स्वास्थ्यशारीरिक स्वास्थ्य कोरोना की चपेट में है फीमेल जेनाइटल म्यूटिलेशन, उन्मूलन का रास्ता अभी दूर

कोरोना की चपेट में है फीमेल जेनाइटल म्यूटिलेशन, उन्मूलन का रास्ता अभी दूर

विश्व स्तर पर, इस समय लगभग 200 मिलियन महिलाएं और लड़कियां हैं जिन्हें एफजीएम के किसी न किसी रूप के दर्दनाक प्रक्रिया से गुज़रना पड़ा है।

धार्मिक कट्टरपन या पितृसत्ता से उपजे नियम, कानून और सामाजिक व्यवस्था कभी लैंगिक समानता की बात नहीं करती। ऐसे नियम, प्रथाएं या कानून प्रगतिशील समाज के लिए चुनौती होते हैं। ऐसे ही कारणों से जन्मी एक दर्दनाक और खतरनाक प्रथा है फीमेल जेनिटल म्यूटिलेशन (एफजीएम), जिसे हिंदी में ‘महिलाओं का ख़तना’ कहा जाता है। फीमेल जेनिटल म्युटिलेशन, जिसे सांस्कृतिक या धार्मिक परंपरा माना जाता है, वह असल में शारीरिक, आर्थिक और सामाजिक समस्या है। पितृसत्ता के झांसे में आकर लड़कियों को इस मानवाधिकार विरोधी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। साल 2012 में, संयुक्त राष्ट्र महासभा ने सर्वसम्मति से फीमेल जेनिटल म्युटिलेशन के खिलाफ पहला संकल्प अपनाया था ताकि इस प्रथा को खत्म करने के लिए विश्व स्तर पर सशक्त प्रयासों का आह्वान किया जा सके। साल 2015 में, एफजीएम को सतत विकास लक्ष्यों में भी शामिल किया गया था। इसके बावजूद, संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष के अनुसार, पूरी दुनिया में लगभग 30 देशों में लड़कियों पर आज भी एफजीएम किए जाते हैं। इन देशों में 15 से 19 वर्ष तक की लड़कियों में हर तीन में से एक को इस प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है।

68 मिलियन लड़कियों को एफजीएम का खतरा

विश्व स्तर पर, इस समय लगभग 200 मिलियन महिलाएं और लड़कियां हैं जिन्हें एफजीएम के किसी न किसी रूप के दर्दनाक प्रक्रिया से गुज़रना पड़ा है। जबकि ऐसे देशों में जहां एफजीएम प्रचलित है, वहां इसकी संख्या में कमी हुई है। लेकिन इनमें से अधिकांश देशों में तेजी से जनसंख्या वृद्धि हो रही है। इसका अर्थ है कि इस दर से अगर एफजीएम किया जाता रहा, तो इस से गुजरने वाली लड़कियों की संख्या भी मौजूदा गति से ही बढ़ती रहेगी। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष का अनुमान है कि साल 2030 तक 68 मिलियन लड़कियों को एफजीएम से गुजरने का खतरा है। ध्यान रहे कि यह एक ऐसी प्रथा है जिसमें चिकित्सक कारणों की ज़रूरत के बिना परंपरा या संस्कृति की दलील देकर लड़कियों के जननांग का कुछ हिस्सा काटकर उसमें बदलाव किया जाता है। इसे मुख्य रूप से 15 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों के साथ की जाती है, यानी 10, 9 या 8 साल, या उससे भी कम में यह प्रक्रिया की जाती है।

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क्या है ये एफजीएम ?

महिला जननांग विकृति या एफजीएम एक अभ्यास है जिसमें गैर-चिकित्सक कारणों से लड़कियों या महिलाओं के जननांग को बदला या घायल कर दिया जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) ने जननांग के आंशिक या पूरी तरह हटाने या चोट पहुंचाने वाली सभी प्रक्रियाओं को एफजीएम के अंतर्गत चिन्हित किया है। डब्लूएचओ ने एफजीएम के चार प्रकारों की पहचान की है। इनमें टाइप-1 क्लिटोरिडेक्टमी, टाइप-2 एक्ससीसन, टाइप-3 इन्फिबुलेशन और टाइप-4 प्रक्रियाओं को शामिल किया गया है।

एफजीएम के कारण

ऐसे देशों में या समुदायों में, जहां एफजीएम का प्रचलन है, वहां इसकी उपज का कारण लैंगिक असमानता है। जहां इसका व्यापक रूप से अभ्यास किया जाता है, वहां भी एफजीएम को आमतौर पर बिना किसी सवाल के पुरुष और महिलाएं दोनों समर्थन करते हैं। समुदाय में जो इस प्रथा का पालन नहीं करता है, उसे निंदा, उत्पीड़न और सामूहिक बहिष्कार का सामना करना पड़ सकता है। इसलिए किसी परिवार के लिए व्यापक सामुदायिक समर्थन के बिना इस अभ्यास को बंद करना मुश्किल होता है। विभिन्न समुदाय के लोगों का मानना है कि इससे होने वाले सामाजिक और धार्मिक लाभ लड़कियों को होने वाले नुकसान से कहीं अधिक है। एफजीएम को महिलाओं की कामुकता को नियंत्रित करने के एक तरीके के रूप में किया जाता है। इससे शादी से पहले विर्जिनिटी को सुनिश्चित करना और बाद में वफादारी और पुरुष यौन सुख को बढ़ाना माना जाता है। कुछ समुदायों में इसे महिला की नारीत्व जीवन में प्रवेश के रूप में माना गया है। कभी-कभी महिला के जननांग को गंदा और बदसूरत माना जाता है और इस लिए भी एफजीएम की जाती है तो कई बार एफजीएम लड़कियों की शादी के लिए पहले से पूरा किया जाने वाला शर्त है। 

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कोरोना का एफजीएम पर असर

कोविड- 19 के महामारी ने हर तरह से लड़कियों और महिलाओं को अधिक प्रभावित किया है। चाहे लड़कियों की शिक्षा की बात हो, महिलाओं की नौकरी जाने की बात हो या उनका मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य हो, कोरोना के मार ने इन्हें पुरुषों की तुलना में अधिक नुकसान पहुंचाया है। 2018 में, संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष ने अनुमान लगाया गया था कि विश्व स्तर पर 68 मिलियन लड़कियों को एफजीएम से गुजरने का खतरा था। कोरोना के कारण, अब यह आंकड़ा 70 मिलियन हो चूका है।

एफजीएम का चलन न केवल बर्बर है, बल्कि एक महिला के स्वास्थ्य के लिए भी जोखिम भरा है। एफजीएम के तात्कालिक ख़तरनाक परिणामों में संक्रमण, तेज दर्द, जननांग में सूजन, अत्यधिक रक्तस्राव, पीरियड्स या यौन गतिविधियों और पेशाब के दौरान तकलीफ़ शामिल हैं। जिन महिलाओं का एफजीएम कर दिया जाता है, उन्हें बच्चे को जन्म देने समय खतरनाक परिस्थितियों का भी सामना करना पड़ता है। इसके अलावा कुछ ऐसी बीमारियां भी होते देखी गई हैं जिनका असर जीवनभर रहता है। साथ ही इस प्रक्रिया का मनोवैज्ञानिक प्रभाव होता है, जो अकसर आजीवन रह जाता है।

ऐसे देशों में या समुदायों में, जहां एफजीएम का प्रचलन है, वहां इसकी उपज का कारण लैंगिक असमानता है। जहां इसका व्यापक रूप से अभ्यास किया जाता है, वहां भी एफजीएम को आमतौर पर बिना किसी सवाल के पुरुष और महिलाएं दोनों समर्थन करते हैं।

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एफजीएम के दुष्परिणामों में आर्थिक नुकसान भी शामिल है। 6 फरवरी को फीमेल जेनिटल म्यूटिलेशन के लिए जीरो टॉलरेंस के अंतर्राष्ट्रीय दिवस पर संयुक्त राष्ट्र ने कुछ आंकड़ों का संदर्भ देते हुए कहा कि एफजीएम के कारण स्वास्थ्य को होने वाले नुक़सान का इलाज करने और अन्य गतिविधियों पर हर साल लगभग एक अरब 40 करोड़ डॉलर का ख़र्च आता है। इन आंकड़ों से पता चलता है कि अनेक देश हर साल के अपने वार्षिक बजट का लगभग 10 प्रतिशत हिस्सा एफजीएम से स्वास्थ्य को होने वाले नुक़सान का इलाज करने पर ख़र्च करते हैं। जबकि कुछ देशों में ये ख़र्च उनके वार्षिक बजट का लगभग 30 फ़ीसदी होता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के यौन व प्रजनन स्वास्थ्य और शोध विभाग के निदेशक डॉक्टर ईयन ऐस्कियू का कहना है, ‘एफजीएम’ न केवल मानवाधिकारों का गंभीर और दर्दनाक उल्लंघन है जो करोड़ों महिलाओं और लड़कियों के न केवल शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य को गंभीर नुक़सान पहुंचाता है, बल्कि ये देश के आर्थिक संसाधन को भी बर्बाद करता है।’

संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष और यूनिसेफ के संयुक्त कार्यक्रम से साल 2018 में, दुनिया भर के ऐसे देशों में जहां इसका प्रचलन है, 131 गिरफ्तारियां हुई, 123 मामले अदालत में आए और 30 दोषियों का दोष सिद्ध किया गया और प्रतिबंध लगे। 2,455 समुदायों ने एफजीएम को परित्याग करने की सार्वजनिक घोषणा की। 83,068 लड़कियों ने एफजीएम के अंतर्गत क्षमता निर्माण पैकेज से लाभ उठाया और 4,258  लड़कियां इस पैकेज को पूरा करने के बाद खुद इसकी एजेंट बनी। पूरी दुनिया में 560,271 लड़कियों और महिलाओं ने एफजीएम से संबंधित स्वास्थ्य सेवाएं प्राप्त की, 231,375 ने सामाजिक सेवाएं प्राप्त की और 83,812 कानूनी सेवाएं प्राप्त कर पाई।

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एफजीएम पर भारत की चुप्पी

एफजीएम की क्रूर प्रथा केवल मिडिल ईस्ट या अफ्रीका में ही नहीं हो रहा है। भारत में दाओदी बोहरा समुदाय की लड़कियों को नियमित रूप से इसका सामना करना पड़ा है। नवंबर 2011 में बोहरा सम्प्रदाय की एक महिला ने ऑनलाइन याचिका दायर की थी जिसमें दाउदी बोहरा के धार्मिक नेता सैयदना मोहम्मद बुरहानुद्दीन को एफजीएम पर प्रतिबंध लगाने का अनुरोध किया गया था। मुंबई की दो ग्रुप, साहियो और वी स्पीक आउट, ने फरवरी 2016 में एफजीएम के खिलाफ ‘एवरी वन रीच वन’ नामक एक अभियान शुरू किया। साहियो ने भारत में पहली बार बोहरा महिलाओं पर एक ऑनलाइन सर्वेक्षण किया। इस सर्वेक्षण में पाया गया कि 80 प्रतिशत महिलाएं एफजीएम का सामना कर चुकी हैं और उन्होंने इस अनुभव को पीड़ादायक बताया। ख़ुशी की बात है कि 81 प्रतिशत महिलाएं चाहती थी कि यह प्रथा बंद हो। इतना ही नहीं, दाओदी बोहरा महिलाओं ने संयुक्त राष्ट्र में याचिका दायर की कि भारत को एक ऐसे देश के रूप में मान्यता दी जाए जहां एफजीएम का अभ्यास किया जाता है। मई 2017 में, दिल्ली स्थित अधिवक्ता सुनीता तिवारी ने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका (PIL) दर्ज की और भारत में एफजीएम पर प्रतिबंध लगाने की मांग की।

हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने 2019 में दाओदी बोहरा समुदाय में एफजीएम पर प्रतिबंध के मामले को सात न्यायाधीशों की पीठ को सौंप दिया था और कहा था कि इसे भी अन्य महिला अधिकार से संबंधित मामलों के साथ-साथ देखा जाए। लेकिन अब तक इस पर फैसला नहीं हुआ है। भारत में जहां एफजीएम के लिए न कोई कानून बना है, न कानूनी तौर से प्रतिबंध लगाया जा सका है। साल 2020 में, सूडान का एफजीएम को आपराधिक घोषित करना और इसके लिए अपराधी को तीन साल तक की जेल की सजा होने वाली खबर एक नई उम्मीद जगाती है। बोहरा समुदाय पर सरकारी सर्वेक्षण क्यों नहीं हो रहे या एफजीएम के खिलाफ क्यों कोई नीति अब तक नहीं अपनायी गयी यह एक विवादित सवाल है।

भारतीय दंड संहिता में बच्चों पर हो रहे यौन अपराधों के संरक्षण के ऐसे प्रावधानों के बावजूद, जो एफजीएम से निपट सकते हैं, यह परंपरा दशकों से चली आ रही है। इसलिए हमें एक विशिष्ट कानून की आवश्यकता है जिससे एफजीएम आपराधिक घोषित हो और जो इसके अभ्यास, प्रसार और समर्थन से संबंधित हो। एफजीएम, क्लिटोरिस, लेबिया जैसे शब्दों को कानूनी रूप से परिभाषित करने की भी आवश्यकता है। भारत जैसे विशाल और विविध देश में केवल कानून से ही इसे रोका नहीं जा सकता। इसलिए सामूहिक स्तर पर एफजीएम पर विस्तृत जानकारी, जागरूकता, बातचीत, सर्वाइवर्स की सहभागिता आवश्यक है।

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तस्वीर साभार : Femen

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