एक समाज जब जीने-खाने भर के संघर्ष में उलझा होता है तो उसका वही संघर्ष उसके लिए उस वर्ग की एक सामूहिक चेतना में भी बाँधे रखता है। हृषीकेश सुलभ का चर्चित उपन्यास ‘दाता पीर’ कब्रिस्तान से भारतीय समाज के विविधता से भरे उस हिस्से को दिखाता है जहाँ से समाज का हर रंग ज्यादा साफ-साफ दिख रहा है। मानवीय सम्बन्धों और उनकी संवेदनाओं की संभावना वाले इस अद्भुत उपन्यास में पटना के निम्न मध्यवर्गीय मुसलमान परिवारों के जीवन और उनके संघर्ष (जिन पर साहित्य में कम लिखा गया है) को जैसे आँख डालकर देख रहा है। साथ ही समय की उस पीड़ा को दर्ज कर रहा है जो रोज बढ़ती जा रही है। हिन्दू-मुस्लिम दोनों समुदाय ऐसे घुले-मिले हैं जैसे धर्म और सम्प्रदाय खाये-अघाये लोगों का मसला है। श्रम से जिनका जीवन चलता है उनके यहाँ तो जीवन जीना ही मसला है।
उपन्यास के सारे स्त्री पात्र के जीवन को निहारते हुए मैंने पाया कि कैसे निम्नवर्गीय जीवन की त्रासदी को भी स्त्रियां, पुरुषों की अपेक्षा कितना ज्यादा ढोती हैं। हाशिये के समाज के पुरुषों के पास भूख ही ज्यादा कठिन प्रश्न वहीं स्त्रियों के पास भूख के साथ देह की विडंबना भी जुड़ी है और वो प्रश्न उनके लिए भूख से भी ज्यादा कठिन दिखता है। उपन्यास की नायिका अमीना के जीवन का वो दृश्य जैसे चीख की तरह हर स्त्री की आत्मा में उठ सकता है जब सत्तार नाम के व्यक्ति द्वारा किया गया यौन उत्पीड़न का सामना केवल इसलिए कर रही होती है कि वह व्यक्ति उसके घर-परिवार के रोजमर्रा के खर्च में कभी-कभी कुछ सहयोग कर देता है। रसीदन के पति नसीर मियाँ की मौत के बाद सत्तार मियाँ पहले रसीदन पर नज़र रखता है और उसे छद्म सुरक्षा महसूस करवाता है फिर उनकी दोनों बेटियों विशेषकर बड़ी बेटी अमीना का शोषण करता है।
गरीबी और भूख कैसे मनुष्य के जीवन की गरिमा को बचा नही रहने देती उसे यहां बखूबी दर्ज किया गया है। साथ ही आगे इसमें मनुष्य सम्बन्धों की संभावना को भी जाहिर किया गया है क्योंकि वही अमीना उपन्यास की सबसे शसक्त और मनुष्य होने की गरिमा और ओज से भरी हुई पात्र के रूप में उदित होती है। नायिका का चरित्र बताता है कि मनुष्य की यात्रा उसके दुख उसके प्रेम और उसकी पीड़ा सब उसे कितना उर्वर बनाते हैं।
उपन्यास ‘दाता पीर’ में हाशिये के भारतीय मुसलमानों का सामजिक जीवन के साथ उनकी सांस्कृतिक पद्धतियों और आध्यात्मिक विधियों का अत्यंत संवेदनशील और वैचारिक चित्रण किया गया है। एक समाज जब रोज नफरत और वैमनस्य की ओर बढ़ता जा रहा है तो कला-साहित्य का काम है कि वो उस समाज को याद दिलाये कि धर्म, नफ़रत करने के लिए नहीं बना था। महज लोक के जीवन के दृश्यों को रखते हुए यह उपन्यास मौजूदा राजनीतिक, सामाजिक परिवेश में भरती जा रही संकीर्णता को चिन्हित करता है।
संघर्ष के कितने जीवन हमारे आसपास बिखरे हुए हैं और आप उनके जीवन में पसरे संघर्षों से परिचित नहीं है तो एक तरह का बेगानापन आ जाता है ऐसे वर्ग के मनुष्यों के लिए एक मानवीय जीवन दृष्टि के लिए भी इस किताब को पढ़ना चाहिए। जैसे ही पात्रों को जब आप पढ़ना और जानना प्रारंभ करते हैं तो इस जुड़ाव की प्रक्रिया में उनके जीवन की विवशता को जीना शुरू कर देते हैं। उपन्यास के उन पात्रों के जीवन को आप जीने लगते हैं और उनके सुख-दुःख, मित्र-शत्रु सब अपने लगने लगते हैं।
कब्रगाह के बाशिन्दे कैसे होते हैं? उनका जीवन कैसा होता है? इस पर एक जगह अमीना कहती है, “यह कब्रगाह है साबिर। यहाँ आने के बाद सिर्फ मुर्दे रुक जाते हैं। दूसरे लोग रुकने के लिए नहीं आते। वे लौट जाने के लिए आते हैं।” यह उपन्यास एक ऐसी जगह की कथा है जहाँ से हम गुज़रते तो हैं पर कल्पना नहीं कर पाते कि मुर्दों के बीच भी कोई जिंदगी पल सकती है। एक ऐसी जगह पर उपन्यासकार हृषिकेश सुलभ ठहरते हैं और हमें इस अनदेखे संसार से परिचित कराते हैं। हिंदी साहित्य में इस तरह की पृष्ठभूमि पर शायद ही अन्य कोई उपन्यास लिखा गया है। आज हम जिस राजनीतिक और सामजिक चेतना के समय में जी रहे हैं जब लगातार देश के एक अल्पसंख्यक समुदाय को निशाना बनाया जा रहा। उसका चरित्र वर्षों से आक्रांत, उन्मादी, दंगा-फसाद वाला ही लगभग दिखाया गया है ऐसे समय में लेखक ने उनके जीवन की प्रेम कहानियों को चुना है। वास्तव में प्रेम, हिंसा के विरुद्ध सबसे सशक्त कार्रवाई है और उपन्यास जैसे रो-रोकर कह रहा है कि दुनिया में जीवन जीने का सबसे सुंदर साधन प्रेम ही है।
हिंदी साहित्य में सामान्यतः उच्च वर्ग और मध्यवर्ग के धरातल पर ज्यादातर उपन्यास लिखे गए हैं। अक्सर वहाँ एक मध्यवर्गीय जीवन और उसके संघर्ष ही दिखते हैं। वही लेखक ने यहां एक अति निम्नवर्गीय जीवन के संघर्ष, प्रेम, वियोग, भूख, दमन आदि को दर्ज किया है। सुविधाओं और खुद के विशेषाधिकारों से भरे जीवन में रहते हुए हम उस हाशिये के जीवन से अपरिचित रह जाते हैं जहाँ बहुत कुछ घट रहा है। आज जब बहुसंख्यकवाद के इस समय में अल्पसंख्यक जीवन एक प्रश्न के रूप में हमारे सामने है उस समय लेखक ने उस समुदाय के लोगों के बारे में कहने के लिए ऐतिहासिक कथा नहीं रची बल्कि एक आम कहानी के माध्यम से उनके संपूर्ण जीवन संघर्ष को दिखाया जिसमें व्यापक जनसरोकार है।
उपन्यास में कुछ दृश्य बेहद मार्मिक हैं। अमीना का निष्कलुष वियोग इतना तीक्ष्ण है कि जैसे उपन्यास खत्म करने के साथ एक रिक्तता मन में भर जाती है। उपन्यास के सारे पात्र अपने से लगने लगते हैं। एक ऐसा साधरणीकरण होता है कि उन पात्रों सा जीवन न होते हुए भी उनका जीवन हमारा जीवन हो जाता है, उनकी वेदना, त्रासदी हमारी अपनी हो जाती है। उपन्यास में जगह-जगह मीर और खुसरों की पंक्तियाँ हैं। हज़रत दाता पीर मनिहारी थे। घूम-घूम कर चूड़ियाँ पहनाते थे। बहुत अच्छा गाते थे। वे अक्सर ब्याह के गीत गाते थे। इसमें भी लेखन ने बिहार के लोकगीतों और लोकप्रतीकों की भी छुटपुट मगर गहरी पड़ताल है।
बिहार में शराबबंदी और उसकी अवैध तस्करी का भी जिक्र आता है। उपन्यास में एक ओर हिंदु-मुस्लिम सौहार्द और समाज में कौमी एकता का चित्रण है जैसे- “आज भी इस मोहल्ले में बेटी-बहिन की हैसियत मिली हुई थी। लोगों के घर में उसका आना-जाना था। होली-दीवाली में कई घरों से उसके लिए पूआ-पूरी और मिठाई मिलती थी। छठ के पहले इस सड़क की सफ़ाई और सजावट का ज़िम्मा फजलू और साबिर के ऊपर ही रहता।” तो दूसरी तरफ बबलू और चुन्नी के प्रेम संबंध के प्रकरण के माध्यम से साम्प्रदायिक धार्मिक तनाव का चित्रण है। जैसे “आजकल दिन-रात हिंदू-मुसलमान लगा हुआ है, सो हम समझा रहे हैं। हमको तो डर है कि किसी दिन पकड़ा गया बबलुआ तो भारी तूफ़ान मचेगा।”
उपन्यास में ज़ूबी और समद के प्रेम का अलग वर्णन है। समद का मीर की शायरी पर पीएचडी करना, प्रेमी समद की सफलता के लिए ज़ूबी का दरगाह-दरगाह मिन्नतें पूरा करना, अपने पिता द्वारा उसकी जबरन शादी, निकाह के समय उसका निकाह कुबूल न करना और जुझलाए पिता द्वारा पुत्री की हत्या और इस कथा की परिणति समद का समदू फ़कीर बन जाना जैसे एक आह की तरह उपन्यास में चलता रहा। उपन्यास में मनुष्य की उलझनें दुःख और फैंटसी को दृष्यों के माध्यम से उकेरा गया है। रसीदन अपने मृत नाना से बहुत प्रेम करती है। मृत फ़कीर नाना बार-बार संकट के समय उसके स्वप्न में आते हैं और वह उनसे बात करने लगती है। समदू फ़कीर का प्रेम को लेकर जो नजरिया है वो बेहद मानवीय और व्यवहारिक भी है जो रसीदन सहित चुन्नी की जिंदगी पर भी प्रभाव डालता।
समय बदलता है उसके मूल्य बदलते हैं लेकिन स्त्री का जीवन पीढ़ी दर पीढ़ी उसी तरह के संघर्ष के नये अर्थों में चलता रहता है। उपन्यास में अमीना, रसीदन का जीवन जीने लगती है। रसीदन का फजलू के इलाज में व्यस्त होने के कारण उसका कब्र खोदने और मैय्यत के व्यवस्था तक का काम करने को मजबूर हो जाती है। रसीदन और अमीना के आँखों के सामने फजलू बुरी तरह प्राण त्यागता है और उन दोनों को अपने बेटे-भाई की कब्र खोदनी पड़ती। यह हृदयविदारक त्रासदी स्तब्ध कर देती है। अमीना जिस तरह उपन्यास के अंत में आती है वो प्रेम की त्रासद परिणति भी है। उपन्यास दातापीर को पढ़कर मन जहाँ नम होता है, उदार होता है वहीं एक गहरी रिक्तता-बोध से भी भर जाता है।
उपन्यास को पढ़ते हुए लगातार महसूस होता रहता है कि सदियों से चली आ रही स्त्री की यातना नये-नये पड़ाव पर पहुँचती है और ठगी सी उदास खड़ी रहती है। इस उपन्यास के स्त्री-पात्र अलग-अलग दृश्यों में अलग-अलग लड़ाइयों में बंटे दिखते हैं लेकिन सबकी जमीन एक है रसीदन और अमीना। दो पीढ़ियों के लोग हैं लेकिन दोनों की देह स्त्री की है और ये उनके दुःखों की साम्यता है। यहाँ देह उन्हें एक जगह एक ही यातना के जीवन-धरातल पर खड़ा करती है।