समाजकानून और नीति करौली की घटना और सवाल न्यायपालिका में लैंगिक समानता का

करौली की घटना और सवाल न्यायपालिका में लैंगिक समानता का

यह घटना न केवल यौन हिंसा सर्वाइवर व्यक्तियों के प्रति संस्थागत पूर्वाग्रह और संवेदनशीलता की कमी को उजागर करती है, बल्कि हाशिए पर रहने वाले समुदायों, विशेषकर दलित महिलाओं के सामने आने वाली चुनौतियों के बारे में भी गंभीर सवाल उठाती है।

राजस्थान के करौली में 18 वर्षीय गैग रेप सर्वाइवर ने 30 मार्च, 2024 को पुलिस थाने में शिकायत दर्ज कराई, जिसमें आरोप लगाया गया कि हिंडौन सिटी में मुंसिफ कोर्ट के एक मजिस्ट्रेट ने उसे बिना किसी महिला कर्मचारी की उपस्थिति के चोटें देखने के लिए कपड़े उतारने को कहा। सर्वाइवर ने कहा भी कि मैं आपके सामने यह करने में सहज नहीं हूं। इसके बावजूद जज ने कहा कि उन्हें शरीर पर चोट के निशान देखने हैं। हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित ख़बर के अनुसार 30 मार्च को अदालत में अपना बयान दर्ज कराने के बाद, महिला ने मजिस्ट्रेट के खिलाफ़ उसकी गरिमा को ठेस पहुंचाने की शिकायत दर्ज कराई। कोतवाली पुलिस स्टेशन में मजिस्ट्रेट पर भारतीय दंड संहिता की धारा 345 और एससी/एसटी अधिनियम के तहत मामला दर्ज किया गया था। पुलिस के अनुसार, महिला के साथ 19 मार्च को कथित तौर पर बलात्कार किया गया था और मामले के संबंध में 27 मार्च को हिंडौन सदर पुलिस स्टेशन में एक एफआईआर दर्ज की गई थी।

भारत में महिलाओं के लिए लैंगिक समानता और न्याय पाने का संघर्ष शुरू से कठिन रहा है, जिसमें अनेक मुश्किलें और असफलताएं आती रही हैं। हाल की घटनाओं, विशेषकर न्यायपालिका से जुड़ी घटनाओं ने नारीवादी आंदोलन के भीतर आक्रोश की भावना को फिर से जगा दिया है। अदालतों में जजों द्वारा प्रदर्शित पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण और असंवेदनशील टिप्पणियां न केवल निष्पक्षता और निष्पक्षता के सिद्धांतों को पर सवाल उठाती है बल्कि सामाजिक संरचनाओं में व्याप्त गहरी जड़ें जमा चुकी स्त्री-घृणा के बारे में भी बताती है।

कोतवाली पुलिस स्टेशन में मजिस्ट्रेट पर भारतीय दंड संहिता की धारा 345 और एससी/एसटी अधिनियम के तहत मामला दर्ज किया गया था। पुलिस के अनुसार, महिला के साथ 19 मार्च को कथित तौर पर बलात्कार किया गया था और मामले के संबंध में 27 मार्च को हिंडौन सदर पुलिस स्टेशन में एक एफआईआर दर्ज की गई थी।

करौली की भयावह घटना उस अमानवीय व्यवहार के बारे में बताती है, जहां बलात्कार सर्वाइवर को उनकी सुरक्षा के लिए बनाई गई न्यायिक व्यवस्था के भीतर ही सामना करना पड़ता है। यह घटना न केवल यौन हिंसा सर्वाइवर व्यक्तियों के प्रति संस्थागत पूर्वाग्रह और संवेदनशीलता की कमी को उजागर करती है, बल्कि हाशिए पर रहने वाले समुदायों, विशेषकर दलित महिलाओं के सामने आने वाली चुनौतियों के बारे में भी गंभीर सवाल उठाती है। एक दलित महिला द्वारा किसी पुरुष अधिकारी के सामने कपड़े उतारने की मांग करना उसकी गरिमा और मानवाधिकार का घोर उल्लंघन है। यह उसी शक्ति संतुलन मानसिकता का हिस्सा है जिसने ऐतिहासिक रूप से दलित समुदायों को अधीनस्थ करने का प्रयास किया है।

न्यायपालिका में महिलाओं का कम प्रतिनिधित्व

न्यायपालिका के भीतर लिंग विविधता की कमी ही पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण और लैंगिक आधार पर होने वाले पूर्वाग्रहों के बने रहने का एक महत्वपूर्ण कारक है। वर्ल्ड इकनोमिक फोरम के अनुसार, पूरे दक्षिण एशिया में महिला जजों की संख्या 10 फीसद से भी कम है। भारत में, उच्च न्यायालयों में केवल 13 फीसद महिला न्यायाधीशों का होना बताता है कि न्यायपालिका में महिलाओं को प्रतिनिधित्व चिंताजनक रूप से कम है। ऐसे में न्यायपालिका जिस आबादी की सेवा में है, उस के अनुभवों को समझने में लगभग असमर्थ हो जाती है। न्यायपालिका में महिलाओं के प्रतिनिधित्व न होने के दूरगामी परिणाम घातक होते हैं। यौन हिंसा का सामना कर चुकी महिलाएं अक्सर पुरुषों से घिरी न्यायिक प्रणाली का सामना होने पर कानूनी सहारा लेने से झिझकती हैं।

महिला न्यायाधीशों की उपस्थिति में वे तुलनात्मक रूप से सहज रह पाती है, जिससे सर्वाइवर का आत्मविश्वास बढ़ता है और वे कानूनी प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में सहयोग कर पाती है। महिला न्यायाधीशों ने ऐतिहासिक तौर पर प्रगतिशील कानूनों को आगे बढ़ाने और स्थापित पितृसत्तात्मक मानदंडों को चुनौती देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। महिला न्यायाधीशों द्वारा लैंगिक हिंसा के प्रति आपराधिक न्याय प्रणाली की प्रतिक्रिया पर पड़ने वाले परिवर्तनकारी प्रभाव का उदाहरण है।

पितृसत्तात्मक पूर्वाग्रह को खत्म करने की आवश्यकता

तस्वीर साभारः फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बनर्जी।

भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश बोबडे ने बेहद अपमानजनक टिप्पणी की थी। द वॉयर में प्रकाशित ख़बर के जस्टिस बोबडे ने एक फैसले में कहा था कि एक नाबालिग लड़की का बलात्कारी जमानत पाने के लिए अपनी सर्वाइवर से शादी कर सकता है। ये घटनाएं महज अलग-अलग घटनाएं नहीं बल्कि भारतीय न्यायपालिका के भीतर व्याप्त पितृसत्तात्मक पूर्वाग्रहों और स्त्री-द्वेषी रवैये को साफ दिखाता है। ठीक इसी तरह विरोध प्रदर्शनों में भाग लेने वाली महिला किसानों के बारे में पूर्व मुख्य न्यायाधीश की घृणित टिप्पणियों से लेकर कर्नाटक उच्च न्यायालय के बयान लैंगिक संवेदनशीलता की व्यापक कमी और विफलता को दिखाता है।

न्यायपालिका के भीतर व्यापक लिंग संवेदीकरण आज की सबसे बड़ी ज़रूरत है। न्यायाधीशों के पास कानून की व्याख्या करने और लागू कराने की जिम्मेदारी होती है, ऐसे में यौन अपराध और लैंगिक समानता के प्रति सामाजिक धारणाओं और दृष्टिकोण को आकार देने की अपार शक्ति रखते हैं। उनके शब्दों और कार्यों के प्रभाव सालों साल होते हैं। यहां तक ​​कि उनका छोटा सा बयान भी खतरनाक रूढ़िवाद का पोषण कर सकता है और आम जनता में न्यायपालिका पर विश्वास को कमजोर कर सकता है। जजों की ईमानदारी को कायम रखने के उद्देश्य से बनाए गए ‘बेंगलुरु सिद्धांत’, इस बात पर ज़ोर देते हैं कि जज को हर मामले में बिना किसी पक्षपात के फैसला सुनाना चाहिए। उनका काम निष्पक्ष रहना है, न कि किसी के पक्ष या विपक्ष में होना। न्यायाधीशों से अपेक्षा की जाती है कि वे न्यायपालिका की निष्पक्षता में जनता के विश्वास को बनाए रखें और ऐसी टिप्पणियां करने से बचें जिससे न्यायिक प्रक्रिया की निष्पक्षता को नुकसान पहुंचाने की आशंका हो।

आगे का रास्ता: एक समतावादी न्यायपालिका की ओर

तस्वीर साभारः The Statement

भारतीय न्यायपालिका के भीतर संस्थागत समस्याओं का समाधान करने और नारीवादी दृष्टिकोण को बढ़ावा देने के लिए एक बहुआयामी रणनीति की आवश्यकता है। सबसे पहले न्यायपालिका के सभी स्तरों पर महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने के लिए ठोस प्रयास होने चाहिए। पारदर्शी और न्यायसंगत नियुक्ति और पदोन्नति प्रक्रियाओं के साथ-साथ परिवार-अनुकूल नीतियों और कार्य-जीवन संतुलन का समर्थन करने वाली पहलों के कार्यान्वयन के माध्यम से इस दिशा में शुरुआत हो सकती है। न्यायाधीशों से लेकर न्यायालय में काम करने वाले सभी कर्मचारियों के लिए व्यापक लिंग संवेदीकरण कार्यक्रम आवश्यक हैं। इन कार्यक्रमों का लक्ष्य गहरी जड़ें जमा चुके पूर्वाग्रहों को तोड़ना, पितृसत्तात्मक धारणाओं को चुनौती देना और हाशिए पर रहने वाले समुदायों, विशेष रूप से लैंगिक हिंसा का सामना कर चुके लोगों के सामने आने वाली चुनौतियों और अनुभवों के बारे में समझ पैदा करना होनी चाहिए।

इसके अलावा, सामाजिक संगठन, नारीवादी अधिवक्ता समूह और कानूनी पेशेवर प्रगतिशील सुधारों की वकालत करते हुए न्यायपालिका को जवाबदेह बनाए रख सकते हैं। साथ ही ये सार्वजनिक चर्चा, मीडिया में बहस और सतत संवाद के माध्यम से रूढ़िवादी दृष्टिकोण को चुनौती देने और न्यायिक प्रणाली के भीतर संस्थागत परिवर्तन को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। भारत में वास्तव में समतावादी न्यायपालिका की ओर यात्रा एक मुश्किल लेकिन ज़रूरी यात्रा है। न्यायिक प्रणाली के भीतर कायम पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण और पूर्वाग्रहों से मुक्ति पाकर भारत एक ऐसे समाज के सपने को साकार कर पायेगा जहां लिंग, जाति या किसी अन्य सामाजिक पहचान की परवाह किए बिना सभी व्यक्तियों को समान अधिकार और सम्मान मिल पायेगा।

जजों की ईमानदारी को कायम रखने के उद्देश्य से बनाए गए ‘बेंगलुरु सिद्धांत’, इस बात पर ज़ोर देते हैं कि जज को हर मामले में बिना किसी पक्षपात के फैसला सुनाना चाहिए। उनका काम निष्पक्ष रहना है न की किसी
के पक्ष या विपक्ष में होना।

न्यायपालिका से जुड़ी हालिया घटनाओं ने लैंगिक भेदभाव और हिंसा के खिलाफ लड़ाई में किए जाने वाले की आवश्यकता के बारे में फिर से सतर्क किया है। भारत में नारीवादी आंदोलन को पितृसत्तात्मक संरचनाओं को चुनौती देना, प्रणालीगत सुधारों की वकालत करना और न्याय और समानता के सिद्धांतों को बनाए रखने के लिए सत्ता में बैठे जिम्मेदार लोगों से सवाल करना करना जारी रखना चाहिए। सतत प्रयासों के माध्यम से ही भारत वास्तव में एक ऐसी न्यायपालिका प्राप्त कर सकता है जो अपने लोगों की विविधता और जीवन अनुभवों को समझती हो। हमें ऐसे समाज का निर्माण करना है जहां लैंगिक न्याय के आदर्श केवल आकांक्षाएं नहीं बल्कि वास्तविकताएं बन सके।


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