बीते 26 जनवरी को एक सरकारी विद्यालय में चल रहे कार्यक्रम के दौरान हुई झड़प का वीडियो ट्विटर पर अचानक वायरल हो जाता है। इस वीडियो में एक सरकारी स्कूल की अध्यापिका दिखती हैं जो महात्मा गांधी, सावित्रीबाई फूले और बाबा साहेब आंबेडकर पर फूल माला अर्पित कर रही थी। लेकिन ‘विद्या की देवी’ कही जाती देवी सरस्वती की तस्वीर पर माला अर्पण जैसा कुछ नहीं दिखता है। विद्यालय प्रांगण में मौजूद ग्रामीण अभिभावक, आम लोग इस बात से भड़क जाते हैं और शिक्षिका पर हिंदू धर्म का अपमान, धार्मिक भावनाओं को आहत करने का आरोप लगाया जाता है। वीडियो में एक व्यक्ति कहता हुआ सुनाई देता है कि बच्चों की देवी तो सरस्वती हैं। इसके जवाब में शिक्षिका कहती हैं कि बच्चों की देवी तो सावित्रीबाई फुले हैं। अगर सावित्रीबाई फुले के भारत में शिक्षा जगत में इतिहास को देखें, तो यह बात गलत नहीं है। शिक्षिका अपनी जगह सही हैं। लेकिन बहुसंख्यवाद के नज़रिए से वे गलत साबित की जाती हैं।
क्या है पूरा मामला?
यह वीडियो थी राजस्थान के बारां जिले की किशनगंज पंचायत समिति के राजकीय उच्च प्राथमिक विद्यालय की। जिन शिक्षिका पर ये आरोप लगाए हैं, उनका नाम है हेमलता बैरवा। हेमलता की उम्र लगभग चालीस वर्ष है और वे दलित समाज से ताल्लुक रखती हैं। 23 फरवरी को महज़ इतनी सी बात के बाद उन्हें नौकरी से निलंबित कर दिया गया था। 22 फरवरी को राजस्थान सरकार के शिक्षा मंत्री मदन दिलावर ने बारां जिले के किशनगंज क्षेत्र में एक रैली को संबोधित करते हुए कहा था कि कुछ लोग खुद को इतना महत्व देते हैं कि उनके काम करने का तरीका अभी खत्म नहीं हुई है और वे पूछते हैं कि स्कूल में देवी सरस्वती का क्या योगदान है। उन्होंने आगे यह भी कहा कि जिसने भी इस क्षेत्र में ऐसा कहा है, मैं उसे निलंबित करता हूं। 22 फरवरी को शिक्षा मंत्री ने जनगण की खुशी में यह फैसला सुनाया और 23 फरवरी को हेमलता बैरवा निलंबित कर दी गई।
क्या सावित्रीबाई फूले को माना जाना अपराध है
26 जनवरी के पूरे वाकया को याद करते हुए, हेमलता ने द मूकनायक को बताया कि गणतंत्र दिवस पर, एक सरकारी कर्मचारी के रूप में, मैं भारत के पवित्र संविधान के कार्यान्वयन की 75वीं वर्षगांठ मनाने के लिए अपने आधिकारिक कर्तव्यों का पालन कर रही थी। मेरे दो साथी शिक्षक, हंसराज सैन और भूपेन्द्र सैन ने शुरू में मुझ पर सरस्वती पूजा करने का दबाव डाला था। मेरे द्वारा अनुपालन करने से इनकार करने के बाद वे चले गए क्योंकि यह संवैधानिक रूप से अनिवार्य नहीं है। लेकिन वे कुछ समय बाद ग्रामीणों के एक समूह के साथ लौटे और मुझे परेशान करना शुरू कर दिया। उन्होंने जातिसूचक गालियां दीं क्योंकि मैं अनुसूचित जाति से हूं। अपने निलंबन को लेकर वह कहती हैं कि मुझे निलंबित कर दिया गया और बीकानेर में रिपोर्ट करने को कहा गया, जो मेरे घर से 600 किलोमीटर दूर है।
लेकिन हेमलता ने बताया कि वे इस अन्याय को बर्दाश्त नहीं करेंगी। शिक्षा मंत्री के खुलेआम दिए गए बयान पर उन्होंने आपत्ति जताई है। विभिन्न दलित संगठनों ने हेमलता बैरवा के लिए समर्थन दिखाए हैं। बहुजन समाज पार्टी के लोग भी जिला कार्यालय पर बैरवा को बहाल करने के आदेश जारी करने के लिए धरने पर बैठे और बसपा के प्रदेश अध्यक्ष ने कहा कि पार्टी दलित समाज के खिलाफ कथित तौर पर अभद्र भाषा का इस्तेमाल करने के लिए शिक्षा मंत्री को हटाने की मांग करता है। इसके लिए उन्होंने सभी जिला कलेक्टरों को, राज्यपाल कलराज मिश्र को संबोधित ज्ञापन भी सौंपा है।
किस बुनियाद पर हुआ निलंबन
भारतीय संविधान अनुच्छेद 25 के अनुसार सभी नागरिकों को अंतरात्मा की स्वतंत्रता, धर्म को मानने, आचरण करने और प्रचार करने की स्वतंत्रता की गारंटी देता है। लेकिन अपने धर्म को अन्य व्यक्ति पर उसकी इच्छा के खिलाफ़ थोपने का अधिकार नहीं देता है। लेकिन सवाल यह भी है कि क्या किसी सरकारी विद्यालय में धार्मिक कृत्य को अंजाम देना संवैधानिक है? अनुच्छेद 28, कुछ शैक्षणिक संस्थानों में धार्मिक शिक्षा या धार्मिक पूजा में उपस्थिति के संबंध में स्वतंत्रता के बारे में है जिसका क्लॉज (1) कहता है कि पूरी तरह से राज्य निधि से संचालित किसी भी शैक्षणिक संस्थान में कोई धार्मिक शिक्षा प्रदान नहीं की जाएगी।
इन अनुच्छेदों का महत्व यह है कि वे शैक्षणिक संस्थाएं जो पूर्ण रूप से सरकारी सहायता से चलती हैं, वे धर्मनिरपेक्ष बनी रहें। किसी भी तरह की धार्मिक गतिविधि या आदेश जारी न हो या किसी पर कोई दबाव न बनाई जाए। साफ़ है कि हेमलता बैरवा ने जो भी किया वह किसी भी रूप से असंवैधानिक नहीं है। ना ही व्यक्तिगत तौर पर और ना ही सरकारी शिक्षिका के तौर पर।
मामले पर क्या कह रहा है दलित समाज?
हेमलता बैरवा के वीडियो को हाशिए पर रहे समुदायों के लोगों ने खूब सराहा और उनकी आंबेडकर और फूले के प्रति विचारधारा का खूब समर्थन किया है। यूट्यूबर मुकेश मोहन इस संदर्भ में एक्स पर लिखते हैं, “जिनकी भावनाएं आहत हो रही है, वे अपनी भावनाओं पर लोहे की मोटी चादर चढ़ा लें क्योंकि वंचित वर्गों के जो लोग अब सिस्टम में जा रहे हैं। वो तुम्हारी भावनाओं पर प्रहार करने से चूकेंगे नहीं।” दिल्ली कैबिनेट में रहे पूर्व मंत्री राजेंद्र पाल गौतम ने लिखा, “आप चिन्ता न करें पूरा भारत आपके साथ है। आपके जज्बे को सलाम हेमलता बैरवा जी! भारत की पहली महिला शिक्षिका के सम्मान के लिए आपने सब कुछ दांव पर लगा दिया! जब तक आप जैसी मजबूत इरादों वाली बहने हैं, भीम शेरनियाँ हैं तबतक भारत के संविधान व आजादी को कोई खतरा नहीं! जय भीम!” इस विषय पर मांट, मथुरा के शिक्षक, महिपाल (बदला हुआ नाम) कहते हैं, “हेमलता जी कहीं गलत नहीं हैं। लेकिन सवर्ण लोग इस बात को पचा नहीं पा रहे हैं कि जिन्हें शिक्षा से वर्षों तक दूर रखा गया, वे शिक्षा पाने पर उनकी कही नहीं कर रहे हैं बल्कि वह कर रहे हैं जो संवैधानिक रूप से सही है।”
भेदभाव की अलग-अलग घटनाएं
हेमलता बैरवा जैसा ही मामला मुंबई उच्च न्यायालय में आया था। इसमें एक अंग्रेजी अध्यापक, संजय साल्वे, जो दलित बौद्ध हैं, को इसीलिए प्रताड़ित किया जा रहा था क्योंकि वह विद्यालय की प्रार्थना में हाथ नहीं जोड़ रहे थे। न्यायमूर्ति अभय ओक और रेवती मोहिते ढेरे की बेंच ने इस मामले में पूछा था कि आखिर राज्य द्वारा समर्थित स्कूल में प्रार्थना के वक्त हाथ न जोड़ने को अनुशासनहीनता कैसे कहा जा सकता है? ऐसे तमाम मामले देश में आए दिन हो रहे हैं। अधिकतर याचिकाकर्ता, वंचित समुदायों से ताल्लुक रखते हैं।
इस देश में वंचित समुदायों के अधिकारों की रक्षा संविधान ही कर सकता है। अगर ऐसा ना हो तो तत्कालीन समय में बहुसंख्यवाद की धार्मिक राजनीति से ही चल रहे लोगों की आस्था और धर्म की जगह बचेगी जहां सिवाय उत्पीड़न के कुछ नहीं है। लेकिन संविधान को बार-बार ताक पर रखा जा रहा है और हाशिए के समुदायों के लोगों का जीना, अधिकारों का हनन हो रहा है जो कानूनन रूप से गलत भी नहीं हैं। हेमलता बैरवा, संजय साल्वे जैसे लोगों ने यह उत्पीड़न झेला है और इस वक्त भी कहीं न कहीं झेल ही रहे हैं।
कैसे होगा बदलाव
शैक्षिक संस्थानों से न सिर्फ उच्च शिक्षा बल्कि जीवन के आगे के वर्षों के लिए उम्मीद बनती है। शिक्षक और शैक्षिक संस्थान किसी विद्यार्थी के लिए वरदान साबित हो सकता है अगर भेदभाव से परे हो। दुर्भाग्य से भारत में आज भी शैक्षिक संस्थानों में जातिगत भेदभाव होती है। 4 दिसंबर 2023 को लोकसभा में एक प्रतिक्रिया के अनुसार, पिछले पांच वर्षों में 13,500 से अधिक एससी, एसटी और ओबीसी छात्रों ने केंद्रीय विश्वविद्यालयों, आईआईटी और आईआईएम में पाठ्यक्रम छोड़ दिया है। वहीं क्विन्ट में छपी एक खबर अनुसार आरटीआई के तहत पाई गई जानकारी के तहत आईआईटी कोटा ने संकाय और पीएचडी स्तर पर एससी, एसटी और ओबीसी को सीटें देने से इनकार किया है। सामाजिक व्यवस्था में बदलाव मुमकिन है। लेकिन उसके लिए कानूनी व्यवस्था को कड़ाई से पालन करने की जरूरत है। साथ ही लोगों के दिमागों, विचारों में भी संवैधानिक नैतिकता के मूल्यों का वास होना चाहिए। बरहाल देखना यह होगा कि हेमलता बैरवा को कानूनी व्यवस्था निराश करती है या उनकी गरिमा बनाए रखती है।