संस्कृतिकिताबें एक देश बारह दुनिया: ‘न्यू इंडिया’ में बसते अनेक अनदेखे भारत

एक देश बारह दुनिया: ‘न्यू इंडिया’ में बसते अनेक अनदेखे भारत

यह एक त्रासदीपूर्ण भारत की छवि को पेश करता दस्तावेज है, जहां एक बड़ी आबादी दो जून की रोटी के लिए अपना पूरा जीवन संघर्ष में बिता देती है तो कुछ प्रतिशत वह आबादी है जो संसाधनों का बड़ा हिस्सा हड़पे हुए हैं।

आज जब मीडिया कॉरपोरेट और सरकार की दलाली और मुनाफ़े और प्रौपगैंडा के लिए खबरें केवल टीआरपी के लिए ही दिखा रहा है, भारत को विश्व गुरु और आगे बढ़ता ‘न्यू इंडिया’ के रूप में प्रचारित कर रहा है। ऐसे में ‘एक देश बारह दुनिया’ के ज़रिये शिरीष खरे एक दूसरे ही भारत को पेश करते हैं। एक ऐसा भारत जिसमें अनेक अनदेखे भारत बसते हैं। साल 2021 में प्रकाशित ‘एक देश बारह दुनिया’ रिपोर्ताज के माध्यम से शिरीष खरे वर्तमान भारत की उस छवि और हाशिये पर धकेल दिए उस वर्ग को चित्रित करते हैं जो उस विकास की तमाम सुविधाओं से वंचित है। यह रिपोर्ताज हिंदी साहित्य में हाशिये के स्वर को शब्द देने में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। शिरीष खरे एक बेहतरीन पत्रकार और लेखक हैं जिन्होंने हाशिये के समाज के साथ हुए शोषण को संवेदनशीलता से प्रस्तुत किया है। उनकी राजस्थान पत्रिका और तहलका में कार्य करते हुए सैंकड़ों रिपोर्ट प्रकाशित हो चुकी हैं।

यह किताब कुल बारह रिपोर्ताज पर आधारित है या कहें बारह क्षेत्रों में छिपी अनेक भारत की दर्दनाक दास्तां सुनाती है। यह कृति 2008 से 2017 तक की लेखक की पत्रकारिता यात्रा के दौरान देश के दुर्गम भूखंडों में होनेवाले दमन चक्र के लेखा-जोखा का दस्तावेजीकरण है। लेखक का कहना है, “जब सांख्यिकी आंकड़ों के विशाल ढेर में छिपे आम भारतीयों के असल चेहरे नज़र नहीं आ रहे हैं तब मैंने ‘एक देश बारह दुनिया’ के सहारे भारत की आत्मा कहेजाने वाले गाँवों के अनुभवों को यहां साझा करने की कोशिश की है। मैंने सपाट सूचनाओं के सहारे विश्वसनीय विवरणों के साथ गहराई में उतरने और लोगों के अनुभवों का दस्तावेज बनाने की कोशिश की है।“

जहां विश्व भर में सत्ता द्वारा प्रचारित तथाकथित विश्वगुरु भारत आज 2022 में ग्लोबल हंगर इंडेक्स में 107वें स्थान पर पहुंच चुका है जो गम्भीर स्थिति को दर्शाता है। ‘वह कल मर गया’ रिपोर्ताज भुखमरी से होती मौतों की उसी त्रासदी को बयां करती है। मेलघाट, चिखलदरा और उसके आसपास के छोटे गांव इन्हीं हालातों को पेश करते हैं, जहां कोरकू जनजाति की परिस्थितियों, गरीबी, भुखमरी, पानी की कमी, बेरोज़गारी, विस्थापन और किसान से मजदूर बनने तक की स्थितियों को देखा जा सकता है। लेखक लिखते हैं, “मैं इस बात से वाकिफ़ था कि भूख किसी के साथ भेदभाव नहीं करती। जानता था कि वह सबका पेट बराबर जलाती है और इस पेट की आग को बुझाने लायक़ जरूरी अनाज सबके हिस्से में नहीं होता।“

यह किताब कुल बारह रिपोर्ताज पर आधारित है या कहें बारह क्षेत्रों में छिपी अनेक भारत की दर्दनाक दास्तां सुनाती है। यह कृति 2008 से 2017 तक की लेखक की पत्रकारिता यात्रा के दौरान देश के दुर्गम भूखंडों में होनेवाले दमन चक्र के लेखा-जोखा का दस्तावेजीकरण है।

1991 में पहली बार यहां भूख से होनेवाली बच्चों की मौत की खबरें सामने आईं। मेलाघाट भारत के सबसे निर्धन अंचलों में से एक है। भूख से होने वाली मौतों का एक कारण जहां गरीबी, बेकारी, सूखा और बाढ़ है तो वहीं सरकारी नीतियों की असफलताएं और नेताओं की उदासीनता भी इसका एक मुख्य कारण रही हैं। इसका उदाहरण हम देख सकते हैं कि यहां गांव में किसी परिवार को आठ-दस महीने से तो किसी परिवार को दो-दो सालों से अनाज नहीं मिला। 1974 में ‘मेलघाट टाइगर रिजर्व’ के बनने के चलते कोरकू जनजाति का जीवन बस विस्थापन और पुनर्वास बनकर रह गया है। सरकारी फरमानों और वन विभाग के चलते यहां के आदिवासियों का जीवनयापन खतरे में है।

वहीं ‘पिंजरेनुमा कोठरियों में जिंदगी’ जिसके अंतर्गत लेखक यौनकर्मियों के जीवन, उनकी समस्याओं को सामने लाने का काम करते हैं। उन्होंने बेला के जरिए बताया है कि किस तरह लड़कियों को धोखाधड़ी से इस यौन व्यापार में धकेला जाता है। कमाठीपुरा को एशिया की सबसे बड़ी सेक्स वर्क एरिया माना जाता है। यहां बेला की तरह न जाने कितनी ही लड़कियों को अलग-अलग देशों विशेषकर विकासशील देशों से लाकर बेच दिया जाता है। लेखक का कहना है कि इन पिंजरेनुमा कोठरियों में हम जैसे ग्राहकों के घुसने के कई दरवाजे हैं, चढ़ने की कई सीढ़ियां हैं। लेकिन, यहां से इन लड़कियों के निकलने के रास्ते आसान नहीं हैं। आज भी न जाने कितनी ही बेला, चम्पा, गोमती, दुर्गा, जया, कुसुम, माधुरी, सुब्बा, जोया, मोनी और नगमा जैसी कई लड़कियां को उनकी गरीबी या मजबूरी का फायदा उठाकर उन्हें इस काम में धकेल दिया जाता है। बेला और गोमती जैसी न जाने कितनी ही लड़कियां हैं जिन्हें बस एक ‘ग्रीन सिग्नल’ का इंतज़ार है। लेकिन, यह रेडलाइट ज़ोन है। यह समाज से सवाल है और लेखक भी यह सवाल करता है कि सेक्स वर्क क्या मात्र नैतिकता, अपराध और स्वास्थ्य के दायरे तक सिमटा है? क्या इसके कारणों में बेकारी, गरीबी और पलायन नहीं है?

साल 2021 में प्रकाशित ‘एक देश बारह दुनिया’ रिपोर्ताज के माध्यम से शिरीष खरे वर्तमान भारत की उस छवि और हाशिए पर धकेल दिए उस वर्ग को चित्रित करते हैं जो उस विकास की तमाम सुविधाओं से वंचित है। यह रिपोर्ताज हिंदी साहित्य में हाशये के स्वर को शब्द देने में महत्वपूर्ण स्थान रखती है।

तिरमली घुमन्तू जनजातियों की परिस्थितियों का विवरण ‘अपने देश में परदेसी’ में दिखाई देती हैं। वे जातियां या जनजातियां जो अपना जीवनयापन खेल-तमाशा दिखाकर बिता रही थीं। तिरमली जनजाति जिन्हें बंजारा भी कहा जाता है जिनका एकमात्र जीविकोपार्जन का साधन नन्दी बैल रहा है, “भारत की जाति-व्यवस्था में तिरमली की तरह कई घुमन्तू समुदाय हैं जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी दूसरों का मनोरंजन करते रहे हैं। बदले में इनके सामने कुछ सिक्के फेंक दिए जाते हैं।” घुमन्तू होने की वजह से वे एक नागरिक होने के प्रमाण नहीं जुटा पाए। इस वजह से न तो उनके पास वोटर कार्ड, आधार कार्ड है और न ही राशन कार्ड जैसी सुविधाएं हैं। इसके कारण उन तक किसी सरकारी योजना का लाभ पहुंच नहीं पाता। लेकिन तिरमली जनजाति की एकजुटता ने अपने हालात में काफ़ी सुधार किए हैं।

सैय्यद मदारी या नट जो अपनी जान की बाजी लगाकर करतब दिखाकर लोगों का मनोरंजन करते रहे हैं। साथ ही अपने दो वक्त की आजीविका भी कमाते रहे हैं। कलाबाजी और स्टंट सैय्यद मदारी का ख़ानदानी पेशा रहा है जो आज मनोरंजन के अत्याधुनिक उपकरणों के आगे फीका पड़ चुका है। फिल्मों में खतरनाक से खतरनाक स्टंट करके भी उनकी अपनी कोई पहचान नहीं है। बॉलीवुड की तमाम फिल्मों में स्टार-सुपरस्टार के ज्यादातर स्टंट ये सैय्यद मदारी ही करते हैं लेकिन इन्हें न आज तक पहचान मिली और न ही शोहरत। “दो हाथों से मोटरसाइकिल खींचने वाले दारासिंह को बच्चा-बच्चा जानता है, पर एक हाथ से मोटरसाइकिल रोकने वाले सैय्यद मदारी को कोई नहीं है।” महाराष्ट्र के आष्टी के सैय्यद मदारियों ने न जाने कितने ही अभिनेताओं को दुनियाभर में चमका दिया लेकिन यहां ‘कोई सितारा नहीं चमकता’।

दो जून की रोटी के लिए हाड़-तोड़ मेहनत करते गन्ना मजदूर जिनकी मेहनत का उन्हें आधा भी हिस्सा नहीं मिलता। गन्ना मजदूर अपनी पूरी ज़िंदगी बस दो वक़्त की रोटी के संघर्ष में ही गुजार देते हैं-“असल में रोटी की गोलाई देश की सीमाओं से परे है और मजूरी यहां की सबसे बड़ी देशभक्ति है।“ जिन गन्ना मजदूरों की मेहनत से दुनिया भर में मिठास पहुंचती है उन्हीं का अपना जीवन ‘गन्नों के खेतों में चीनी कड़वी’ जैसा होकर रह गया है। गन्ना मजदूरों से लेकर भट्टा मजदूर,सड़कों पर पत्थर तोड़ते मनरेगा मजदूरों से लेकर जान जोख़िम में डालकर गहरे नालों में उतरते सफाई कर्मचारियों तक, किसी को भी उनकी मजदूरी का श्रम उनकी मेहनत का आधा भी नहीं मिलता।

समाज के जातीय पूर्वाग्रह से खत्म होते अपने अस्तित्व को बचाने का संघर्ष पारधी जनजाति निरंतर कर रहे हैं। अपने ही देश में कई पीढ़ियों से रह रही जनजातियों को पूर्वाग्रह से ग्रस्त समाज अपराधी की दृष्टि से देखता रहा है भले ही वे पहले वे लोग रहे हो जिन्होंने देश की आज़ादी की लड़ाई शुरू की, सूरज को तोड़ने जाना है’ रिपोर्ताज पारधी जनजाति के प्रति इसी जातीय पूर्वाग्रह को व्यक्त करता है जो आज तक नहीं बदला।

यह रिपोर्ताज उन तमाम सरकार और कॉरपोरेट की मिलीभगत षड्यंत्र का पर्दाफाश करती है जहां कभी बांध बनाने के नाम पर, कभी वन सरंक्षण, कभी वाइल्ड लाइफ सेंचुरी तो कभी मनोरंजन या सरकारी संस्थान बनाने के नाम पर स्थानीय आदिवासियों को विस्थापन का पीड़ादायी और संघर्षपूर्ण जीवन जीने के लिए छोड़ दिया जाता है। विकास और बांध के नाम पर वे न जाने नर्मदा जैसी कितनी ही नदियों को मैदान बनाते रहेंगे। हमें मालूम है कि वह सुबह होने में देर है जहां स्त्रियां अपने साथ हुए शोषण के खिलाफ लड़ें और समाज उनका साथ दे बजाय उन तथाकथित उच्च जाति के अहंकार में चूर अपराधियों का।

यह दस्तावेज पाठक के मस्तिष्क में केवल अनगिनत प्रश्न ही छोड़ जाता है। क्या साल 2022 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा सेक्स वर्क को पेशे के रूप में स्वीकृत करने के बावजूद समाज उन्हें स्वीकार करेगा कि महिलाएं इस क्षेत्र को पेशे के रूप में चुन सकती हैं। कब तक विकास के नाम पर और कुछ पूंजीपतियों की झोली भरने के लिए उन पिछड़े और गरीब आदिवासियों को अपने जल-जंगल-जमीन से बेदखल कर दिया जाता रहेगा? कब तक विस्थापन व पुनर्वास के बीच उनका जीवन झूलता रहेगा?

ये जो भूख के लिए संघर्ष और अधिक से अधिक भोग के लिए हड़पने की नीति है इसका अंतर कभी मिट सकेगा? वे तमाम जनजातियां जिन्हें जातीय पूर्वाग्रह के कारण अपराधी की दृष्टि से देखा जाता रहा है या ऑपरेशन ग्रीन हंट के नाम पर फर्जी मुठभेड़ में मार दिया जाता रहा है क्या उनके साथ न्याय हो सकेगा? यह एक त्रासदीपूर्ण भारत की छवि को पेश करता दस्तावेज है, जहां एक बड़ी आबादी दो जून की रोटी के लिए अपना पूरा जीवन संघर्ष में बिता देती है तो कुछ प्रतिशत वह आबादी है जो संसाधनों का बड़ा हिस्सा हड़पे हुए हैं।


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