूडीआईएसई), 2021-22 के अनुसार पूरे भारत में प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च माध्यमिक (पहली से बाहरवीं कक्षा) तक कुल विशेष आवश्यकता वाले विद्यार्थियों की संख्या 2240356 है। विशेष आवश्यकता वाले बच्चे (सीडब्ल्यूएसएन) में लड़कियां सबसे कम प्रतिनिधित्व में हैं जोकि लैंगिक समानता के परिप्रेक्ष्य से परेशान करने वाला तथ्य है। लड़कियों की संख्या 941528 है, वहीं 1298828 लड़कों की है। प्राथमिक स्तर (पहली से पाँचवी कक्षा तक) में नामांकित लड़कियों की बात करें तो यह संख्या 459020 है, वहीं लड़कों की संख्या 672517 है।
इन बच्चों को लेकर एक प्रमुख और सामान्य सामाजिक पूर्वाग्रह यह रहता है कि इनका भविष्य क्या होगा चूंकि ये विकलांग हैं। स्कूल में दाखिला करवाना पैसे की बर्बादी है। वहीं कई बार स्कूल अभिभावकों को पर्याप्त संसाधन मौजूद न होने का कारण देकर इंकार कर देते हैं। कई बार ऐसे बच्चों को स्पेशल स्कूल में जाने को भी कह देते हैं। ऐसी स्थिति में जहां दूर-दूर तक भी स्पेशल स्कूल मौजूद न हो, इस तरह की सोच इन्हें न केवल शिक्षा जैसे संवैधानिक अधिकार से, बल्कि मानव अधिकार से भी वंचित कर देते हैं।
लर्निंग डिसेबिलिटी से ग्रस्त बच्चे
कई स्कूलों में विशेष आवश्यकता वाले बच्चे (सीडब्ल्यूएसएन) संख्या बेहद कम है। ख़ासकर के दूर-दराज के क्षेत्रों, गांव या क़स्बों में जहां स्कूल अगर है भी तो सामान्य बच्चों तक के लिए सुविधाएं मौजूद नहीं है। दिल्ली की आर.के. पुरम में रहने वाली बिहार की 18 वर्षीय प्रीति एक तरह की लर्निंग डिसेबिलिटी है। वह अपने माता-पिता के साथ सब्ज़ी बेचने और घरेलू काम में मदद करती है। इससे पहले वह बिहार में एक सरकारी स्कूल में पढ़ा करती थी। उसका स्कूल जाना इसलिए बंद करवा दिया गया क्योंकि उसे सीखने में कठिनाई होती थी। स्कूल जाने के बाद भी वह अंग्रेजी और हिंदी की वर्णमालाएं, गिनती और पहाड़ों को न पढ़ और न लिख सकी थी।
परिवार की फिर से एक और कोशिश के बावजूद उसे किसी भी स्कूल में दाखिला नहीं दिया गया। प्रीति जैसे ना जाने ऐसे कितने बच्चे हैं जिनके संबंध में परिवार और स्कूल उनकी विकलांगता को पहचानने में असफल रहे हैं। ऐसी स्थिति में इन बच्चों की विशेष व्यक्तिगत ज़रूरतों पर ध्यान देना सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है ताकि सीखने प्रक्रिया में कोई बाधा न बनने पाए। संयुक्त राष्ट्र की 2020 की रिपोर्ट बताती है कि भारत में लगभग 75 प्रतिशत विकलांग बच्चे कभी किसी शैक्षणिक संस्थान नहीं गए। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार, वैश्विक आबादी का 16 प्रतिशत भाग किसी न किसी विकलांगता का सामना कर रहा है।
नई शिक्षा नीति और उससे जुड़ी समावेशी सिफ़ारिशें
नई शिक्षा नीति (एनईपी 2020) में सीडब्ल्यूएसएन से जुड़े अनुभागों पर नजर डालें तो समझ आता है कि शिक्षा की व्यवस्था में विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के समावेशन और समानता को हासिल करने के संबंध में एनईपी-2020 के लिए शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009 और विकलांग व्यक्तियों (पीडब्ल्यूडी) का अधिकार अधिनियम, 2016 जैसे दो महत्वपूर्ण दस्तावेज मार्गदर्शक हैं। आज विकलांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम में संशोधन के बाद, 21 नयी विकलांगता को उसमें जोड़ा गया है। एनईपी-2020, आरटीई अधिनियम और पीडब्ल्यूडी अधिनियम, 2016 में वर्णित सीडब्ल्यूएसएन से जुड़े प्रावधानों को दोहराती है।
ये नीतियां कक्षाओं में समावेशी वातावरण प्रदान करने के लिए ज़रूरी बुनियादी ढांचा, उपयुक्त कौशलों से परिपूर्ण शिक्षकों को तैयार और प्रशिक्षण की व्यवस्था, उनकी नियुक्ति, पाठ्यक्रम में सुधार, स्कूलों को वित्त सहायता प्रदान करना आदि का उल्लेख करती है। पर इन प्रावधानों को अपनी नई भाषा में उतना स्पष्ट नहीं करती। ख़ासतौर से 5+3+3+4 जैसे नये स्कूली ढांचे में सीडब्ल्यूएसएन की स्थिति क्या होगी।
होम स्कूलिंग के विकल्प पर ज़ोर
नई शिक्षा नीति के दिशानिर्देशों के उद्देश्यों के अनुरूप शिक्षा मंत्रालय का स्कूली शिक्षा और साक्षरता विभाग (डीएसईएल) स्कूलों में जाने में असमर्थ गंभीर और गहन विकलांगता वाले बच्चों के लिए गृह-आधारित शिक्षा का विकल्प प्रदान करने की योजना तैयार कर रहा है। यानि घर में ही होम स्कूलिंग उपलब्ध कराने वाली स्कूली शिक्षा जिसका उद्देश्य विशेष आवश्यकता वाले बच्चों, शारीरिक रूप से विकलांग विद्यार्थी और वंचित समुदाय के लोगों को सीखने का स्तर हासिल कराना होगा।
वहीं एनईपी-2020 में बताया गया है कि गृह-आधारित शिक्षा की व्यवस्था को आरपीडबल्यूडी 2016 के दिशानिर्देशों और मानकों के अनुरूप तैयार किया जाए। आरटीई अधिनियम के 2012 के संशोधन में विकलांग बच्चों के लिए गृह-आधारित शिक्षा के विकल्प का उल्लेख मिलता है। इसकी धारा 3 (2) इन बच्चों की प्राथमिक शिक्षा पर जोर देने के साथ-साथ, इस बात को भी अनिवार्य करती है कि एक से अधिक और गंभीर विकलांगता वाले बच्चों को गृह-आधारित शिक्षा का विकल्प चुनने का अधिकार होगा।
शिक्षकों में कौशल की कमी
सीडब्ल्यूएसएन के लिए स्कूलों में विशेष शिक्षा शिक्षक (स्पेशल एजुकेशन टीचर) की व्यवस्था की जाती है। एक विशेष शिक्षा शिक्षक के अंतर्गत अलग-अलग सीखने वाले विद्यार्थी होते हैं जैसे मानसिक, शारीरिक और भावात्मक विकलांगता के विद्यार्थी। स्कूलों में विशेष शिक्षा शिक्षक और रिसोर्स शिक्षक दोनों आपसी सहयोग और समझ के साथ काम करते हैं। देश के स्कूलों में दोनों की भारी कमी बनी हुई है। इकोनॉमिक टाइम्स में छपी एक रिपोर्ट ने अनुसार, सुप्रीम कोर्ट ने शिक्षा के लिए एकीकृत ज़िला सूचना प्रणाली (यूडीआईएसई) पर उपलब्ध आंकड़ों का हवाला देते हुए कहा था की देशभर में 22.5 लाख सीडब्ल्यूएसएन हैं।
सामान्य बच्चों को पढ़ाने के साथ-साथ, सीडब्ल्यूएसएन को पढ़ाने के लिए केवल 4.33 लाख सामान्य शिक्षकों को प्रशिक्षित किया गया है जबकि सीडब्ल्यूएसएन वाले बच्चों के लिए केवल 28,535 विशेष शिक्षक उपलब्ध हैं। वहीं एनईपी-2020 ने भी विशेष शिक्षकों की गंभीर आवश्यकता को जाहिर किया है। ख़ासकर के मिडिल और माध्यमिक स्तर पर विकलांग बच्चों के लिए विषयों के शिक्षण और सीखने में कठिनाई के लिए विशेष शिक्षकों नियुक्ति की ओर इशारा किया गया है।
विशेष शिक्षकों की क्रॉस-डिसेबिलिटी प्रशिक्षण
एनईपी-2020 विशेष शिक्षकों को क्रॉस-डिसेबिलिटी प्रशिक्षण देने पर बल दिया है। दिल्ली सरकार के शिक्षा विभाग की एक विज्ञप्ति के अनुसार क्रॉस डिसेबिलिटी प्रशिक्षण को समझे तो यह एक ऐसा व्यावहारिक प्रोग्राम है जो कि पहले से किसी एक विशिष्ट विकलांगता में विशेषज्ञता रखने वाले विशेष शिक्षक को अन्य तरह की श्रवण हानि, दृश्य हानि, बौद्धिक विकलांगता और सीखने की विशिष्ट अक्षमता, जैसी विकलांगताओं के बारे में प्रशिक्षित करता है। बात करे अन्य राज्य की तो कक्षाओं में समावेशन के उद्देश्य को हासिल करने और विभिन्न विकलांगताओं को संबोधित करने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने इस साल सरकारी स्कूलों के लगभग 60,000 प्रधानाध्यापकों को क्रॉस-डिसेबिलिटी प्रशिक्षण देने का फैसला किया है। दिल्ली के शिक्षा विभाग की समावेशी शिक्षा शाखा सरकारी स्कूलों में ये प्रशिक्षण भारतीय पुनर्वास परिषद (आरसीआई) जैसी संस्था द्वारा तय मानदंडों और दिशानिर्देशों के अनुरूप आयोजित किए जा रहे हैं।
स्कूलों में संसाधन केंद्रों को स्थापित करने की जरूरत
एनईपी संसाधन केंद्र को स्थापित करने पर ज़ोर देती है। गंभीर और एक से अधिक विकलांगता वाले बच्चों के लिए जहां भी ज़रूरी हो एक संसाधन केंद्र स्थापित किया जाए। हालांकि विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के लिए पीडब्ल्यूडी अधिनियम के तहत स्कूलों में पहले से ही संसाधन कक्ष स्थापित करने का प्रावधान मौजूद है। एक संसाधन कक्ष ब्रेल की किताबें और विशेष आवश्यकता वाले बच्चे के लिए अन्य सीखने की सामग्री उपलब्ध कराता है। कई बार स्कूलों में संसाधन कक्ष तो होते हैं। लेकिन मानव संसाधन और उपयुक्त उपकरण की दृष्टि से सुविधायुक्त नहीं होते। पिछले साल के एक रिपोर्ट मुताबिक, उड़ीसा के पुरी में स्कूलों में विशेष शिक्षक, ज़रूरी उपकरण और सुविधाएं, समावेशी शिक्षण गतिविधियों की कमी के कारण विकलांग बच्चों की शिक्षा में रुचि जा रही थी जिसकी वजह से वे ड्रॉप आउट कर रहे थे। यह समझना मुश्किल नहीं है कि बच्चे आज कक्षाओं से विकलांग बच्चे क्यों गायब हैं। नीतिगत और कानून के रहते हुए भी तमाम प्रावधान काफी हद तक कागज पर ही बने हुए हैं। समावेशी शिक्षा के उद्देश्य को हासिल करने की दिशा में विकलांग बच्चों के लिए शिक्षण और सीखने की गुणवत्ता में संपूर्ण सुधार होने की अभी भी कई सारी कोशिशें बाकी है।