हाल ही में जारी एक रिपोर्ट ‘नारी शक्ति: मिथक और वास्तविकता’ में कहा गया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 10 साल के शासन में महिलाओं के खिलाफ़ अपराध और यौन हिंसा में बढ़ोतरी हुई है। यह रिपोर्ट बहुत्वा कर्नाटक के साथ नवेद्दु निलादिद्दरे के सहयोग से जारी की गई। रिपोर्ट में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों का हवाला देते हुए कहा गया है कि महिलाओं के खिलाफ़ अपराधों की कुल संख्या 2014 में 3,37,922 से बढ़कर 2020 में 3,71,503 हो गई। प्रति लाख जनसंख्या पर महिलाओं के खिलाफ़ अपराधों का प्रतिशत 2015 में 53.9 से बढ़कर 2022 में 66.4 हो गई। 2022 में 2021 और 2020 की तुलना में महिलाओं के खिलाफ अपराधों में गंभीर वृद्धि देखी गई, जहां 4,45,256 मामले दर्ज किए गए।
साल 2023 में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि अगर हमारी आबादी का 50 प्रतिशत महिलाएं घर पर बंद हैं, तो हम सफलता हासिल नहीं कर सकते। महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा एक जटिल समस्या है, जिसमें जातिवाद, पितृसत्ता, ब्राह्मणवाद जैसे कारक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। हमारे देश में महिलाओं के खिलाफ हिंसा से लिंग आधारित पावर डाइनैमिक्स जुड़े हैं और यह साफ तौर पर पितृसत्ता के विचारों और प्रथाओं द्वारा प्रेरित हैं। ऐसी हिंसा न केवल समाज और परिवार के भीतर होती है, बल्कि सरकार के एजेंटों द्वारा भी होती है, जिनमें पुलिसकर्मी, राजनेता और सैनिक भी शामिल हैं।
महिलाओं के खिलाफ हिंसा में बढ़ोतरी
यौन हिंसा से लेकर सड़क या कार्यस्थल पर यौन हिंसा, दहेज के लिए उत्पीड़न, दहेज हत्या, सार्वजनिक परिवहन वाहनों में यौन हिंसा और बलात्कार तक, महिलाओं के खिलाफ़ अपराध महिलाओं की समाज में स्थिति और समस्याओं को बताते हैं। 2021 में, भारत में प्रत्येक 100 हजार महिलाओं में से लगभग 64 महिलाएं अपराध का सामना करती थीं।
एनसीआरबी डेटा के अनुसार, 2022 में देश भर में महिलाओं के खिलाफ़ अपराध के कुल 4,45,256 मामले दर्ज किए गए, हर घंटे लगभग 51 एफआईआर और 2021 में 4,28,278 और 2020 में 3,71,503 से अधिक मामले दर्ज हुए।
महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा में सरकार की चुप्पी
महिलाओं की सुरक्षा में सुधार के लिए एक महत्वपूर्ण पहल, निर्भया फंड के तहत फंड के उपयोग का विश्लेषण भी रिपोर्ट में किया गया। रिपोर्ट बताती है कि कैसे प्रमुख योजनाओं को कम फंड दिया गया है, जिससे देश में महिला सुरक्षा कमजोर हो रही है। निर्भया फंड के तहत वित्त वर्ष 2023-24 तक 7212.8 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं। शुरुआत से लेकर अब तक मंत्रालयों और विभागों द्वारा जारी की गई और निर्भया फंड से उपयोग की गई फंड 5118.9 करोड़ रुपये है, जो कुल आवंटन का लगभग 70 फीसद है। रिपोर्ट महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा के ठोस उदाहरण भी दिखाती है।
देश में बीते दिनों में अगर महिला सुरक्षा की बात करें, तो अपनी सुरक्षा के संबंध में सार्वजनिक रूप से अपनी बात कहने के बावजूद, सरकार ने न केवल हिंसा की घटना को नज़रअंदाज किया बल्कि अपने पार्टी के सदस्य पर कोई कार्रवाई नहीं की। कुछ महीनों पहले यौन हिंसा के कथित आरोपी भारतीय कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष और भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह के विरोध में भारत की प्रमुख महिला पहलवान सड़कों पर उतर आई थीं। साथ ही, ये आरोप किसी एक महिला ने नहीं लगाए थे। शुरुआत में कुल सात शिकायत करने वाले थे, जिनमें एक नाबालिग भी शामिल थी। वहीं मणिपुर के मामले में भी केंद्र और राज्य सरकार कोई भी ठोस कदम नहीं उठाई।
महिलाओं की गरिमा और एजेंसी
मोदी सरकार ने नारी शक्ति नाम से कैम्पैन साल 2015 में शुरू किया था। प्रधान मंत्री मोदी ने लाल किले से दिए अपने भाषण में महिलाओं के प्रति ‘मानसिकता में बदलाव’ का भी आह्वान किया था और आम जनता को स्त्रीद्वेष से लड़ने को कहा था। सड़कों पर हिंसा को रोकना जितना ज़रूरी है, उतना ही ज़रूरी घरों के अंदर और संस्थागत हिंसा को रोकना और उसपर बातचीत की शुरुआत करना है। घरेलू कामगार हो, चिकित्सकीय दुनिया, ऑफिस, घर या यहां तक कि ब्युरोक्रेसी और राजनीति में भी महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा और भेदभाव की घटनाएं होती हैं। असल में यूसीसी, ट्रिपल तलाक, आपराधिक कानून, एंटी कन्वर्शन लॉ जैसे विभिन्न नए कानून जेन्डर जस्टिस के मकसद से लाए तो गए हैं। लेकिन इनका उपयोग महिलाओं की एजेंसी को खत्म करने के लिए किया जा रहा है।
वे किससे शादी या प्यार कर सकती हैं, कहां और कितना पढ़ेंगी, या यहां तक कि निवेश भी किन क्षेत्रों में करेंगी, ये सरकार की नीतियां तय कर रही है। नारी शक्ति रिपोर्ट में कहा गया है कि महिलाओं का एक तरह से इन्फ़ैंटिलाइशेषन किया जा रहा है और उन्हें किसी भी एजेंसी से वंचित किया जा रहा है। हाल ही में चुनाव से ठीक पहले मोदी सरकार ने रसोई गैस की कीमत में 100 रुपये की कटौती का ऐलान किया। लेकिन महिलाओं को सिर्फ रसोई से जोड़ते हुए, वोट बैंक सुनिश्चित करने की कोशिश करना पितृसत्तात्मक मानसिकता दिखाती है। वहीं यह उनकी आर्थिक स्वतंत्रता और खुशहाली की गारंटी नहीं देती है। इसी तरह, सुरक्षा के नाम पर जारी किए गए यूसीसी को देखिए। लिव-इन में रहने के लिए पुरुष और महिला को रजिस्ट्रार को लिव-इन रिलेशनशिप स्टेटमेंट जमा करना होगा, जिसकी जांच की जाएगी।
इस जांच के दौरान, यदि जरूरी हो तो साझेदारों से अतिरिक्त जानकारी या साक्ष्य उपलब्ध कराने के लिए कहा जा सकता है। रजिस्ट्रार को स्थानीय पुलिस को लिव-इन रिलेशनशिप स्टेटमेंट भेजना होगा और अगर दोनों में से कोई भी 21 वर्ष से कम उम्र का है, तो माता-पिता को सूचित किया जाएगा। बीजेपी सरकार दावा करती है कि उनके शासन में न सिर्फ महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा पर रोक लगी है, बल्कि महिलाओं के लिए विभिन्न योजनाओं की शुरुआत की गई है। सरकार के मुताबिक इनसे उनके सम्मान और गरिमा में सुधार हुआ है। असल में महिलाओं के सशक्तिकरण के मायने सिर्फ चूल्हे से गैस तक का सफर या एयरफोर्स में भर्ती नहीं, बल्कि किसी भी इंसान से प्यार या शादी की आज़ादी, घर में स्कूल जाने से पहले किशोरियों को अवैतनिक कामों से छुट्टी, घरों में हाउसवाइफ को उचित मान-सम्मान, अबॉर्शन के लिए जाने पर बिना जजमेंट इलाज और उचित देखभाल, या अपने मोहल्ले में और घरों की शादियों में कुछ भी पहनने की आज़ादी तक है।
महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा के मामलों में ट्रायल लंबित
महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा के मामले में दर्ज हुए केसों पर ट्रायल और इसका समय भी मायने रखता है। न्यायिक व्यवस्था महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा को किस नजरिए से देखती है, ये एक अहम पहलू है। टाइम्स ऑफ इंडिया में जारी एक रिपोर्ट के अनुसार 2017 से 2021 तक हर साल के अंत में महिलाओं और बच्चों के खिलाफ़ अपराध के 90 फीसद से अधिक मामलों की सुनवाई लंबित थी। 2022 में संसद में सरकारी आंकड़ों के अनुसार, महिलाओं द्वारा दायर किए गए सबसे अधिक लंबित मामलों वाले तीन राज्यों में 61,849 मामलों के साथ राजस्थान उच्च न्यायालय, इसके बाद मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में 57,319 मामले और बॉम्बे उच्च न्यायालय में 51,444 मामले थे।
कानून मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार साल 2014 से 31 अक्टूबर, 2022 तक सुप्रीम कोर्ट में लंबित मामलों की कुल संख्या 69,871 है। उच्च न्यायालयों में यह संख्या 53 लाख है, जबकि जिला और निचली अदालतों में लंबित मामलों की संख्या 4.2 करोड़ है। सरकार के विभिन्न फास्ट-ट्रैक अदालतें स्थापित किए जाने के बावजूद, इतनी अधिक संख्या में मामले लंबित हैं। मंत्रालय के अनुसार, 31 अक्टूबर, 2022 तक जघन्य अपराधों, महिलाओं और बच्चों के खिलाफ़ अपराधों आदि के लिए कुल 838 फास्ट ट्रैक अदालतें कार्यरत थीं। वैश्वविक स्तर पर लैंगिक समानता की बात करें, तो 2022 में लैंगिक असमानता सूचकांक में पिछले वर्ष से 14 स्थान के सुधार के बाद भारत 193 देशों में से 108वें स्थान पर था।
न्यूज मिनट के अनुसार मोदी सरकार द्वारा लैंगिक हिंसा के सर्वाइवर महिलाओं की सहायता के लिए वन स्टॉप सेंटर शुरू करने के नौ साल बाद, केंद्र सरकार ने योजना के तहत वादा किए गए 82.01 फीसद केंद्र स्थापित किए हैं। अक्सर सरकारी नीतियां बनाने वाले महिलाओं के लिए नीतियां बनाते वक्त समावेशी नहीं होते। इसमें जाति, धर्म, समुदाय या आर्थिक और सामाजिक स्थिति, महिलाओं की एजेंसी का ध्यान में नहीं रखा जाता। इसलिए महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा में न सिर्फ कानून, फंड के इस्तेमाल और समावेशी नजरिए की बल्कि महिलाएं क्या चाहती हैं और उनके एजेंसी की बात भी जरूरी है।