यौन और प्रजनन स्वास्थ्य किसी व्यक्ति का स्वास्थ्य हर मायने में सही रहे, इसके लिए जरूरी है। यौन और प्रजनन स्वास्थ्य का ध्यान रखना, समय से चिकित्सक के पास जाना, समय-समय पर जांच करवाना, यौन और प्रजनन स्वास्थ्य के मद्देनजर जरूरी है। संयुक्त राष्ट्र ने प्रजनन स्वास्थ्य को प्रजनन प्रणाली से संबंधित सभी मामलों में पूर्ण शारीरिक, मानसिक और सामाजिक कल्याण की स्थिति के रूप में परिभाषित किया गया है। इसका मतलब है कि लोग एक संतोषजनक और सुरक्षित यौन जीवन जीने में सक्षम हैं। वे प्रजनन करने में सक्षम हैं और उन्हें यह निर्णय लेने की स्वतंत्रता है कि वे ऐसा कब और कितनी बार करेंगे।
लेकिन देश में अक्सर यौन और प्रजनन स्वास्थ्य पर बातचीत नहीं होती। खासकर महिलाओं के यौन और प्रजनन स्वास्थ्य के मामले में बात करना ही एक तरह से टैबू है। ऐसी कई प्रथाएं हैं जो महिलाओं के मानवाधिकार का हनन कर रही हैं। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार महिलाओं का यौन और प्रजनन स्वास्थ्य कई मानवाधिकारों से संबंधित है। इसमें जीवन का अधिकार, शोषण से मुक्त होने का अधिकार, स्वास्थ्य का अधिकार, निजता का अधिकार, शिक्षा का अधिकार और भेदभाव का निषेध शामिल है।
महिलाओं का शरीर पितृसत्तातमक समाज में सिर्फ जिज्ञासा का विषय रहा है। लेकिन रूढ़िवादी सोच के अनुसार यह जिज्ञासा सिर्फ घरों में कामुकता के तौर पर सीमित हो जाती है। वह अमूमन सिर्फ एक वस्तु मानी जाती है, जिसे बिना किसी शर्त के शादी के बाद यौन संबंध के लिए तैयार होना चाहिए। हमारे समाज ने महिलाओं के स्वास्थ्य को हमेशा से नज़रअंदाज किया है। उन पर कई पाबंदियां लगाई गई हैं। महिलाओं को उनके यौन और प्रजनन स्वास्थ्य से तो बिलकुल ही वंचित रखा गया है। यहां महिलाओं के एजेंसी और इच्छा की बात नहीं होती। आज भी बहुत से लोग महिलाओं को सदियों से चलती आ रही कुप्रथाओं का शिकार बना रहे हैं। ऐसी ही कुछ प्रथाओं का जिक्र हम आज इस लेख में करेंगे। साथ ही यह भी समझने की कोशश करेंगे कि आगे का रास्ता क्या हो सकता है।
फीमेल जेनिटल म्यूटिलेशन (एफजीएम)
महिला जननांग विकृति या एफजीएम एक अभ्यास है जिसमें गैर-चिकित्सक कारणों से लड़कियों या महिलाओं के जननांग को बदला या घायल कर दिया जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) ने जननांग के आंशिक या पूरी तरह हटाने या चोट पहुंचाने वाली सभी प्रक्रियाओं को एफजीएम के अंतर्गत चिन्हित किया है। डब्लूएचओ ने एफजीएम के चार प्रकारों की पहचान की है। इनमें टाइप-1 क्लिटोरिडेक्टमी, टाइप-2 एक्ससीसन, टाइप-3 इन्फिबुलेशन और टाइप-4 प्रक्रियाओं को शामिल किया गया है। यह प्रथा सिर्फ किसी एक समुदाय में नहीं हो रही बल्कि दुनिया में कई जगहों पर हो रही हैं जिसमें दक्षिण-एशियाई और अफ्रीकी देश शामिल हैं।
फीमेल जेनिटल म्यूटिलिएशन का कोई वैज्ञानिक कारण नहीं है। आम तौर पर ये सामाजिक और धार्मिक कारणों की वजह से ही लिए जाते हैं। ऐसा मना जाता है कि इससे शादी से पहले विर्जिनिटी को बचाए रखा जाता है जो शादी के बाद पत्नी का अपने पति के लिए वफादारी और पुरुषों के पुरुष यौन सुख को बढ़ाने के रूप में माना जाता है। कुछ समुदायों में इसे महिला की नारीत्व जीवन में प्रवेश के रूप में माना गया है। वहीं कई समुदायों में महिला के जननांग को गंदा और बदसूरत मानकर भी यह प्रथा की जाती है। फीमेल जेनिटल म्यूटिलिएशन न सिर्फ औरतों के यौन और प्रजनन स्वास्थ्य को खतरे में डाल देती है बल्कि यह मानवाधिकारों का उलंघन करता है। यह एक तरह से यौन हिंसा भी है।
पीरियड का खून अपवित्र होता है
आज के दौर में भी कई गांवों और कस्बों में महज एक जैविक प्रक्रिया ‘पीरियड्स’ किसी व्यक्ति को विशेष कर महिला को ‘अपवित्र’ बना देता है। यह मान्यता हमारे घरों में भी मौजूद है जिसकी वजह से पीरियड्स में महिलाओं को मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया जाता, पूजा नहीं करने दिया जाता, रसोई में प्रवेश मना होता है या अचार जैसे सामग्री को छूना भी मना किया जाता है। पीरियड्स होने के वैज्ञानिक कारण को जाने बगैर यह धारणा कि पीरियड्स होने के दौरान महिलाएं अपवित्र होती हैं, यौन हिंसा को बढ़ावा देता है। महिलाओं को पीरियड्स होने पर या उस दौरान सामान्य जीवन या कामकाज से दूर रखना मानवाधिकार का हनन है।
इनफर्टिलिटी सिर्फ औरतों की वजह से होती है
अक्सर पितृसत्तात्मक समाज में ऐसा माना जाता है कि जब किसी जोड़े को बच्चा करने में कोई परेशानी होती है, तो यह महिला की ही समस्या है। हालांकि ये एक मिथक है कि इसकी जिम्मेदारी सिर्फ महिला की है। इनफर्टिलिटी से पुरुष या महिला कोई भी ग्रसित हो सकता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार इनफर्टिलिटी पुरुष या महिला प्रजनन प्रणाली की एक बीमारी है, जो 12 महीने या उससे अधिक नियमित असुरक्षित यौन संबंध के बाद गर्भधारण करने में विफल हो, तो कही जाती है। इंडियन सोसाइटी ऑफ असिस्टेड रिप्रोडक्शन के अनुसार, भारत में पुरुषों और महिलाओं सहित लगभग 27.5 मिलियन इंफरटाइल लोगों की आबादी है। इनफर्टिलिटी जैविक या अन्य कारणों से हो सकती है और इसका किसी एक जेंडर से कोई संबंध नहीं।
अबॉर्शन से इनफर्टिलिटी बढ़ता है
अबॉर्शन आम तौर पर प्रजनन क्षमता और भविष्य की गर्भावस्थाओं को प्रभावित नहीं करता है। एक व्यक्ति अबॉर्शन के बाद पहले ओव्यूलेशन चक्र के दौरान गर्भवती हो सकते है, जोकि 2 सप्ताह के भीतर भी हो सकता है। जो कोई भी अबॉर्शन के कुछ हफ्तों के भीतर यौन संबंध बनाते हैं, और गर्भवती नहीं होना चाहते हैं, उन्हें गर्भनिरोधक का उपयोग करना चाहिए। अधिकांश समय, जिन लोगों का अबॉर्शन हुआ है वे स्वस्थ गर्भधारण कर सकते हैं।
वर्जिनिटी टेस्ट
आपने टू-फिंगर टेस्ट के बारे में सुना ही होगा। यह अवैज्ञानिक टू-फिंगर परीक्षण कई दक्षिण एशियाई देशों में चिकित्सा परीक्षण के हिस्से के रूप में उपयोग किया जाता रहा है। इस परीक्षण में एक चिकित्सक रेप सर्वाइवर की योनि में दो उंगलियां डालकर यह निर्धारित करने का प्रयास करता है कि हाइमन टूटा हुआ है या नहीं। भारत में इस परीक्षण का उपयोग रेप सर्वाइवर सेक्शुअल रूप में ऐक्टिव है या नहीं इसे पता लगाने के लिए किया जाता था।
सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में टू-फिंगर टेस्ट को असंवैधानिक घोषित कर दिया था। कोर्ट ने कहा था कि यह परीक्षण रेप सर्वाइवरों की निजता, शारीरिक और मानसिक अखंडता और गरिमा के अधिकार का उल्लंघन करता है। हाइमन बहुत से कारणों से टूट सकता है। कोई खेलकूद के दौरान, रस्सी कूदते समय, भारी सामान उठाते समय या अगर कभी आप गिर गए या चोट लगी तो भी उससे भी हाइमन के टूट जाने की वजह बन सकती है।
कैसे इन कुप्रथाओं को रोक सकते हैं
कोई भी कुप्रथा अबतक सिर्फ इसीलिए चली आ रही है क्योंकि लोगों के बीच जागरूकता नहीं है या जागरूकता के बावजूद धार्मिक कारणों से लोग कोई कदम उठाने में संकोच कर रहे हैं। इसलिए, कोई भी प्रक्रिया को वैज्ञानिक नजरिए से देखना जरूरी है। हर ऐसे कुप्रथा के पीछे लैंगिक असमानता की भावना काम करती है। महिलाओं के शरीर पर उनको ही एजेंसी नहीं दी जाती है। कई बार जागरूकता के बाद भी कुप्रथाओं का भवर समाज के अल्पसंख्यक वर्ग जैसे महिलाओं, क्वीयर समुदाय पर ज्यादा होता है। पितृसत्तात्मक सोच के अंतर्गत महिलाएं अपने शरीर से जुड़े फैसले खुद ले, ये इजाज़त नहीं है।
हालांकि आम तौर पर पीरियड्स जैसे विषयों पर सरकार की योजनाएं हैं, लेकिन ये आम धारणाओं, रूढ़िवाद और मिथकों को नजरन्दाज़ करती है। ऐसे में नीतियों में समावेशिता की कमी दिखाई देती है। चूंकि महिलाएं समाज में आखिरी पायदान पर खड़ी हैं, इसलिए ऐसे नियम उनपर थोपा जाना आसान है। इसके अलावा, चिकित्सकों को भी पितृसत्तात्मक नजरिए को भूलकर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इलाज करना होगा। महिलाओं के शरीर को नैतिक मूल्यों से जोड़ा नहीं जाना चाहिए और न ही महिला के शरीर को कोई वस्तु समझा जाना चाहिए।