भारतीय समाज में लैंगिक असमानता का मूल कारण इसमें निहित पितृसत्तात्मक व्यवस्था है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री सिल्विया वाल्बे के अनुसार, “पितृसत्तात्मकता सामाजिक संरचना की ऐसी प्रक्रिया और व्यवस्था हैं जिसमें आदमी, औरत पर अपना प्रभुत्व जमाता हैं, उसका दमन करता हैं और उसका शोषण करता हैं।” वैसे तो महिलाओं के साथ लैंगिक आधार पर होने वाला भेदभाव किसी एक जाति, समाज या धर्म तक सीमित नही है। पुरुषवादी सोच के तहत परंपरागत रूप से महिलाओं को कमज़ोर माना जाता रहा है और उनके साथ हमेशा से दोयम दर्ज़े का व्यवहार होता रहा है। महिलाएं, घर और समाज दोनों जगहों पर शोषण, अपमान और भेदभाव का सामना करती हैं।
वैश्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक 2023 में भारत 146 देशों में 127वें स्थान पर रहा। इससे साफ तौर पर अंदाजा लगाया जा सकता है कि हमारे देश में लैंगिक भेदभाव की जड़ें कितनी मजबूत और गहरी है। अगर वहीं महिला किसी ऐसे समुदाय से हो जिसको लेकर पहले से ही धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर गलत धारणाएं बनाई जा रही हो तो परिस्थितियां और ज़्यादा मुश्किल हो जाती है। देश में मुस्लिम समुदाय के लोग धार्मिक रूप से अल्पसंख्यक होने की वजह से पहले से ही हाशिये पर जी रहे हैं। देश में आए दिन धर्म और राजनीतिक कारणों से मॉब लिन्चिंग, हेट स्पीच की ख़बरे सामने आती रहती हैं। लेकिन जब बात महिलाओं की आती हैं तो जेंडर और धर्मिक पहचान की वजह से उन्हें अधिक चुनौतियों, भेदभाव और हिंसा का सामना करना पड़ता है। द गार्जियन में छपी रिपोर्ट के अनुसार मुस्लिम महिलाओं को मुस्लिम पुरुषों के मुकाबले अधिक इस्लामोफोबिक हमलों का सामना करना पड़ता है।
निकहत अपने अनुभवों के बारे में बताती हैं, “जब कॉलेज मैं थीं तो अलग-अलग तरह से भेदभाव का सामना करना पड़ा था। अपने कॉलेज हिज़ाब पहन कर जाती थीं। एक दिन मेरे कॉलेज के संगीत के प्रोफेसर ने मुझे रोक कर कुछ छात्रों के सामने हिजाब को लेकर मज़ाक बनाया और यहां तक कहा कि ऐसे कपड़े पहन कर कभी पढ़ाई नही हो पाएगी।”
अपनी धार्मिक पहचान की वजह से उन्हें कई स्तर पर भेदभाव का सामना करना पड़ता है। बाल्यावस्था में क्लास रूम से शुरू होने वाला भेदभाव पूरी ज़िंदगी मुस्लिम महिलाओं के साथ-साथ चलता रहता है। अगर कोई महिला पेशेवर है तो ख़ास तौर से राजनीति या मीडिया का हिस्सा है, और वो मौजूदा वक़्त में अपनी पहचान और सत्ता के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने का हौसला रखती हैं तो उन महिलाओं को सबसे ज्यादा भेदभाव का सामना करना पड़ता है। स्कूल-कॉलेजों में हिजाब बैन मुस्लिम महिलाओं को शिक्षा से दूरी का एक कारण बन रहा है। कर्नाटक के बाद देश के अन्य कुछ राज्यों में भी हिजाब पहनकर स्कूल जाने वाली लड़कियों को लेकर विवाद सामने आ चुका है।
इसी वर्ष शुरुआत में राजस्थान में गणतंत्र दिवस के मौक़े पर सत्ता पक्ष के नेता ने हिजाब पहने हुई मुस्लिम छात्राओं का अपमान किया। डी.डब्लू.कॉम में प्रकाशित ख़बर के अनुसार, जयपुर शहर के गंगापोल क्षेत्र के एक सरकारी स्कूल के कार्यक्रम में बीजेपी विधायक बालमुकंद शामिल हुए थे। इस दौरान उन्होंने स्कूल की प्रिंसिपल और अन्य कर्मचारियों से कहा था कि स्कूल में कुछ छात्राएं हिजाब पहन कर क्यों आई हैं। विधायक ने ऐतराज जताते हुए हिजाब पर रोक लगाने की बात कही थी। वहीं कुछ दिनों पहले कर्नाटक के उडुपी ज़िले में भी हिजाब पहन कर स्कूल आने वाली छह छात्रों को कॉलेज में प्रवेश करने पर रोक लगा दिया गया था। जबकि हमारे संविधान का “अनुच्छेद 25” धर्म को मानने की स्वतंत्रता देता है। फिर भी हिजाब की वजह से मुस्लिम महिलाओं को लगातार भेदभाव और दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ रहा है।
“मेरे कपड़ों के कारण मेरा मजाक बनाया”
इस बारे में बात करने पर रिसर्च स्कॉलर निकहत अपने अनुभवों के बारे में बताती हैं, “जब कॉलेज मैं थीं तो अलग-अलग तरह से भेदभाव का सामना करना पड़ा था। अपने कॉलेज हिज़ाब पहन कर जाती थीं। एक दिन मेरे कॉलेज के संगीत के प्रोफेसर ने मुझे रोक कर कुछ छात्रों के सामने हिजाब को लेकर मज़ाक बनाया और यहां तक कहा कि ऐसे कपड़े पहन कर कभी पढ़ाई नही हो पाएगी।” निकहत आगे बताती है कि तब वे बी.एस.सी. में पढ़ती थी और आज वो कामयाब हैं और पीएचडी कर रही हैं।
उनका कहना है, “धार्मिक भेदभाव को छोड़ दें तो हिज़ाब की वजह से उन्हें पढ़ने-लिखने में कभी कोई दिक्क़त नही आई। बल्कि हिजाब के साथ मैं खुद को ज़्यादा सशक्त महसूस करती हूं।”
मुस्लिम महिलाएं शिक्षा के मामले में अन्य समुदायों से काफ़ी पीछे हैं। अगर नौकरियों में उनका प्रतिनिधित्व देखा जाए तो वो भी बहुत कम है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (2009-10) के 66वें दौर के सर्वेक्षण के अनुसार प्रत्येक 1,000 कामकाजी महिलाओं में से केवल 101 यानी मात्र 10 फ़ीसदी महिलाएं ही मुस्लिम हैं। साल 2005 में मुसलमानों की स्थिति का आकलन करने के लिए सच्चर समिति का गठन किया था। इस कमेटी की रिपोर्ट में भी पाया गया कि 70 फीसदी मुस्लिम महिलाएं केवल अपने घर के कामों तक सीमित रहती हैं जबकि अन्य समुदायों में यह आंकड़ा 51 फीसदी है। इसी रिपोर्ट ने अनुसार कार्यबल में मुस्लिम महिलाओं की कम भागीदारी को मुसलमानों के रोजगार अनुपात में पिछड़ने के प्रमुख कारण के तौर पर रेखांकित किया है। साल 2011 के जनगणना आंकड़ों के अनुसार भारतीय श्रमिकों में मात्र 32.6 फीसदी ही मुसलमान हैं।
मुस्लिम महिलाओं के नौकरी में कम प्रतिनिधित्व को लेकर कई रिपोर्ट और अध्ययन सामने आ चुके हैं। एक गैर-सरकारी संगठन लेड बाय फाउंडेशन की रिपोर्ट बताती है कि मुस्लिम लड़कियों के साथ नौकरियों में 47 प्रतिशत तक भेदभाव किया जाता है यानी जितनी भी मुस्लिम लड़कियां नौकरी के लिए आवेदन करती हैं, उनमें से लगभग आधी लड़कियों को मुस्लिम होने के चलते नौकरी नहीं मिलती है। रोजगार और शिक्षा के क्षेत्र में महिलाओं की मौजूदगी पुरुषों के मुकाबले कम है लेकिन इसमें भी मुस्लिम महिलाओं की संख्या और भी कम है।
पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं के साथ भेदभाव आजीवन चलता रहता है। घर, स्कूल, नौकरी हर जगह उन्हें लैंगिक पहचान की वजह से अधिक संघर्षों का सामना करना पड़ता है। पारंपरिक तय भूमिकाओं से अलग चलने पर उन्हें शोषण और हिंसा का भी सामना करना पड़ता है। समय के साथ महिलाओं के साथ भेदभाव का स्वरूप और बढ़ गया है और पहले से ज़्यादा हानिकारक भी बन गया है। आज टेक्नोलॉजी, दुनिया का एक अहम हिस्सा है। इसका इस्तेमाल करके मुस्लिम महिलाओं के साथ ऑनलाइन दुर्व्यवहार, बुलीइंग, हिंसा जैसी घटनाएं हो रही हैं। साल 2021 में ‘सुल्ली डील्स’ और उसके बाद जनवरी 2022 में ‘बुल्ली बाई’ नाम के ऐप्स बनाकर मुस्लिम महिलाओं को निशाना बनाया गया। ख़ासतौर पर जो मुस्लिम महिलाएं मुखर होकर अपनी बात सोशल मीडिया पर रखती है उन्हें निशाना बनाया गया। मुस्लिम महिलाओं की ऑनलाइन नीलामी की गई।
देश में बढ़ता धार्मिक उन्माद और राजनीति के कारण अनेक स्तर पर मुस्लिम महिलाओं को हिंसा का सामना करना पड़ रहा था। हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित ख़बर साल 2022 में उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले के खैराबाद के एक महंत और दक्षिणपंथी नेता बजरंग मुनि दास द्वारा एक मस्जिद के बाहर खड़े होकर खुलेआम अपने समर्थकों को मुस्लिम महिलाओं का यौन उत्पीड़न करने के लिए उकसाया। इससे अलग कई सत्ताधारी पार्टी के नेता, विधायक सार्वजनिक मंचों से मुस्लिम महिलाओं को लेकर नफ़रती बयान दे चुके हैं। मुस्लिम महिलाओं और लड़कियों के लिए उनकी धार्मिक पहचान उजागर करने वाली चीजों के लिए अपमानजक शब्दों का इस्तेमाल किया जाने लगा है। न्याय तक उनकी पहुंच को सीमित किया जा रहा है। बिलकीस बानो के मामला हमारे सामने एक ताजा उदाहरण है।
ये सारे आंकड़े और रिपोर्ट्स दिखाते हैं कि किस तरह से मुस्लिम महिलाओं को उनकी पहचान के आधार पर निशाना बनाया जा रहा है। ऐसी घटनाओं को अंजाम देने वाले लोग दरअसल मिसोजनी होने के साथ-साथ सांप्रदायिकता को बढ़ाने वाले हैं और वर्तमान के सामाजिक और राजनीतिक माहौल में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। लेकिन इसका बिल्कुल भी ये मतलब नही की मुस्लिम महिलाएं बोलना, पढ़ना और अपनी बात रखना छोड़ दें। वे पितृसत्ता और धर्म के आधार पर होने वाले भेदभाव के ख़िलाफ़ लगातार आगे बढ़ रही हैं और अपने नागरिक अधिकारों के लिए हवा में मुठ्ठी बंद करके लहरा रही है।