आम चुनाव के ऐलान के बाद से ही देश भर में राजनीतिक सरगर्मियां बढ़ गई हैं। कुल 7 चरणों में होने वाले इस लोकसभा चुनाव के अब तक 2 चरण संपन्न हो चुके हैं। आम जनता को मतदान के माध्यम से 5 साल में एक बार लोकतंत्र में अपनी भागीदारी दिखाने का मौका मिलता है। लेकिन गुजरात के सूरत में हुए हालिया घटना ने वहां के लगभग 17 लाख मतदाताओं की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। सूरत में 7 मई को चौथे चरण का मतदान होना था। लेकिन 22 अप्रैल को बिना मतदान के ही चुनाव विजेता का नाम घोषित कर दिया गया। अपने तरह के इस अनोखे घटनाक्रम ने राजनीतिक गलियारों में हलचल मचा दी है।
क्या है पूरा मामला
गुजरात के सूरत लोकसभा सीट के लिए 15 अप्रैल से 19 अप्रैल तक नामांकन हुआ, जिसमें कुल 15 प्रत्याशियों ने नामांकन किया। चुनाव में प्रतिभाग कर रहे प्रत्याशियों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के मुकेश दलाल, कांग्रेस उम्मीदवार निलेश कुंभानी, बसपा के उम्मीदवार प्यारेलाल भारती, पीपुल्स पार्टी के शोएब शेख, सरदार वल्लभभाई पटेल पार्टी के अब्दुल हमीद खान और ग्लोबल रिपब्लिकन पार्टी के जयेश मेवाड़ा और अन्य निर्दलीय प्रत्याशियों में भरत प्रजापति, अजीत कुमार किशोर दयानी, बरैया रमेश इत्यादि शामिल थे।
इसमें कांग्रेस के नीलेश कुम्भानी समेत कुल 6 उम्मीदवारों के पर्चे विभिन्न आधारों पर ख़ारिज हो गए। इसके बाद बचे 8 उम्मीदवारों ने अंतिम तिथि पर अपना नामांकन वापस ले लिया। इस प्रकार बचे एकमात्र उम्मीदवार भाजपा के मुकेश दलाल ने बिना चुनाव लड़े ही जीत हासिल कर ली। ध्यान देने योग्य बात यह है कि 26 लोकसभा सीटों वाले राज्य गुजरात में सूरत की उस सीट पर 1989 से लगातार भाजपा का कब्जा रहा है। निवर्तमान सांसद दर्शना जरदोश 2009 से लगातार तीन बार सूरत से सांसद रही हैं। जरदोश सूरत की पहली महिला सांसद भी हैं।
भाजपा प्रत्याशी के एजेंट दिनेश जोधानी ने कांग्रेस के उम्मीदवार नीलेश कुम्भानी के प्रस्तावकों जगदीश सांवलिया, ध्रुविन धमेलिया और रमेश पोलरा के हस्ताक्षरों को फर्ज़ी बताया और रिटर्निंग ऑफिसर से सत्यापित कराने की मांग की। कहानी में नया मोड़ तब आता है जब यह तीनों प्रस्तावक कलेक्ट्रेट में हलफ़नामा दायर कर अपने हस्ताक्षरों को फर्ज़ी बताते हैं। ग़ौरतलब है कि तीनों प्रस्तावक नीलेश कुंभानी के परिचित और रिश्तेदार थे, जिसमें से जगदीश सांवलिया इनके बहनोई हैं जबकि ध्रुवीय धमेलिया भतीजे और रमेश पोलरा बिजनेस पार्टनर हैं। इस प्रकार 21 अप्रैल को नीलेश कुंभानी का पर्चा ख़ारिज होने और बाकी बचे प्रत्याशियों के नाम वापस लेने के बाद 22 अप्रैल को भाजपा के उम्मीदवार मुकेश दलाल को निर्विरोध विजयी घोषित कर दिया गया।
क्या कहता है जन प्रतिनिधित्व कानून?
जन प्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा 33 में नामांकन से संबंधित कुछ दिशा निर्देश दिए गए हैं। इसके अनुसार 25 वर्ष से अधिक उम्र का कोई भी नागरिक देश के किसी भी निर्वाचन क्षेत्र से लोकसभा चुनाव लड़ सकता है। इसके लिए उसका किसी भी क्षेत्र के मतदाता सूची में नाम दर्ज़ होना आवश्यक है। एक व्यक्ति अधिकतम 4 जगहों से नामांकन कर सकता है। लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए राष्ट्रीय या राज्य के मान्यता प्राप्त दलों के प्रत्याशियों के लिए एक प्रस्तावक होना आवश्यक है जो उस लोकसभा क्षेत्र का मतदाता होना चाहिए, जबकि ग़ैर मान्यता प्राप्त दलों के उम्मीदवारों और निर्दलीय उम्मीदवारों के लिए 10 प्रस्तावक होने चाहिए।
पूर्व में निर्विरोध निर्वाचित लोकसभा सांसद
हालांकि यह पहली बार नहीं है जब किसी लोकसभा के सीट से कोई निर्विरोध निर्वाचित हुआ है। मुकेश दलाल किसी भी लोकसभा चुनाव में निर्विरोध निर्वाचित होने वाले 29वें सांसद हैं, जबकि उपचुनावों को जोड़ा जाए तो निर्विरोध निर्वाचित होने वाले लोकसभा सांसदों की संख्या 35 हो जाती है। एक ही चुनाव में निर्विरोध निर्वाचित होने वाले सबसे अधिक संख्या में सांसद साल 1952, 1957 और 1967 के लोकसभा चुनावों में थे।
इन सभी चुनावों में से प्रत्येक में 5-5 सांसद निर्विरोध चुने गए थे। इनमें महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री वाईवी चव्हाण, जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला, नागालैंड के पूर्व मुख्यमंत्री और चार राज्यों के पूर्व राज्यपाल एससी जमीर, ओडिशा के पहले सीएम हरेकृष्ण महताब, संविधान सभा के पूर्व सदस्य टीटी कृष्णमाचारी, पूर्व केंद्रीय मंत्री पीएम सईद और केएल राव और डिंपल यादव के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। समाजवादी पार्टी की नेता डिंपल यादव 2012 में निर्विरोध निर्वाचित होने वाली सबसे हालिया सांसद हैं।
राजनीतिक दलों पर सवाल
द हिंदू की एक रिपोर्ट के अनुसार, मीडिया से बातचीत के दौरान भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव विनोद तावड़े ने बयान दिया है कि उन्होंने निर्दलीय उम्मीदवारों से अपना नामांकन वापस लेने के लिए कहा था। इसके बाद सूरत लोकसभा क्षेत्र में भाजपा उम्मीदवार मुकेश दलाल के अलावा और कोई प्रत्याशी नहीं रह गया। यहां सवाल यह उठता है कि वह कौन सी वज़हें थी, जिन्होनें प्रत्याशियों को अपना नामांकन वापस लेने के लिए विवश किया? इसके लिए उन राजनीतिक दलों विशेष तौर पर कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दल की राजनीति पर भी बात उठती है, जिसने अपने उम्मीदवार के प्रस्तावकों की ख़बर नहीं रखी। साथ ही अपने प्रत्याशी का नामांकन ख़ारिज होने के बाद एक डमी या प्रॉक्सी उम्मीदवार तक की व्यवस्था न कर सकी। सूरत में जो कुछ घटित हुआ, उसने न सिर्फ़ भाजपा बल्कि बसपा, कांग्रेस और अन्य राजनीतिक दलों के लिए सवालिया निशान खड़ा कर दिया है।
चुनाव आयोग की भूमिका
भाजपा के उम्मीदवार मुकेश दलाल के निर्विरोध निर्वाचित होने और वहां चुनाव होने से पहले ही प्रत्याशी को विजयी घोषित करने की पूरी प्रक्रिया में चुनाव आयोग की भूमिका भी महत्त्पूर्ण हो जाती है। कांग्रेस ने चुनाव आयोग से अनुच्छेद 324 के तहत शक्तियों का इस्तेमाल कर इसमें दख़ल देने की मांग भी की है। संविधान का अनुच्छेद 324 चुनाव आयोग को किसी भी तरह के संदेह की स्थिति में विवादों के निपटारे के लिए न्यायाधिकरण के रूप में मान्यता देता है। इस प्रकार चुनाव आयोग के पास इस विवाद के निपटारे की संवैधानिक शक्ति है, जिसका प्रयोग कर वह लोकतांत्रिक प्रणाली को मजबूत करने और जनता में चुनाव प्रक्रिया के प्रति विश्वसनीयता बढ़ा सकता है।
लोकतंत्र पर प्रभाव
सूरत में हुआ हालिया घटनाक्रम देश के लोकतांत्रिक प्रणाली के क्रियान्वयन पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। जब लोकतंत्र जनता का, शासन जनता के लिए है, तो इस चुनाव में जनता की भूमिका पूरी तरह गायब होना चिंता का विषय है। 5 साल में एक बार जनता को यह मौका मिलता है कि वह देश के शासन प्रणाली में सक्रिय रूप से भाग ले। इस तरह से निर्विरोध प्रतिनिधि चुना जाना लोकतंत्र के लिहाज से ख़तरनाक है। इसके अलावा ऐसी स्थिति में मतदान न होने से नोटा की प्रासंगिकता पर भी सवाल उठते हैं। मतदान होने से पहले ही प्रत्याशी को विजयी घोषित कर देने से, उन लोगों के मतदान करने के लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन होता है जो नोटा का इस्तेमाल करना चाहते हैं। इससे लोकतंत्र की मूल अवधारणा पर भी संकट के बादल मंडरा रहे हैं।
सांसदों का निर्विरोध निर्वाचित होना कोई नई बात नहीं है। लेकिन जिस तरह से कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी अपने उम्मीदवार के लिए प्रस्तावक उपलब्ध नहीं कर सकी, वह पार्टी की राजनीति के लिए चिंताजनक बात है। इसके अलावा जिस तरह से आठ उम्मीदवारों ने एकाएक अपना नामांकन वापस लिया, वह भी एक बार के लिए संदेह करने पर मजबूर करता है। इससे चुनाव आयोग के निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव कराने पर भी सवाल उठते हैं। इसमें उन परिस्थितियों की भी पड़ताल की जानी चाहिए जिसकी वजह से बाकी प्रत्याशियों ने नामांकन वापस लिए, ताकि चुनाव आयोग के लोकतांत्रिक प्रणाली से आम मतदाता का विश्वास उठ न जाए। बहरहाल गुजरात उच्च न्यायालय ने सूरत लोकसभा सीट के विजेता के रूप में भाजपा उम्मीदवार मुकेश दलाल की घोषणा को चुनौती देने वाली एक मतदाता द्वारा दायर जनहित याचिका (पीआईएल) पर तत्काल सुनवाई करने से इनकार कर दिया।