इंटरसेक्शनलजेंडर लोकसभा चुनाव 2024 में महिलाओं को उम्मीदवारी देने में पीछे सभी राजनीतिक पार्टियां

लोकसभा चुनाव 2024 में महिलाओं को उम्मीदवारी देने में पीछे सभी राजनीतिक पार्टियां

सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में से एनडीए और इंडिया ब्लॉक ने पश्चिम बंगाल में सबसे अधिक महिला उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है, जहां एनडीए ने आठ और विपक्षी गठबंधन ने नौ महिलाओं को चुनावी मैदान में उतारा है। एनडीए ने महाराष्ट्र में आठ, उत्तर प्रदेश में सात, मध्य प्रदेश और तमिलनाडु में छह-छह और केरल में पांच महिला उम्मीदवार हैं।

“महिला आरक्षण विधेयक ने नवरात्रि के लिए उत्साह बढ़ा दिया है। महिलाओं के विकास के नए रास्ते खुलेंगे। मैं भारत की सभी महिलाओं को इसके लिए बधाई देता हूं। स्वतंत्रता संग्राम में रानी लक्ष्मीबाई से लेकर चंद्रयान-3 में महिलाओं तक, हमने हर युग में साबित किया है कि महिला नेतृत्व क्या है। यह कानून 30 वर्षों से लंबित था। लेकिन अब यह संसद के दोनों सदनों में पारित हो गया है।” यह बयान प्रधानमंत्री मोदी ने बीते वर्ष संसद में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के 33 प्रतिशत आरक्षण अधिनियम के पास होने के समय दिया था। इस बिल का श्रेय लेने के लिए सभी राजनैतिक पार्टियां लाइन में आगे खड़ी थी और हर कोई खुद को महिलाओं की सबसे बड़ी हितैषी घोषित करने में लगी थी। बिल के पास होने से भारतीय राजनीति में प्रतिनिधित्व में सुधार की उम्मीद भी जगी। लेकिन 2024 के लोकसभा चुनावों में महिला उम्मीदवारों का प्रतिनिधित्व भारतीय राजनीति में लैंगिक पूर्वाग्रह को साफ जाहिर करता है। साथ ही यह भी दिखाता है कि राजनीतिक पार्टियों की कथनी और करनी में बड़ा अंतर है। 

संसद में महिलाओं का कम प्रतिनिधित्व लगातार चिंता का विषय है। राजनीति में महिला नेतृत्व और संसद में महिलाओं की अनुपस्थिति भारतीय राजनीति में जेंडर गैप को दिखाती है। राजनीति में प्रतिनिधित्व और नेतृत्व में प्रतिनिधित्व दोनों बहुत महत्वपूर्ण है लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में उसकी आधी आबादी अभी भी अपने प्रतिनिधित्व की बांट देख रही है। राजनीतिक पार्टियां सक्रिय रूप से महिलाओं को चुनाव के मैदान में उतारने के बजाय महिला आरक्षण अधिनियम के लागू होने का इंतजार क्यो कर रही है। आखिर क्यों पार्टियों की महिला कार्यकर्ताओं की चुनाव में भागीदारी मजबूत नहीं हो पाती है। क्यों महिला नेताओं की उम्मीदवारी को राजनीतिक पार्टियां नहीं बढ़ा पाती है।

2019 के आम चुनाव में महिला मतदाताओं की कुल संख्या 30 करोड़ थी वहीं 2024 के आम चुनाव में यह संख्या बढ़कर 47 करोड़ होने का अनुमान है। इसके साथ ही महिलाओं के मतदान प्रतिशत में भी धीरे-धीरे वृद्धि हुई है।

आम चुनाव 2024 में महिलाओं की हिस्सेदारी

आम चुनाव नागरिकों के लिए अपने संवैधानिक अधिकारों का उपयोग करने और देश के भविष्य को तय करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। लेकिन महिला नेतृत्व के लिए यह चुनाव जस का तस है। आज देश में महिला मतदाताओंं का वोटिंग प्रतिशत लगातार बढ़ रहा है लेकिन उम्मीदवारी कम है। सात चरणों में होने वाले चुनाव का चार चरण की वोटिंग हो चुकी हैं। आगामी चरणों के उम्मीदवारों घोषणा भी हो चुकी है और तमाम आंकड़े दिखा रहे है कि इस चुनाव में भी महिला को टिकट देने में पार्टियां फिसड्डी साबित हुई है।

चुनाव का पहला चरण 19 अप्रैल को समाप्त हुआ। 102 सीटों के लिए हुए इस पहले चरण के मतदान में महिला प्रत्याशियों की संख्या 134 थी जो कि कुल प्रत्याशियों का मात्र 8.2% है। वहीं 26 अप्रैल को 87 संसदीय सीटों के लिए होने वाले चुनाव में महिला प्रत्याशियों की संख्या में मामूली बढ़त आई है जो कि 8.6% है। दूसरे चरण के लिए होने वाले मतदान में सर्वाधिक महिला प्रत्याशियों की संख्या 25 है जो कि केरल से हैं। इसके बाद महाराष्ट्र और कर्नाटक का नंबर आता है, जहां प्रत्येक में 21-21 महिला प्रत्याशी चुनाव लड़ रही हैं। अगर बात की जाए एक लोकसभा क्षेत्र से सर्वाधिक महिलाओं द्वारा चुनाव लड़े जाने की तो इसमें कर्नाटक का बेंगलुरू नॉर्थ पीसी और महाराष्ट्र का अमरावती चुनाव क्षेत्र सबसे आगे है। इन दोनों लोकसभा क्षेत्र में प्रत्येक से 6-6 महिला प्रत्याशी चुनाव लड़ रही हैं।

तीसरे चरण के चुनाव में 1,352 उम्मीदवार मैदान में थे जिसमें से केवल 9 प्रतिशत महिलाएं हैं। वहीं चौथे चरण के 1,717 उम्मीदवारों में से 170 यानी 10 फीसदी उम्मीदवार महिलाएं हैं। पहले दो चरणों में यह दर 8 प्रतिशत रही। 20 मई को होने वाले पाँचवें चरण में केवल 12 प्रतिशत उम्मीदवार महिलाएं हैं। कुल 695 उम्मीदवारों में से केवल 82 महिलाएं हैं। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि जहां 2019 के आम चुनाव में महिला मतदाताओं की कुल संख्या 30 करोड़ थी वहीं 2024 के आम चुनाव में यह संख्या बढ़कर 47 करोड़ होने का अनुमान है। इसके साथ ही महिलाओं के मतदान प्रतिशत में भी धीरे-धीरे वृद्धि हुई है। 1962 के आम चुनाव में महिला मतदाताओं का मत प्रतिशत पुरुषों की तुलना में 16.7 फीसद   कम था जिसमें पिछले लोकसभा चुनाव 2019 तक आते-आते 17 फीसद की बढ़ोतरी हुई है। इसलिए राजनीति में महिलाओं की भूमिका को अनदेखा नहीं किया जा सकता।

लगभग आज से आठ महीने पहले सभी राजनीतिक पार्टियां एक सुर में महिलाओं के 33 फीसद आरक्षण अधिनियम के पास होने पर अपनी पीठ थपथपा रही थी। अधिनियम के पास होने को देश में एक नई सुबह बताने के बाद आज की तस्वीर सामने है। न्यूजलॉड्री में प्रकाशित जानकारी के मुताबिक़ भाजपा के घोषित 416 लोकसभा चुनाव उम्मीदवारों में से केवल 68 महिलाओं को टिकट दिया गया है। यह केवल 16.3 प्रतिशत है, जो कानून के तहत निर्धारित 33 प्रतिशत से काफी कम है। कांग्रेस पार्टी जिसने महिला आरक्षण बिल को अपना बिल बताते पर पूरा जोर लगाया था। इतना ही नहीं उत्तर प्रदेश विधानसभा 2022 के चुनाव में “लड़की हूं लड़ सकती हूं” का नारा दिया था उसकी स्थिति और भी खराब है। पार्टी के द्वारा घोषित शुरुआती 237 उम्मीदवारों के विश्लेषण से पता चलता है कि पार्टी ने महज 33 महिलाओं का टिकट दिया है। यह लगभग 14 प्रतिशत है।

पार्टियां महिला नेताओं की मेहनत को नहीं देखती

तस्वीर साभारः फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बनर्जी

दिल्ली में आम आदमी पार्टी से लंबे समय से जुड़ी और वर्तमान में भाजपा में शामिल महिला नेता ने नाम न जाहिर करने की शर्त पर कहती है, “भारतीय राजनीति में चाहे किसी भी पार्टी की हो बड़ी-बड़ी महिला नेता हुई हैं। महिलाएं अपने व्यवहार से परिपक्व होती हैं। जितनी भी महिलाओं ने ऊँचे पदों पर काम किया है उन्होंने एक सिस्टम बनाकर काम करने की कोशिश की है जो बहुत सफल रहा है। यह वजह है कि अगर महिलाओं को ज्यादा मौका दिया जाएगा तो पुरुषों का वर्चस्व खतरे में आ जाएगा। पुरुषों को इसी का डर रहता है अगर ये स्थापित हो गई तो हमारी सत्ता में कोई वापसी नहीं होगी। आप किसी भी पार्टी को देख लो वहां महिलाओं की कोई जगह नहीं है। आम आदमी पार्टी में ही देख इस इलेक्शन में किसी महिला को टिकट नहीं दिया गया है। इस पार्टी में जहां बात होती है महिला सशक्तिकरण की बात होती है लेकिन तीन सीट में से आपने एक भी महिला को टिकट नहीं दिया है। तो बोलने और कहने में यहां भी बहुत फर्क है।” 

वह आगे कहती है, “महिलाओं के साथ इन पार्टियों में केवल छलावा होता है। भाजपा, कांग्रेस और आप कोई भी पार्टी हो सब जगह अधिकतर महिलाओं को एक शोपीस की तरह इस्तेमाल किया जाता है। धरना प्रदर्शन हो, आंदोलन हो, हंगामा खड़ा करवाना है हर जगह महिलाएं होती हैं लेकिन जिस समय पदों को देने की बात आती है तो हमेशा पुरुषों को वरीयता दी जाती है। तब कहा जाता है कि वे इतनी सशक्त नहीं हैं, उनके पास संसाधन नहीं है या परिवार की वजह से वह काम नहीं कर पाएगी तो इस तरह से राजनीतिक पार्टियों में भी उनको लिमिट कर दिया जाता है। मैंने राजनीति में जितना भी वक्त बिताया है तो मेरी समझ में यही आया है। तीनों पार्टियों में महिलाओं को सुविधा अनुसार इस्तेमाल किया जाता है। जब ये पार्टियां अपनी कोर कमेटी में ही महिलाओं को प्रतिनिधित्व नहीं दे पाती है तो बाकी पद आदि तो बहुत दूर की बात है। बात तो केवल बराबरी की होती है ज्यादा की नहीं लेकिन राजनीतिक पार्टियों के भीतर बराबरी जैसा कुछ नहीं है।”

राजनीति के पुरुषवादी चेहरे को बदलने की है ज़रूरत

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस नेता नीलम गौतम का राजनीतिक पार्टियों में महिलाओं के नेतृत्व और भागीदारी पर बोलते हुए कहना है, “मैं यह कहूं कि मुझे कांग्रेस से कुछ नहीं मिला तो यह गलत है। मैंने बतौर कांग्रेसी इस क्षेत्र में नाम कमाया है, मंडल प्रभारी तक रही हूं, टिकट बंटवारे का काम किया है लेकिन अगर पार्टियों में महिला कार्यकर्ता और नेता के परिदृश्य से ईमानदारी से बोलते हुए कहूं तो स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। भारतीय राजनीति का चेहरा पुरुषवादी है यहां पुरूषों के लिए राजनीति अच्छी है और वहीं औरतों के लिए यह एक गंदा नाला है। मैंने 30 साल से ज्यादा सक्रिय राजनीति की है। लखनऊ और दिल्ली के तमाम प्रदर्शनों और मीटिंगों में हिस्सा लिया है लेकिन फिर से कहूंगी इस राजनीति का चेहरा आज भी पुरुषों का है। आप इस चुनाव में देख लीजिए पार्टियों के बड़े-बड़े होर्डिंग पर महिला नेताओं का प्रतिनिधित्व कहा है?, चुनावी मंचों पर महिला नेता दिखती है। हर जिला, ब्लॉक स्तर पर महिला कार्यकर्ता होती है लेकिन उनको न तो वो सम्मान मिलता है और न ही महत्व दिया जाता है। जब एक आम महिला कार्यकर्ता चुनाव में होती है तो उसे वो सहयोग नहीं दिया जाता है जो एक पुरुष उम्मीदवार को दिया जाता है। पार्टियों के भीतर की स्थिति वैसी ही जैसी हर क्षेत्र में है। बदलाव चाहते है तो उसकी शुरूआत यही से खुद से करनी होगी लेकिन सत्ता सबको प्यारी है इस वजह से कोई इसे बदलने के लिए तैयार नहीं है।”   

महिला सशक्तिकरण के नाम पर पार्टियों को आत्मचिंतन करने की है आवश्यकता

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ छात्र नेता के तौर पर काम करती आ रही विनती (बदला हुआ नाम) आज जिला स्तर की नेता है। राजनीतिक पार्टियों द्वारा महिलाओं को टिकट क्यों नहीं दिया जाता है इस पर उनका कहना है, इसमें कोई दो राय तो नहीं है कि राजनीति के भीतर पार्टियों की कार्यशैली एक पितृसत्तात्मक और विशेषाधिकार वाली है। एक साधारण परिवार की मेरे जैसी लड़की अगर यह सोचती है कि क्या मुझे भविष्य में विधानसभा या लोकसभा का टिकट मिलेगा तो मैं तुरंत हाँ कहने से बचूंगी और इस वाक्य से आपकी समझ में पूरा परिदृश्य सामने आता है। क्यों एक पार्टी की साधारण महिला कार्यकर्ता यह कहते हुए हिचक रही है कि मुझे भविष्य में टिकट मिलेगा। संसद में महिला आरक्षण अधिनियम के बाद उम्मीद की जा सकती है लेकिन बिना आरक्षण के महिलाओं का प्रतिनिधित्व समान होना चाहिए था।”

वह आगे कहते हैं, “चुनाव में महिला कार्यकर्ता मुंह देखती रह जाती है और रिजर्व सीट पर किसी बड़े नेता की ही पत्नी या बेटी को टिकट दे दिया जाता है। यह दिखाता है कि राजनीति में ताकत और पैसा का रूतबा है। यह एक बड़ी वजह है कि महिलाओं को टिकट उम्मीदवारी को कम महत्व दिया जाता है। राजनीति में बाहुबल, पैसा कितना हावी है यह किसी से छिपा नहीं है। करोड़ों में बात होती है। इस देश में महिलाओं की संपत्ति के अधिकार की क्या स्थिति है ये सब हम जानते ही है। देखिए इस देश की आबादी में जिसका जितना प्रतिनिधित्व है उतना ही उसका संसंद में, संसाधनों पर प्रतिनिधित्व होना चाहिए। परिसीमन के बाद संसद में महिला का प्रतिनिधित्व 33 फीसद होगा। यह भी एक लंबी लड़ाई और इंतजार से होगा लेकिन ऐसा होना नहीं चाहिए। जबतक राजनीति के पुरुषवादी, बाहुबल, ताकत वाले रवैये को नहीं बदला जाएगा तबतक राजनीति सबको सरोकार वाली नहीं बन पाएगी। जब तक राजनीतिक पार्टियों के खुद के स्ट्रक्चर में सुधार नहीं होगा तबतक बदलाव की नींव नहीं रखी जाएगी। मैं तो सिर्फ इतना कहूंगी की हर राजनीतिक पार्टियों और वर्तमान के मौजूदा बड़े नेताओं को महिला सशक्तिकरण के नाम पर पहले खुद आत्मचिंतन करने की ज़रूरत है।” 

घोषणा पत्र में वादे लेकिन टिकट देने में पीछे

एक तरफ जब टिकट देने की बात आती है तो वहां महिलाओं को नज़रअंदाज किया जाता है लेकिन महिलाओं के वोट के लिए हर पार्टी हाथ जोड़ती नज़र आती है। तमाम आंकड़े दिखाते है कि देश में महिलाओं का वोटिंग प्रतिशत बढ़ रहा है। साल 2014 के चुनाव में महिला वोटर्स की संख्या में 10 फीसद की वृद्धि के बाद से हर पार्टी इसे अपने हिस्से में लाना चाहती है। ऐसे कई राज्य है जहां एनडीए और इंडिया गठबंधन दोनों ने एक भी महिला उम्मीदवार को मैदान में नहीं उतारा है। अरूणाचल प्रदेश, मणिपुर, मिजोरम, सिक्किम, पुडुचेरी, लक्षद्वीप और अंडमान और निकोबार द्वीप समूह। दोनों गठबंधनों ने इन राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों की सभी सीटों के लिए उम्मीदवारों की घोषणा कर दी है।  इंडिया गंठबंधन ने उत्तराखंड, मेघालय, दादरा और नगर हवेली, गोवा, नागालैंड और त्रिपुरा सहित अन्य द राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में महिला उम्मीदवारों को टिकट नहीं दिया है। 

सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में से एनडीए और इंडिया ब्लॉक ने पश्चिम बंगाल में सबसे अधिक महिला उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है, जहां एनडीए ने आठ और विपक्षी गठबंधन ने नौ महिलाओं को चुनावी मैदान में उतारा है। एनडीए ने महाराष्ट्र में आठ, उत्तर प्रदेश में सात, मध्य प्रदेश और तमिलनाडु में छह-छह और केरल में पांच महिला उम्मीदवार हैं। दूसरी ओर इंडिया गठबंधन ने उत्तर प्रदेश में आठ, महाराष्ट्र में छह, तमिलनाडु में छह और गुजरात और बिहार में चार-चार महिला उम्मीदवारों को लोकसभा चुनाव का टिकट दिया है। विभिन्न राजनीतिक दलों ने अपने-अपने घोषणापत्र में महिलाओं के मुद्दों को जगह दी है लेकिन टिकट के नाम पर स्थिति सोचनीय है। 

शुरू से लेकर संसद में महिला सांसद

तस्वीर साभारः फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बनर्जी

आज़ादी के बाद हुए पहले आम चुनाव में लोकसभा में संसद के तौर पर महिलाओं की भागीदारी 5% थी। इसके बाद 1957 में हुए दूसरे आम चुनाव में कुल महिला उम्मीदवारों की संख्या 45 थी जो कि चुनाव लड़ने वाले कुल प्रत्याशियों की संख्या का 2.9 फीसद थी। इनमें से 22 महिला प्रत्याशियों ने जीत दर्ज़ की। इस प्रकार इनकी सफलता दर 48.8 फीसद थी। इसकी तुलना अगर 2019 के आम चुनाव से की जाए तो हम देखते हैं कि महिला प्रत्याशियों में सफलता का दर घट कर 10.74 फीसद पर आ गया। इस बार 726 महिला उम्मीदवारों में से 78 ने जीत हासिल की और इस प्रकार इनकी सफलता का दर 14.4 फीसद था। आज़ादी के इतने सालों बाद भी राजनीति में महिलाओं को वह प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाया है जिसकी वह हक़दार हैं।

संसद में 33 फीसद महिला आरक्षण अधिनियम 

पिछले साल 2023 में संसद में सदस्यों के सर्वसम्मति से महिलाओं को लोकसभा और राज्य की विधानसभाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण देने से संबंधित अधिनियम पारित किया। हालांकि इसका क्रियान्वयन 2026 के बाद होने वाली पहली मतगणना के बाद किए गए चुनावी क्षेत्रों के परिसीमन के बाद लागू होगा। इस अधिनियम में यह प्रावधान है कि शुरू में इसे 15 वर्षों के लिए लागू किया जाएगा उसके बाद आवश्यकतानुसार इसकी अवधि को संसद द्वारा बढ़ाया जा सकेगा। ग़ौरतलब है कि पहली बार संसद में 1996 में महिला आरक्षण विधेयक पेश किया गया था। इसके बाद कई बार और प्रयास किए गए, लेकिन सदन में बहुमत न मिल पाने की वजह से यह पारित नहीं हो सका था।

राजनीतिक पार्टियों द्वारा महिलाओं को टिकट क्यों नहीं दिया जाता है इस पर उनका कहना है, इसमें कोई दो राय तो नहीं है कि राजनीति के भीतर पार्टियों की कार्यशैली एक पितृसत्तात्मक और विशेषाधिकार वाली है। एक साधारण परिवार की मेरे जैसी लड़की अगर यह सोचती है कि क्या मुझे भविष्य में विधानसभा या लोकसभा का टिकट मिलेगा तो मैं तुरंत हाँ कहने से बचूंगी और इस वाक्य से आपकी समझ में पूरा परिदृश्य सामने आता है।

राजनीति में महिलाओं के प्रतिनिधित्व है ज़रूरी 

राजनीति हो या कोई भी क्षेत्र, समाज के हर वर्ग के प्रतिनिधित्व और भागीदारी की आवश्यकता होती है। इससे सभी वर्गों को अपनी बात रखने और अपने मुद्दे तय करने का एक मंच मिलता है। इसके अलावा, भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और प्रशासन सभी स्तरों पर समावेशी विकास सुनिश्चित करने के लिए भी प्रतिनिधित्व अनिवार्य है। इससे सरकार में पारदर्शिता आती है और उसकी विश्वसनीयता भी बढ़ती है। आम चुनाव में महिलाओं का कम प्रतिनिधित्व होने का सबसे बड़ा कारण लैंगिक पूर्वाग्रह है। राजनीतिक दलों पर अधिकतर पुरुषों का वर्चस्व हो रहा है, जिसकी वजह से महिला उम्मीदवारों को हाशिए पर रखा जाता है।

चुनाव में धनबल और बाहुबल का बढ़ता प्रभाव महिलाओं के राजनीति में जाने की राह में सबसे बड़े रोड़े के तौर पर सामने आ रहा है। रूढ़िवादी पितृसत्तात्मक समाज में पैतृक संपत्ति और धन संपदा तक महिलाओं की पहुंच बहुत कम है। इसके अलावा राजनीतिक विरासत में पुरुषों का प्रभुत्व देखा जाता रहा है। लैंगिक भेदभाव और पूर्वाग्रह जहां महिलाओं को राजनीति में सक्रिय भागीदारी करने से रोकते हैं वहीं इन्हीं वजहों से इन्हें मतदाताओं का वोट भी कम मिल पाता है। आम चुनाव में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ाने के लिए कई स्तरों पर ठोस प्रयासों की ज़रूरत है। और सबसे पहला काम है कि राजनीति पार्टियों को खुद की नीतियों और संगठनों में महिला नेताओं और कार्यकर्ताओं में पुरुष से इतर लैंगिक पहचान के लोगों को भी जगह दी जाएं। लोकतंत्र की सार्थकता सही मायने में तभी होगी, जब देश के प्रत्येक नागरिक के लिए न्यायपूर्ण समानता और प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो सके।


स्रोत

  1. Times of India
  2. Newslaundry
  3. The Hindu

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