एनर्टैन्मन्ट की दुनिया से और इस दुनिया में काम कर रहे लोगों से आम तौर पर जनता सिर्फ एनर्टैन्मन्ट की ही उम्मीद रखती है। वहीं इस दुनिया में काम कर रहे लोग अक्सर मनोरंजन के नाम पर सामाजिक जिम्मेदारी से भागते हैं। फिल्मों और धारावाहिकों में मनोरंजन का मतलब ये बिल्कुल नहीं है कि हम इसमें असंवेदनशील और लैंगिक और सामाजिक असमानताओं को बढ़ावा देने वाले बातों को और पुख्ता करते चले जाएंगे। एक फिल्म भले ऐडल्ट या यूनिवर्सल कैटेगरी के अंतर्गत हो, लेकिन फिल्में और धारावाहिक अक्सर हाशिये पर रह रहे लोगों के चित्रण में चूक जाती है। वहीं ये कई लोगों के, जैसे विकलांग लोगों का सही तरीके से प्रतिनिधित्व भी नहीं कर पाती।
विकलांग लोगों के प्रति अनायास ही दया, चिंता या अत्यधिक ममता का भाव शायद बॉलीवुड का ही देन है। एक मिनट के लिए किसी विकलांग व्यक्ति की कल्पना कीजिए। अगर आपके आस-पास कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है, तो संभव है कि आपको सबसे पहले तुषार कपूर और गोलमाल याद आएगा जहां उनका न बोल पाना ही फिल्म में कॉमेडी के लिए इस्तेमाल किया गया है। वहीं धारावाहिक का सोचें तो अंतरा के अलावा शायद कुछ भी याद न आए। यानि हमारे सामने मौजूद होते हुए भी, इसी समाज का के बावजूद, ये इतने अदृश्य हैं कि न मनोरंजन की दुनिया इनका ट्रोप की तरह इस्तेमाल करने से चूकती है और न सरकार इनके प्रति संवेदनशील दिखाई पड़ता है।
एक सबसे बड़ी चुनौती ये है कि फिल्मों में विकलांग अभिनेताओं को नहीं लिया जाता। यहां ऐक्सेसबिलिटी यानि सुगम्यता न होने की बहुत बड़ी रुकावट है। हमें फ़िल्म सेट्स को विकलांग व्यक्तियों के लिए सुगम्य बनाना होगा। साथ ही अगर फिल्मों को विकलांग लोगों के लिए समावेशी बनाना है, तो फिल्मों में विकलांग अभिनेता ही नहीं, उनका कैमरा के पीछे होना भी बहुत जरूरी है।
पर्दे के आगे ही नहीं पर्दे के पीछे विकलांग लोगों का होना जरूरी
अक्सर जब विकलांग लोगों को फिल्मों में या पर्दे के पीछे अवसर देने या अपनाने की बात आती है, तो बॉलीवुड झिझकता हुआ नजर आता है। फिल्मों में विकलांगता का समावेश का मतलब ये नहीं कि सिर्फ आर्ट फिल्में या उबाऊ बनाई जाए। साथ ही यह जरूरी है कि सारी फिल्मों तक विकलांग लोगों की पहुँच हो। यानि न सिर्फ सिनेमा घरों को विकलांग लोगों के सुविधानुसार बनाया जाना चाहिए, बल्कि इन फिल्मों को ऐसे लोगों के लिए ऐक्सेसबल बनाना चाहिए जो बोल या सुन नहीं सकते। फिल्मों में विकलांगता को दिखाए जाने और फिल्मों को विकलांग लोगों के लिए समावेशी बनाने के मुद्दे पर प्रोडकशन कंपनी ‘मच मच मीडिया’ और ‘मच मच स्पेक्ट्रम’ की संस्थापक अदिति गंगराडे कहती हैं, “एक सबसे बड़ी चुनौती ये है कि फिल्मों में विकलांग अभिनेताओं को नहीं लिया जाता। यहां ऐक्सेसबिलिटी यानि सुगम्यता न होने की बहुत बड़ी रुकावट है।”
वह आगे बताती हैं, “हमें फ़िल्म सेट्स को विकलांग व्यक्तियों के लिए सुगम्य बनाना होगा। साथ ही अगर फिल्मों को विकलांग लोगों के लिए समावेशी बनाना है, तो फिल्मों में विकलांग अभिनेता ही नहीं, उनका कैमरा के पीछे होना भी बहुत जरूरी है। जिन विकलांग लोगों पर बनी फ़िल्में हम देखते हैं, वो न तो विकलांग लोगों द्वारा लिखी होती हैं न ही विकलांग लोगों की निर्देशित होती हैं। इसलिए, फ़िल्मों में ऑटिस्टिक या विकलांग लोगों का दृष्टिकोण दिखाई नहीं देता और विकलांगों पर बनी फिल्मों में उन्हें ट्रोप की तरह इस्तेमाल किया जाता है।” अदिति एक ऑटिस्टिक एडीएचडी लेखक और निर्देशक हैं और अपने फ़िल्मों और डिजिटल कंटेंट के ज़रिए फ़िल्मी दुनिया में ये बदलाव लाने की कोशिश कर रही हैं।
ऐसी फिल्में बनाने से पहले विकलांग लोगों से परामर्श लें, फिल्म लेखन और निर्देशन में उन्हें शामिल करते हैं। आज भारत में इंटीमेट कोच की पहल शुरू हो चुकी है तो डिसेबिलिटी कोच क्यों नहीं हो सकते।
क्या बॉलीवुड विश्व सिनेमा से प्रेरणा ले सकता है
अगर वर्ल्ड सिनेमा की बात करें, तो दुनिया भर में हमें ऐसी फिल्में भी मिलते हैं, जहां सफल और संवेदनशील तरीके से विकलांगता का चित्रण किया गया है। जहां मूल रूप से भारतीय सिनेमा विकलांगता को ट्रोप की तरह इस्तेमाल करता आया है, वहीं दुनिया भर में आज विकलांगता पर विभिन्न प्रकार की सिनेमा बन रही है। इन फिल्मों के कहानियों में किरदारों की विशेषता विकलांगता नहीं है। न ही दया और सहानुभूति के बाल पर कहानी चलती है। इस विषय पर अदिति कहती हैं, “भारत में अच्छी फ़िल्मों के उदाहरण भी हैं, जैसे मॉर्ग्हरीटा विथ ए स्ट्रॉ, तारे ज़मीन पर (सीक्वल), इत्यादि।”
वह आगे बताती हैं, “इन फ़िल्मों में विकलांग व्यक्तियों को फ़िल्म बनाते वक्त शामिल किया गया है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कृप क्रैम्प, हार्ट्ब्रैक हाई, ऑल द लाइट वी कॅननोट सी जैसी अनेक फिल्मों में विकलांग लोगों ने विकलांग व्यक्ति के किरदार निभाए और विकलांग निर्देशक ने फिल्में बनाई है। भारतीय सिनेमा ऐसी फिल्मों से प्रेरणा ले सकते हैं। ऐसी फिल्में बनाने से पहले विकलांग लोगों से परामर्श लें, फिल्म लेखन और निर्देशन में उन्हें शामिल करते हैं। आज भारत में इंटीमेट कोच की पहल शुरू हो चुकी है तो डिसेबिलिटी कोच क्यों नहीं हो सकते।”
आज विकलांग लोग फिल्मों में अदृश्य हैं। इसलिए, अचानक ही फिल्मों में उन्हें शामिल कर जनता से यह उम्मीद करना कि वे उन फिल्मों को अपनाए और पसंद करे, चुनौतीपूर्ण हो सकता है। इसलिए, इसकी शुरुआत हम विज्ञापनों में उन्हें शामिल करके कर सकते हैं।
विकलांगता को फिल्मों में कैसे शामिल करें
विकलांगता को किस तरह फिल्मों और कहानियों में शामिल किया जा सकता है, जो आम जनता तक पहुंचे, यह एक अहम विषय है। इस विषय पर क्रॉस द हर्डल्स की संस्थापक और विकलांगता अधिकार कार्यकर्ता आभा खेत्रपाल बताती हैं, “आज विकलांग लोग फिल्मों में अदृश्य हैं। इसलिए, अचानक ही फिल्मों में उन्हें शामिल कर जनता से यह उम्मीद करना कि वे उन फिल्मों को अपनाए और पसंद करे, चुनौतीपूर्ण हो सकता है। इसलिए, इसकी शुरुआत हम विज्ञापनों में उन्हें शामिल करके कर सकते हैं।”
असल में विकलांगता पर हम ऐसे हजारों मुद्दे को चुन सकते हैं जो संवेदनशील और जरूरी हैं। विकलांगता पर मजाकिया या अपमानजनक फिल्म बनाने से बेहतर है कि उनकी चुनौतियों या समस्याओं की बात कही जाए। 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में कुल आबादी का 2.21 प्रतिशत हिस्सा ‘विकलांग’ के रूप में चिह्नित किया गया है, जिनमें से 19 प्रतिशत आंखों से देख नहीं पाते और बाकी 19 प्रतिशत सुन नहीं सकते। विकलांगता को फिल्मों और कहानियों में दिखाए जाने की बात पर आभा कहती हैं, “मेनस्ट्रीम फिल्में बनाई जानी चाहिए जिनमें ऐक्सेसबिलिटी जैसे समस्याओं को दिखाया जा सकता है।”
फिल्मों में सिर्फ विकलांग लोगों का समावेश ही नहीं, फिल्मों को सुगम्य बनाए जाने की जरूरत है ताकि यह विकलांग लोगों तक पहुँच सके। इन चीजों का खर्च बहुत बड़ा मुद्दा नहीं है। यह कुछ हद तक एबेलिस्म से जुड़ी मानसिकता है जहां विकलांग लोगों के बारे में सोचा नहीं जाता।
सिनेमाघरों को सुलभ बनाने की बात
फिल्मों की बात करें, तो सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने न सुन पाने और न देख पाने वाले व्यक्तियों के लिए सिनेमा थिएटरों में फीचर फिल्मों की सार्वजनिक प्रदर्शनी में सुगम्यता मानक जारी किए थे। ये दिशानिर्देश उन फीचर फिल्मों के लिए लागू हैं, जो व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए सिनेमा हॉल यानि मूवी थिएटरों में सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सीबीएफसी) द्वारा प्रमाणित होंगे। इन दिशानिर्देशों का ध्यान न केवल कंटेन्ट पर है, बल्कि विकलांग व्यक्तियों को सिनेमा थिएटरों में फिल्मों का आनंद लेने के लिए आवश्यक जानकारी और सहायक उपकरणों पर भी है।
फिल्मों में विकलांग लोगों के समावेश पर खर्च के मामले पर अदिति बताती हैं, “फिल्मों में सिर्फ विकलांग लोगों का समावेश ही नहीं, फिल्मों को सुगम्य बनाए जाने की जरूरत है ताकि यह विकलांग लोगों तक पहुँच सके। इन चीजों का खर्च बहुत बड़ा मुद्दा नहीं है। यह कुछ हद तक एबेलिस्म से जुड़ी मानसिकता है जहां विकलांग लोगों के बारे में सोचा नहीं जाता।”
कमर्शियल फिल्मों में विकलांगता का समावेश कैसे करें
फिल्मों में विकलांग लोगों के समावेश के बाद इन्हें कमर्शियल बनाए रखने की बात पर वह बताती हैं, “तारे जमीन पर फिल्म का सीक्वल ‘सितारे ज़मीन पर’ आ रहा है जहां विकलांग अभिनेताओं को भी लिया है जो फिल्म में ऐक्टिंग करेंगे। हम कमर्शियल दृष्टिकोण से शुरुआती दौर में विकलांग अभिनेताओं को किसी स्टार के साथ एक साथ ले सकते हैं। विकलांग व्यक्ति भी ऐक्टिंग या फिल्मों से जुड़ा काम कर सकते हैं।” वहीं इस विषय पर आभा कहती हैं, “फिल्म में क्रू और बाकी लोगों की ट्रैनिंग होनी चाहिए। विकलांग ऐक्टरों को भी मौका देना चाहिए। साथ ही, हम इसकी शुरुआत बायोपिक से कर सकते हैं।”
फिल्म में क्रू और बाकी लोगों की ट्रैनिंग होनी चाहिए। विकलांग ऐक्टरों को भी मौका देना चाहिए। साथ ही, हम इसकी शुरुआत बायोपिक से कर सकते हैं।
जरूरी है कि हम विकलांग लोगों को फिल्म बनाने के हर विभाग में शामिल करें। फिल्मों का ऐक्सेसबल होने में समय लग सकता है लेकिन हमें डिसबिलिटी आफिरमिंग नजरिए की जरूरत है। वहीं विकलांगता पर बनी समस्याजनक फिल्मों को सेन्सर बोर्ड पर रोके या बदलाव लाने की बात पर अदिति कहती हैं, “हम सेंसर बोर्ड में भी विकलांग लोगों को नियुक्त कर सकते हैं ताकि पॉलिसी लेवल पर बदलाव हो। ये सिर्फ विकलांगता की बात नहीं है, औरतों, जाति, और वर्ग के मामले में भी हमें बेहतर प्रतिनिधित्व की जरूरत है।”
विकलांग व्यक्तियों को देखा जाए तो सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समूह है, जिन्हें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्तर पर हाशिए पर जीने के लिए मजबूर कर दिया गया है। हर विकलांग व्यक्ति की समस्या अलग है। हर किसी का अनुभव भी अलग होता है। जैसे, किसी की आंखों की रोशनी की समस्या जन्मगत हो सकती है, वहीं किन्हीं की उम्र के किसी पड़ाव पर हो सकती है। इसलिए, जो व्यक्ति बचपन से ऐसी विकलांगता का सामना कर रहे हैं, संभव है कि वे हालात और अपने आस-पास के साथ ज्यादा अभ्यस्त हो चुके हो। वहीं ये ध्यान देने वाली बात है कि एक उम्र के बाद शारीरिक कारणों से हम सब आंशिक रूप से विकलांगता का सामना करते हैं। लोग किस हदतक और कब विकलांग हुए इसपर ध्यान देने के बजाय हमें खुद में बदलाव की जरूरत है।