ग्राउंड ज़ीरो से क्यों आज भी कठपुतली कॉलोनी की महिलाएं बुनियादी अधिकारों के लिए तरस रही हैं?

क्यों आज भी कठपुतली कॉलोनी की महिलाएं बुनियादी अधिकारों के लिए तरस रही हैं?

कठपुतली कॉलोनी की कहानी यहीं खत्म नहीं होती बल्कि ये तो एक छोटी झलकी है। लेकिन ऐसी झलकियां सभ्य समाज और तथाकथित सरकार पर एक थप्पड़ के समान है। आज़ादी के 75 साल बाद भी इन ये समुदायों का न तो शिक्षा तक पहुंच है, न स्वास्थ्य और न अन्य बुनियादी सुविधाओं तक।

कठपुतली कॉलोनी दिल्ली के शादीपुर डिपो क्षेत्र में सड़क पर प्रदर्शन करने वालों की एक कॉलोनी है। पिछले 50 वर्षों से, यह जादूगरों, सपेरों, कलाबाजों, गायकों, नर्तकों, अभिनेताओं, पारंपरिक चिकित्सकों, संगीतकारों और कठपुतली कलाकारों के लगभग 2,800 परिवारों का घर रहा। यह इसे सड़क पर प्रदर्शन करने वालों का दुनिया का सबसे बड़ा समुदाय बनाता है। दिल्ली मास्टर प्लान 2021 ने झुग्गी पुनर्विकास के लिए ‘इन-सीटू पुनर्वास’ प्रस्ताव पेश किया, जिसमें झुग्गी झोपड़ी समूहों के निवासी अस्थायी आवास में स्थानांतरित हो जाते हैं, जबकि दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) बस्ती का पुनर्निर्माण करता है, और फिर झुग्गी-झोपड़ी में रहने वालों को वापस स्थानांतरित कर देता है।

लेकिन आधुनिक बड़ी-बड़ी इमारतें हो या झुग्गी-झोपड़ी, महिलाओं का संघर्ष लगभग हर जगह एक सा है। सिर्फ क्षेत्र, अस्वस्था और समाज के हिसाब से संघर्ष में फर्क है। दिल्ली की कठपुतली कॉलोनी की महिलाओं की स्थिति की बात की जाए, तो उस कॉलोनी की महिलाओं और बच्चियों की भविष्य संबंधी निर्णयों पर स्वाभाविक रूप से कब्जा वहां के पुरुष समाज का है। पुरुषों का निर्णय संबंधित क्षेत्र की सामाजिक स्थिति से संचालित होता है। इस स्थिति में लड़कों की संख्या बल से अपनी लड़कियों के सुरक्षा का भय, लड़की की इज्जत और सुरक्षा और उनका समाज क्या कहेगा आदि जैसी सोच है, जो कि कोई नई बात नहीं है।

महिला ने चेहरे पर परवाह का भाव लाते हुए कहा, “अभी मैं शादी नहीं करूंगी। हम चाहते हैं कि कोई अच्छी मैडम यहां आकर हमारे बच्चों को शिक्षा प्रदान करे। लड़की अब बड़ी हो रही है। हमें डर लगा रहता है। अकेली लड़की को कहां भेजें?

पढ़ाई की कोई व्यवस्था नहीं

वहां की 12-14 साल की एक लड़की से बातचीत के दौरान उसके जवाबों से वहां की स्थिति का काफी  कुछ समझ आया। जैसेकि वह बताती है कि वो स्कूल अब नहीं जाती,पहले जाती थी। कब जाती थी? किस उम्र में जाती थी? किस कक्षा में जाती थी? इसके बारे में उसे कुछ भी याद नहीं। तभी उसकी मां अपने चेहरे को पल्लू से ढके हुए आती है और अपने शुरुआती बातों में ही ये कहती है, “ना तो ये पढ़ती है और ना घर का काम करती है।” हालांकि उस छोटी बच्ची ने थोड़ी देर पहले ही कहा था कि पढ़ाई में नहीं बल्कि घर का काम करना अच्छा लगता है। फेमिनिज़म इन इंडिया के माध्यम से मैंने बातचीत के दौरान उसकी मां को टोकते हुए कहा कि लेकिन यहां तो पढ़ाई का माहौल ही नहीं है। लेकिन शायद वो ये बात समझी नहीं और बार-बार यही कहे जा रही थी कि ना पढ़ती है और ना काम ही करती है।

सरकारी स्कूल में दाखिले का कोई लाभ क्यों नहीं

बात करते हुए वह महिला बताती हैं, “पहले इसका नाम पास के एक सरकारी स्कूल में लिखवाया गया था। लेकिन इसके पापा ने छुड़वा दिया।” जब इसका कारण जानने की कोशिश की, तो महिला ने बताया, “उधर बहुत सारे लड़के होते थे इसलिए हमने छुड़ा दिया। वह आगे बताती हैं, “इस कॉलोनी में बहुत अशिक्षा है। यहां आपको बहुत सारे ऐसे बच्चे मिल जाएंगे।” इस महिला की और भी बेटियां थी। यह पूछे जाने पर कि आप लोग बच्चियों को पढ़ा नहीं पा रहे हैं, तो इनके भविष्य का आप क्या सोच रही हैं? क्या शादी ही इनका भविष्य है?

तस्वीर साभार: विनीता

महिला ने चेहरे पर परवाह का भाव लाते हुए कहा, “अभी मैं शादी नहीं करूंगी। हम चाहते हैं कि कोई अच्छी मैडम यहां आकर हमारे बच्चों को शिक्षा प्रदान करे। लड़की अब बड़ी हो रही है। हमें डर लगा रहता है। अकेली लड़की को कहां भेजें? इसलिए हम चाहते हैं कि कोई मैडम हमारे इसी कॉलोनी में आकर इन बच्चियों को पढ़ाएं। हम भी चाहते हैं कि हमारी बच्चियां पढ़ें। लेकिन क्या फायदा है इन्हें स्कूल भेजने का भी। स्कूल में कुछ पढ़ाई ही नहीं नही होती है। जब बाहर से कोई स्कूल में आता है, तब इन बच्चों को बुलाते हैं।” वह आगे बताती हैं, “अभी हमने अपने सबसे छोटे बच्चे को स्कूल में नाम लिखवाया। एक साल हो गया लेकिन उसे कुछ नहीं आता है। एक साल में कुछ तो आना चाहिए?”

मैडम बच्चों का कोई भविष्य नहीं है। और तो और ये नशे के शिकार हो रहे है। क्या करूं समझ में नहीं आता है। ऐसे में ये सारे बच्चे बर्बाद हो जाएंगे। कुछ करके इनकी पढ़ाई की व्यवस्था करा दो। क्या है न कि हमारे पास हर वक्त काम नहीं होता है।”

कठपुतली कॉलोनी के गलियों में बसे अधूरे सपने  

इसी गलियों में एक ऐसी महिला मिली जिसकी उम्र लगभग 25 साल रही होगी। गंदे और घोर असुविधाजनक स्थिति में रहने के बावजूद भी इस महिला के चेहरे पर एक उत्साहपूर्ण सौंदर्य था। जैसे ही उसने सुना कि कोई बातचीत करने आया है, वो दोनो हाथों में बाल्टी को पकड़े ही हम लोगों के पास आई और आते ही पूछती है कि मैडम आप जामिया से आए हो? उसकी आंखों में एक अलग ही किस्म की चमक थी कॉलेज के नाम की वजह से।

स्कूल में कुछ पढ़ाई ही नहीं नही होती है। जब बाहर से कोई स्कूल में आता है, तब इन बच्चों को बुलाते हैं।” वह आगे बताती हैं, “अभी हमने अपने सबसे छोटे बच्चे को स्कूल में नाम लिखवाया। एक साल हो गया लेकिन उसे कुछ नहीं आता है। एक साल में कुछ तो आना चाहिए?”

वह बताती हैं, “हम जामिया बहुत बार गए हैं। कठपुतली का खेल दिखाने। जामिया के बच्चों को कठपुतली का खेल दिखाने। आपने जैसे ही बोला न कि जामिया से आए हैं, मुझे वो दिन याद आ गए। मैडम मेरे को गाने का बहुत शौक था। सिंगर बनना चाहती थी। लेकिन नहीं नही बन पाई।

बेरोजगारी और गरीबी में नशे में डूबते युवा

तस्वीर साभार: विनीता

उसके बगल में खड़े एक आदमी ने उसकी हां में हां मिलाते हुए कहा कि हां मैडम ये बहुत अच्छा गाती है। लेकिन इसके सारे सपने इस बाल्टी में ही रह गए। उस महिला ने दोबारा याद दिलाया कि मैडम हम लोग के लिए कोई काम की व्यवस्था करा दो। मुझे देख कर यकीन नहीं हुआ कि इस 25 साल की औरत के करीब 17- 18 साल के दो लड़के थे। उन्होंने अपने बेटों की ओर इशारा करते हुए कहा,“मैडम बच्चों का कोई भविष्य नहीं है। और तो और ये नशे के शिकार हो रहे है। क्या करूं समझ में नहीं आता है। ऐसे में ये सारे बच्चे बर्बाद हो जाएंगे। कुछ करके इनकी पढ़ाई की व्यवस्था करा दो। क्या है न कि हमारे पास हर वक्त काम नहीं होता है।”

सौ में से निन्यानबे बच्चे न स्कूल जाते हैं और न पढ़ाई में दिलचस्पी लेते हैं। सरकारी स्कूल में कौन सी पढ़ाई होती है? उसमें जो पढ़ा वो भी पास, जो नहीं पढ़ा वो भी पास। उन्हें ऊपर से ऑर्डर है कि सबको पास कर दो। सरकार ने बोल रखा है सबको पास करा दो।

अशिक्षा की गर्त में डूबे लोग

एक और महिला से जब शिक्षा पर बात हुई तो उन्होंने दो टूक शब्द में कहा, “सौ में से निन्यानबे बच्चे न स्कूल जाते हैं और न पढ़ाई में दिलचस्पी लेते हैं। सरकारी स्कूल में कौन सी पढ़ाई होती है? उसमें जो पढ़ा वो भी पास, जो नहीं पढ़ा वो भी पास। उन्हें ऊपर से ऑर्डर है कि सबको पास कर दो। सरकार ने बोल रखा है सबको पास करा दो। एक छोटी सी बच्ची जिसकी उम्र मुश्किल से 6-7 वर्ष थी, उसे पढ़ना तक नहीं आ रहा था। पर वह वो आठवीं क्लास में पढ़ रही थी।” सरकारी स्कूलों की व्यवस्था पर तंज कसते हुए उस महिला ने ये भी कहा, “स्कूल के शिक्षक और अधिकारियों की तो टाइम से आ जाती है। उनको बस अपनी सैलरी से मतलब है।”

तस्वीर साभार: विनीता

कठपुतली कॉलोनी की कहानी यहीं खत्म नहीं होती बल्कि ये तो एक छोटी झलकी है। लेकिन ऐसी झलकियां सभ्य समाज और तथाकथित सरकार पर एक थप्पड़ के समान है। आज़ादी के 75 साल बाद भी इन ये समुदायों का न तो शिक्षा तक पहुंच है, न स्वास्थ्य और न अन्य बुनियादी सुविधाओं तक। कठपुतली कॉलोनी की महिलाएं सिर्फ सरकार ही नहीं समाज और लोगों से भी अपना जवाब मांग रही हैं। ये उम्मीद में हैं कि कोई गैर सरकारी संस्था इनका उद्धार करेगी। लेकिन असल में भारतीय परिप्रेक्ष्य में कितने ही ऐसे संस्थाएं हैं जो मौसम के अनुसार आते और जाते हैं पर इनके हालात में कोई बदलाव नहीं होता। जरूरी है कि जिस पुनर्वास के दावे सरकार करती आई है, उसकी जांच हो और जनता सवाल खड़े करे।   

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