इंटरसेक्शनलग्रामीण भारत गाँव-गाँव तक प्रत्येक वर्ग के नागरिक को मिले उनके अधिकार| #लोकतंत्र, चुनाव और मैं

गाँव-गाँव तक प्रत्येक वर्ग के नागरिक को मिले उनके अधिकार| #लोकतंत्र, चुनाव और मैं

मतदाता पहचान पत्र, भारत का नागरिक होने का एक पहचान पत्र है। जिस समाज में महिलाओं की पहचान आज भी फलां की पत्नी, माँ या बेटी के नाम से होती है वहां पर महिलाओं के पास उनका अपना पहचान पत्र है उनके नाम और तस्वीर के साथ। अपने वोट का स्वतंत्र होकर इस्तेमाल करना इस लोकतांत्र की नींव को मजबूत करता है।

गाँव में हर दूसरी गली के बाद दीवारे कुछ चुनावी पोस्टरों और कुछ पोस्टरों के बचे टुकड़ों के साथ रंगीन दिखलाई पड़ती हैं। चुनाव आ चुका है, इसका प्रमाण आपको चाय की टपरियों और सब्जी की दुकानों पर इकट्ठे लोगों की चर्चाओं से ही मालूम हो जायेगा। कुछ घरों में मर्द बाहर बैठकी में चाय की चुस्की के साथ लगातार टेलीविजन खबरों को सुनते हुए “चुनाव में किसकी लहर है” की चर्चा करते दिख जायेंगे, वहीं औरतें चाय-पानी का इंतजाम करते हुए। महिलाओं को खुलकर चुनाव पर चर्चा करते हुए देख पाना आज भी यहां एक दुर्लभ दृश्य है।

भारतीय पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था में लिंग, जाति, धर्म, क्षेत्रीयता के आधार पर लोगों के साथ भेदभाव होता है। मैं अपनी परिवार की पहली लर्नर हूं जो दिल्ली आकर पढ़ रही हूं। आज भी हमारे गाँवों में महिलाओं के साथ उनकी लैंगिक पहचान की वजह उनके लिए अलग-अलग मानदंड तय किये हुए हैं। कुछ लोगों की जातिगत पहचान को सर्वोपरि माना जाता है। इसी भेदभाव के चलते चुनावी बहस ने इन वर्गों को बाहर कर दिया जाता है। अगर आंकड़ों को देखें तो औरतों का मतदान प्रतिशत अब धीरे-धीरे बढ़ रहा है। ग्रामीण क्षेत्र में महिलाओं का मतदान प्रतिशत ज्यादा ही है। वोट देने के लिए घूंघट ओढ़े अलग पंक्ति में खड़े होने से लेकर, संसद भवन में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने तक, महिलाओं के अनुभव पुरुषों से बेहद भिन्न हैं। अगर बात ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं की भी करे तो उनके अनुभवों को समझने के लिए कोई एक समीकरण नहीं है। अलग-अलग जातीय और वर्गीय समूहों की महिला मतदाताओं के अनुभव अलग हैं।

मतदाता पहचान पत्र, भारत का नागरिक होने की एक पहचान है। जिस समाज में महिलाओं की पहचान आज भी फलां की पत्नी, माँ या बेटी के नाम से होती है वहां पर महिलाओं के पास उनका अपना पहचान पत्र है उनके नाम और तस्वीर के साथ। अपने वोट का स्वतंत्र होकर इस्तेमाल करना इस लोकतांत्र की नींव को मजबूत करता है। लेकिन पहचान पत्र के साथ-साथ हमारी महिला मतदाता लोकतंत्र से क्या उम्मीदें रखती हैं, चुनावी माहौल और प्रचार में खुद को किस स्थान पर पाती है और उनकी भागीदारी कैसी होती है इन सवालों के जवाब तलाशने की भी ज़रूरत है। यह समझने के लिए वे खुद को चुनाव में कहा देखते हैं और चुनाव उनके लिए क्या है इसके लिए हमने उत्तर प्रदेश के चंदौली जिले के कुछ गाँवों के अलग-अलग लिंग और वर्ग के मतदाताओं से बातचीत की।

जहां चुनाव प्रचार, रैलियों में भाग लेते लोग टीवी और अख़बार में बड़े-बड़े वादे सुनकर अपनी चुनावी समझ को और मजबूत करते हैं, दूसरी तरफ कुछ लोगों को आजादी के इतने साल बाद भी, एक लोकतांत्रिक देश में, मूलभूत आवश्यकताओं के लिए भी जद्दोजहत करनी पड़ रही है। उनके लिए चुनाव एक उम्मीद लेकर आता है लेकिन उनकी स्थिति जस की तस रहती है।

महिलाओं को घरों तक सीमित रखा जाता है

तस्वीर साभारः The Print

40 वर्षीय संगीता सराय पकवान क्षेत्र की बीएलओ रह चुकी हैं, चुनाव संबंधित अपने अनुभव को साझा करते हुए बताती हैं, “घर पर चुनाव से जुड़ी उतनी बातें नहीं कर पाती हूं, हाँ, विद्यालय में आकर साथी शिक्षकों के साथ चुनाव के ऊपर चर्चा हो जाती है। हम सभी यह देखने की कोशिश करते हैं कि कौन सी पार्टी हमारी हितों के बारे में बात कर रही है। पिछले 18 साल से मैं शिक्षामित्र के पद पर तैनात हूं और मेरी नौकरी का कोई भरोसा नहीं, हमें कभी भी निकला जा सकता है। ऐसे में ऐसी सरकार चाहूंगी जो मेरी नौकरी का समाधान करे।”

गाँव में चुनाव के माहौल पर बोतते हुए वह कहती हैं, “गाँव में औरतों से बातचीत कम ही होती है, विधवा होने की वजह से सबसे घुलने-मिलने में दिक्कत होती है, इसलिए चुनाव की चर्चा तो मुश्किल से ही हो पाती है। लेकिन विद्यालय में तैनात रसोईयां दीदी से गाँव में बातचीत हो जाती है। कुछ दिनों पहले एक रसोईयां ने बातों बात में कहा कि ग्राम प्रधान तो कह रहे थे फूल (भाजपा) सबको सुविधा दे रहे हैं। वही दूसरी रसोईयां ने कहा कि हम टीवी पर देखली ह पंजा वाला लाख रुपिया देहत ह। (कांग्रेस भत्ता देने की बात कह रही है)

अपने बीएलओ के पूर्व अनुभवों के बारे में और चर्चा करते हुए संगीता ने बताया, “यहां सब लोग अपनी-अपनी पार्टी को जीतवाने के लिए तत्पर रहते हैं, इसलिए खुद ही कोशिश करते हैं कि एक भी अपना मतदाता का कार्ड वैगरह में कोई दिक्कत ना हो, वहीं दूसरी ओर ये भी कोशिश रहती है कि विपक्षी लोगों के समर्थक मतदाताओं के वोट कट जाएं, लेकिन अब वोटर आईडी कार्ड बनवाने का कार्य ज्यादा अच्छा हो गया है। लेकिन एक बात है चुनाव अधिकारियों के आगमन के बाद पूरा गाँव मिलकर उनके रहने-ठहरने का बदोबस्त करने में सहायता करता है ताकि किसी भी चुनावी अधिकारी को किसी भी प्रकार की दिक्कत ना हो।”

मेरा वोट तो मेरा ही होना चाहिए

दिव्या एक शिक्षिका हैं, उन्होंने अपनी स्मृति से बताया, “शादी के बाद गाँव में आई तो वोट देना था, 2014 का समय था बनारस जो मेरा मायका था वहां भाजपा का बहुत शोर था, मेरा पूरा मन था उसे ही वोट देने का, लेकिन पति ने आकर कहा जानती हो न किसको वोट देना है, अपनी जाति की पार्टी को वोट देना है और किसी और को नहीं, अगर हमारी जाति के विधायक नहीं जीते तो यहां रहना मुश्किल हो जाएगा और सरकारी काम करवाने में दिक्कत होगा। लेकिन मैंने अपने मन मुताबिक ही वोट दिया। मैं उतना न्यूज नहीं देखती, लेकिन ऊपरी-ऊपरी सब लोग जो बात बोलते हैं वो तो सबको पता होता ही है या बातों-बातों में फोन पर अपने मायके में चुनाव का माहौल जानकर उसी हिसाब से अपना मतदान का निर्णय कर लेती हूं।”

जहां मत का मतलब ही होता है अपनी बुद्धि विवेक से सोच कर सबसे उचित उपर्युक्त उम्मीदवार का चयन करना, लेकिन महिला मतदाताओं के जीवन संबंधी निर्णय ही नहीं बल्कि मतदान का निर्णय भी उनके पिता, पति, भाई या पुत्र द्वारा प्रभावित होता है। दूसरी ओर, औरों की जमीनों पर खेती, मजदूरी या अधिया पर काम करते महिला और पुरुष मतदाता की समस्याएं अलग हैं। यह वर्ग अक्सर समाज में हाशिये की जाति समूह से आता है। इनके पास न पक्का मकान है, न जमीन, न खेत और न ही कायदे का रोजगार। यह वर्ग हर चुनाव में अपने अच्छे भविष्य के लिए और विकास के लिए वोट करता है लेकिन इनके पास सुविधाएं पहुंचते-पहुंचते हवा हो जाती हैं।

“हमारे कैंडिडेट को वोट नहीं दिया तो खेती करने नहीं देंगे”

तस्वीर साभारः आर्यांशी

सरवन कुमार कभी स्कूल नहीं गए। वह खेतों में मजदूरी करते हैं। आवाज में गुस्सा और मायूसी के साथ उनका कहना है, “57 वर्ष का हो चुका हूं, आज तक न मुझे आवास मिला, न पैखाना (शौचालय) मिला, ना कुछ मिला। सब योजना में सेंधमारी कर लेते हैं, इसलिए हमें कुछ नहीं मिल पाता। विकास का हालत एकदम डाउन है। दूसरे लोग धमकी भी देते हैं कि हमारे कैंडिडेट को वोट नहीं दिया तो खेती करने नहीं देंगे, अधिया नहीं देंगे और कहीं मजदूरी भी नहीं करने देंगे।” वह आगे कहते हैं, “मेरे टोला में चुनाव को लेकर बहुत कोई चर्चा नहीं होती। हम दलित हैं और सांसदी, विधायकी में बहन जी को ही वोट देते हैं लेकिन प्रधानी में सोचना पड़ता है। हमारे टोला के बहुत लोगों की वोट को खाने-पीने पर खरीदा जाता है। लोग अपना वोट बदल देते हैं। लेकिन एकमुश्त होकर बसपा को ही वोट देते हैं।”

26 वर्षीय बजरंगी कुमार, जो सरवन के टोला से आते हैं। चुनाव के बारे में बोलते हुए उनका कहना है, “मेरे टोला में कोई प्रचार नहीं है, हमारे पास कोनो फोन नहीं है नाही टीवी, अखबार है, कुछ नहीं होता है इधर और मुझे ऐसी कोई जानकारी नहीं है।” वहीं उषा रानी ने बताया कि पिछली बार पैसा लेकर वोट दिया लेकिन अब पछता रहे हैं। मड़ई लगा कर रहना पड़ रहा है। विकास की स्थिति एकदम खराब है। जिनके खेत में काम करते हैं वो लोग कड़े आवाज में बोलते हैं कि जिनका नमक खाय भुलाए न (जिसने रोजगार दिया है, उनकी बात नहीं टालनी चाहिए)।

तस्वीर साभारः आर्यांशी

55 वर्षीय सुशीला जो अपने पति के साथ मजदूरी करती हैं, अपनी रोजमर्रा के जीवन के बारे कहती हैं, “कुआं खन्ना त पानी पिया, धूरा खन्ना त खा (हमें पानी पीने के लिए भी कुआं खोदने जितना मेहनत करना पड़ता है, तब पानी नसीब होता है और खाना के लिए जमीन पर मेहनत करनी पड़ती है, तब जाकर रोटी मिलती है) हमें दिन-रात काम करना पड़ता है, आराम की भी फुर्सत नहीं, ऐसे में चुनाव के बारे में चर्चा करना और माहौल की बात करने का भी समय नहीं है। वोट है, देने से कुछ मिल जायेगा सोचकर हम मतदान करते हैं, लेकिन कुछ भी नहीं मिलता। दलित लोगों की स्थिति खराब है। जब चुनाव आता है तो सब पैरों में लेटने को तैयार रहते हैं, माताजी पालगी, जीतने के बाद कुछ नहीं। मुझे तो कागज मोहर ठीक लगता था, मशीन में भी सब गड़बड़ी कर देते हैं।”

“चुनाव से मुझे उतना मतलब नहीं”

जहां चुनाव प्रचार, रैलियों में भाग लेते लोग टीवी और अख़बार में बड़े-बड़े वादे सुनकर अपनी चुनावी समझ को और मजबूत करते हैं, दूसरी तरफ कुछ लोगों को आजादी के इतने साल बाद भी, एक लोकतांत्रिक देश में, मूलभूत आवश्यकताओं के लिए भी जद्दोजहत करनी पड़ रही है। उनके लिए चुनाव एक उम्मीद लेकर आता है लेकिन उनकी स्थिति जस की तस रहती है। संजू, जो 45 वर्ष की हैं, चुनाव के ऊपर अपनी समझ के बारे में बात करती हैं, “मुझे इसके बारे में ज्यादा पता नहीं है। मैं हर काम घर में अपने बच्चों या पति से पूछ कर ही करती हूं। पति शहर में काम करते हैं और कहते हैं जिसे इच्छा हो वोट दे दो। लेकिन सच कहूं तो मुझे कुछ समझ ही नहीं आता, मैं ज्यादा पढ़ी-लिखी नही हूं। घर में रहती हूं इसलिए मुझे पता ही नहीं चलता चुनाव में कैसा माहौल है, क्या चुनावी मुद्दे हैं या कोई अन्य जानकारी। घर में बेटा फोन पर जो जानकारी सुनता है, तो उसी से सुन लेती हूं। बाकी मेरी कोई अपनी राय नहीं है। बल्कि मैंने एक दो बार ही वोट किया होगा लोकसभा के लिए। घर गाँव से बहुत दूर बन गया है इसलिए सिर्फ वोट देने के लिए गाँव नहीं जाती हूं।”

25 वर्षीय रुचि जो फोन पर ऑनलाइन कोचिंग करती हैं, उनका कहना हैं, “यहां पर तो क्या ही चुनाव का माहौल है या चुनाव की चर्चा होगी। सब औरत अपने काम में व्यस्त रहती हैं। काम से खाली हैं तो आस-पड़ोस के बारे में बातचीत होती है। ऐसे चुनाव के बारे में कौन ही बात करेगा। इस बारे में आदमी लोग अच्छा जानकारी रखते हैं, वो ज्यादा सही बता सकते हैं। मैं यूट्यूब पर भी चुनाव संबंधी ख़बर पर उतना ध्यान नहीं देती। चुनाव से मुझे उतना मतलब नहीं, बस वोटिंग वाले दिन जाकर जिसे वोट देना है दे देती हूं।”

संजू, जो 45 वर्ष की हैं। चुनाव के ऊपर अपनी समझ के बारे में बात करती हैं, “मुझे इसके बारे में ज्यादा पता नहीं है। मैं हर काम घर में अपने बच्चों या पति से पूछ कर ही करती हूं। पति शहर में काम करते हैं और कहते हैं जिसे इच्छा हो वोट दे दो। लेकिन सच कहूं तो मुझे कुछ समझ ही नहीं आता, मैं ज्यादा पढ़ी-लिखी नही हूं।”

ग्रामीण भारत में विकास लोकतंत्र और चुनाव से जुड़ी गहमा गहमी समझने के लिए हर प्रकार के मतदाता के अनुभव, चुनाव से जुडी उम्मीद, उनकी आवश्यकताएं और चुनाव के लिए उनकी प्रेरणा को जानना ज़रूरी है। महिला मतदाताओं में ज्यादातर मामलों में चुनाव के प्रति एक तरह की उदासी है। उन्हें इतना पता है कि उनका काम है कहे गए उम्मीदवार को वोट देकर चले आना। अधिकतर मामलों में मतदाता अपनी जाति के पार्टी और उम्मीदवार के समर्थन में रही। ग्रामीण भारत में महिला मतदाताओं के बीच महिलाओं के मुद्दे पर किसी ने वोट डालने का जिक्र नहीं किया। कुछ लोगों को जहां घर, जमीन, भोजन की दिक्कत है , उनके लिए तो महिलाओं, बेरोजगारी, शिक्षा जैसे मुद्दे थोड़ी देर में पहुंचेंगे। लेकिन आर्थिक रूप से बेहतर महिला मतदाताओं के बीच भी महिला मुद्दों से जुड़ी कोई जागरूकता नहीं देखने को मिली। चुनावी चर्चा में महिलाओं की नगण्य भागीदारी का एक पहलू यह भी है कि समाज चुनाव और चुनाव सम्बन्धित कार्यक्रमों को पुरुषत्व से जोड़ कर देखता है। गांवों में जहां औरतें आज भी स्वंत्रता से कहीं आ-जा नहीं सकती, उनके लिए चुनावी चर्चा का एक मुख्य हिस्सा होना बहुत दुर्लभ ही जान पड़ता है।


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