समाजकानून और नीति बलात्कारी को ‘दयालु’ बतानेवाले फैसले को मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने संशोधित किया

बलात्कारी को ‘दयालु’ बतानेवाले फैसले को मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने संशोधित किया

27 अक्टूबर को जस्टिस सुबोध अभ्यंकर और सत्येंद्र कुमार सिंह की डबल बेंच ने कहा कि, इस अदालत के नोटिस में लाया गया कि 18 अक्टूबर को अदालत के दिए फैसले में अनजाने में कुछ गलती हुई है। बलात्कार के दोषी के लिए 'दयालु' शब्द का इस्तेमाल किया गया है। 

कुछ दिनों पहले मध्य प्रदेश हाई कोर्ट की इंदौर बेंच ने बलात्कार के दोषी की सज़ा यह कहते हुए कम कर दी थी कि क्योंकि उसने ‘दया’ दिखाते हुए नाबालिग सर्वाइवर की हत्या नहीं की थी। यही नहीं, अदालत ने इस मामले में दोषी की सज़ा को कम भी किया। अदालत के इस फैसले और बलात्कारी को ‘दयालु’ कहने की चौतरफ़ा आलोचना हुई, जिसके बाद अदालत ने इस मुद्दे को स्वतः संज्ञान में लिया। अदालत ने उस टिप्पणी को अनजाने में हुई गलती कहते हुए अपने फैसले में भी सुधार किया है।

हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित ख़बर के मुताबिक़ सर्वाइवर से बलात्कार के मामले में दिए गए अपने ही लिखित फैसले को खुद संज्ञान में लेकर अपने आदेश को संशोधित किया। अदालत ने सर्वाइवर बच्ची को बलात्कार के बाद दोषी द्वारा जीवित छोड़ने और उसकी आजीवन कारावास की सज़ा को 20 साल की सज़ा में तब्दील करने के फ़ैसले यह कहते हुए संशोधित किया है कि फैसला लेते हुए अंजाने में कुछ गलतियां हुई थीं। 27 अक्टूबर को जस्टिस सुबोध अभ्यंकर और जस्टिस सत्येंद्र कुमार सिंह की डबल बेंच ने कहा कि इस अदालत के नोटिस में लाया गया कि 18 अक्टूबर को इसी अदालत के दिए फैसले में अनजाने में कुछ गलती हुई है। बलात्कार के दोषी के लिए ‘दयालु’ शब्द का इस्तेमाल किया गया है। 

अदालत ने 18 अक्टूबर को दिए गए फैसले को अपनी गलती मानते हुए कहा है कि यह स्पष्ट है कि उपरोक्त गलती अनजाने में हुई है। ऐसी परिस्थिति में इस अदालत ने सीआरपीसी की धारा 362 के तहत अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए उपरोक्त पैराग्राफ को संशोधित किया गया है और प्रतिस्थापित किया गया है। हालांकि, इस तथ्य पर विचार करते हुए कि याचिकार्ता ने सर्वाइवर को किसी तरह की शारीरिक चोट नहीं पहुंचाई, इस पर अदालत की राय थी कि आजीवन कारावास को 20 साल के कठोर कारावास से कम किया जा सकता है। यह संशोधित फैसले में कहा गया है।  

कुछ दिनों पहले मध्य प्रदेश हाई कोर्ट की इंदौर बेंच ने बलात्कार के दोषी की सज़ा यह कहते हुए कम कर दी थी कि क्योंकि उसने ‘दया’ दिखाते हुए नाबालिग सर्वाइवर की हत्या नहीं की थी। यही नहीं, अदालत ने इस मामले में दोषी की सज़ा को कम भी किया। अदालत के इस फैसले और बलात्कारी को ‘दयालु’ कहने की चौतरफ़ा आलोचना हुई, जिसके बाद अदालत ने इस मुद्दे को स्वतः संज्ञान में लिया। अदालत ने उस टिप्पणी को अनजाने में हुई गलती कहते हुए अपने फैसले में भी सुधार किया है।

संशोधित फैसले से पहले अदालत के अपराधी को दयालु कहने पर सोशल मीडिया पर खूब आलोचना हुई थी। लोगों ने अपनी प्रतिक्रिया जाहिर करते हुए ऐसे फैसलों को न्याय व्यवस्था में बहुत बड़ी बाधा कहा है। ट्विटर पर इस फैसले के बाद बड़ी संख्या में लोगों ने लिखा हैं कि एक के बाद एक अदालत के ऐसे फैसले बहुत समस्याग्रस्त है। न्यायालय में बलात्कारियों के प्रति हमदर्दी यह अपने आप में बहुत शर्मनाक है। ऐसे में कौन अदालत और न्याय में भरोसा करेगा?

टाइम्स ऑफ इंडिया की ख़बर के अनुसार इससे पहले हाई कोर्ट की इंदौर पीठ ने बलात्कार के दोषी की उम्रकैद की सजा को 20 साल के कठोर करावाज में सिर्फ इसलिए बदल दिया था क्योंकि उसने बलात्कार के बाद बच्ची की हत्या नहीं की थी। साल 2007 में बच्ची के साथ किए गए बलात्कार के अपराध में में ट्रायल कोर्ट से इसे आजीवन कारावास की सजा मिली थी। उम्रकैद की सज़ा मिलने के बाद दोषी ने हाईकोर्ट का रूख़ किया था।

पूर्व में भी अदालतें दे चुकी हैं ऐसे फैसले 

असमानता और असहायता को दूर करने के लिए लोकतंत्र में अदालत आख़िरी उम्मीद होती हैं। उनसे उम्मीद की जाती है कि वे बिना किसी पूर्वाग्रह और पक्षपात के काम करें। लेकिन कई मौकों पर भारतीय अदालतें ख़ासतौर पर कई लैंगिक हिंसा से जुड़े मामलों में सामाजिक पूर्वाग्रहों को और मजबूत करती दिखती हैं। बलात्कार करनेवाले व्यक्ति ने सर्वाइवर की हत्या नहीं की इसलिए उसे दयालु कहना, तथाकथित ऊंची जाति के दोषियों को छोड़ देना और बलात्कारी को ‘भविष्य की संपत्ति’ कहना यही दिखलाता है।

दिल्ली हाई कोर्ट में प्रैक्टिस कर रही दीपा (बदला हुआ नाम) का कहना है, “ अदालतों का ऐसा कहना तो बिल्कुल गलत है। जब अदालतें कहती हैं कि महिलाएं कमज़ोर है उन्हें सुरक्षा की ज़रूरत है, महिलाओं को छोटे कपड़े नहीं पहनने चाहिए, जिसने रेप किया है उससे सर्वाइवर शादी करवा दो। यही नहीं, उत्पीड़न को सामान्य बनानेवाली सभी टिप्पणियां पूरी तरह से अस्वीकार की जानी चाहिए। ऐसी बातें अपराध को कम करने की जगह अन्य अपराधियों में यह संदेश देती है कि जैसे उन्होंने जो किया वह गलत नहीं है।ऐसा नहीं है कि हमारे अदालत परिसर में इन पर बातें नहीं होती हैं। कोर्ट के अंदर और वकीलों के चैंबर के अंदर जब इस तरह की चर्चा होती है तो इन बातों को उठाया जाता है। कुछ लोग इन पर याचिका भी डालते हैं। अगर इस फैसले में जो शब्द इस्तेमाल हुए उसकी बात करें तो मैं इसे बहुत गलत मानती हूं। लेकिन अगर आप मुझसे पूछे कि इस तरह के व्यवहार को बदलने लिए हम वर्तमान में क्या कुछ कर सकते हैं तो मेरा जवाब न में है क्योंकि अदालत के बाद सरकार भी बलात्कार के आरोपियों को रिहा कर रही है। पूरे सिस्टम में बदलाव करने की बहुत ज्यादा ज़रूरत है।” 

भारतीय अदालतों के लैंगिक हिंसा के मामलों में इस तरह की भाषा, बलात्कारी के पक्ष की पैरवी जैसे विषय को सर्वोच्च अदालत भी संज्ञान में ले चुका है। सुप्रीम कोर्ट ने लैंगिक हिंसा के मामलों में जजों को महिला विरोधी विचारों और किसी भी पूर्वाग्रह को शामिल करने से मना कर चुकी हैं। जस्टिस एएम खानविलकर और एस रविन्द्र भट्ट की बेंच ने इस मामले में निर्देश जारी किए थे। अदालत ने इस बात पर ज़ोर दिया था कि न्यायिक आदेशों में कई बार पितृसत्तात्मक और स्त्री विरोधी दृष्टिकोण को शामिल किया जाता है जिन्हें शामिल नहीं किया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने जजों के लिए एक चेकलिस्ट के साथ कई निर्देश जारी किए थे। 

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