इंटरसेक्शनलजेंडर गर्भावस्था और मातृ स्वास्थ्य से अलावा महिलाओं के समग्र स्वास्थ्य और पोषण के बारे में बात करने की है जरूरत

गर्भावस्था और मातृ स्वास्थ्य से अलावा महिलाओं के समग्र स्वास्थ्य और पोषण के बारे में बात करने की है जरूरत

हालांकि ये गर्भावस्था और प्रसव महिलाओं के जीवन में रोगों की संख्या और मृत्यु दर के प्रमुख कारण हैं और इन्हें सही सही समय पर संबोधित करने की आवश्यकता है। लेकिन साथ ही यह सवाल भी उठता है कि महिलाओं के स्वास्थ्य को पारंपरिक मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य मुद्दों तक ही सीमित क्यों रखा जाना चाहिए? वे गर्भावस्था या बच्चे के जन्म के खतरों के अलावा जीवनशैली से जुड़ी बीमारियों, कैंसर, एनीमिया जैसी विशिष्ट स्थितियों के भी जोखिम में रहती हैं।

हम सब पूंजीवादी समाज के उस दौर में रह रहे हैं जहां पर किसी के लिए भी सुलभ इलाज करवा पाना मुश्किल है। भारतीय समाज में आज भी स्वास्थ्य को इतना जटिल बना कर रखा गया है जहां एक महिला खुलकर अपने सेहत के बारे में भी बात नहीं कर पाती है। सदियों से महिलाओं के स्वास्थ्य से जुड़े फैसले लेने का अधिकार, उनके पति, परिवार के लोग और ससुराल वालों का ही रहा है। महिलाओं को बचपन से लेकर यौवन और बुढ़ापे तक कई स्वास्थ्य संबंधित समस्याओं का सामना करना पड़ता है। लेकिन सामाजिक रूढ़िवाद के चलते महिलाओं के स्वास्थ्य को हमेशा पीरियड्स, बच्चे और मातृत्व स्वास्थ्य से जोड़कर ही देखा गया है। लेकिन क्या महिलाओं के स्वास्थ्य का मतलब बस इतना ही होता है? अकसर स्वास्थ्य के मामले में हम महिलाओं के समग्र स्वास्थ्य की बात नहीं करते।

आम तौर पर देखा जाता है कि पुरुषों की तुलना में महिलाओं के स्वास्थ्य को हमेशा नकारा गया है। जल्दी कोई उनकी बीमारी को गंभीरता से नहीं लेता है। अक्सर महिलाएं बीमार होते हुए भी घर का सारा काम करते हुए पाई जाती हैं। वैश्विक लैंगिक स्वास्थ्य अंतर विश्लेषण के अनुसार, महिलाएं पुरुषों की तुलना में अधिक समय तक जीवित तो रहती हैं। लेकिन अधिक वर्षों तक खराब स्वास्थ्य का सामना करती हैं। अमूमन जबतक महिलाएं पूरी तरह बीमार नहीं हो जाती, तबतक परिवार के किसी भी सदस्य का नज़र उनपर नहीं पड़ता है। अधिकतर मामलों में जागरूकता का अभाव और आर्थिक रूप से खुदके लिए निर्णय लेने का अधिकार न होने की वजह से महिलाएं खुद अपना इलाज करवाने शायद ही खुद जाती हैं।

बच्चे होने के बाद मेरे शरीर में एकदम से बदलाव हो गया। वजन बहुत बढ़ गया जिसके कारण मुझ से काम नहीं होता और बहुत दिक्कत होती है। मैंने डॉक्टर से इसके बारे में पूछा था। उनका कहना था कि कई बार डिलेवरी के बाद ऐसा हो जाता है। कुछ चीज़ों का ध्यान रखने को कहा था पर शायद मैं नहीं रख पाई।

गरीबी का असर महिलाओं के स्वास्थ्य पर

2014 और 2022 के बीच विभिन्न अनुमानों के आधार पर, गरीबों की संख्या जनसंख्या के 2.5 फीसद से 29.5 फीसद के बीच है। महिलों के लिए गरीबी दोहरी मार का काम करती है जहां वे पहले से समाज में हाशिये पर जी रही होती हैं। गरीबी में रहने वाली महिलाएं और लड़कियां मानव तस्करी सहित यौन शोषण की अधिक शिकार होती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों या शहरी क्षेत्रों में भी महिलाओं पर घरेलू काम की जिम्मेदारी रहती है। यूनाइटेड नेशनंस वूमेन की जारी की गई रिपोर्ट के अनुसार, 2013 तक दुनियाभर में गरीबी से जूझ रहे 767 मिलियन लोगों में एक बड़ा हिस्सा महिलाओं और बच्चों का था और गरीबी का सीधा असर स्वास्थ्य सेवाओं पर पड़ता है। कुपोषित माँ कुपोषित बच्चे को जन्म देंगी और आगे ये सिलसिला चलता रहता है। इसके बाद उनके स्वास्थ्य बहुत धीमी गति से विकसित होती है, और कहीं न कहीं इन सब कारणों से वह बच्चे अविकसित रह जाते हैं।

क्या किशोरियों का स्वास्थ्य का मतलब सिर्फ पीरियड्स है

युवतियों की स्वास्थ्य की बात करें तो जब किशोरियाँ युवा अवस्था की ओर कदम रखती है, तब उन्हें पहला पीरियड्स होता है। अमूमन लड़कियों को पीरियड्स के बारे में मालूम नहीं होता है। बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 71 प्रतिशत किशोरियां तबतक पीरियड के बारे में नहीं जानती हैं, जबतक उनको पीरियड्स नहीं होता है। साल 2019 तक भारत में पीरियड्स होने वाली केवल 36 प्रतिशत महिलाओं की ही सैनेटरी नैपकिन तक पहुँच है।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

आज भी महिलाएं पीरियड्स के समय राख, कपड़ा, अखबार और यहां तक कि मिट्टी भी इस्तेमाल करती हैं। इस कारण महिलाओं को कई तरह की बीमारियां या इन्फेक्शन हो सकता है। स्वास्थ्य एक बहुत ही सहज और नाजुक विषय है जिसपर बात न करके इसे जटिल बनाया गया है। पीरियड्स के दौरान भी महिलाओं के स्वास्थ्य का मतलब ये नहीं कि उन्हें पीरियड्स के लिए सुरक्षित तरीका मुहैया करा दिया जाए। हजारों महिलाएं एंडोमेट्रियोसिस, पॉलीसिस्टिक ओवरी सिंड्रोम (पीसीओएस), पीसीओडी, पीएमएस या कई ऐसी विकारों से ग्रसित हो सकती हैं।

खाने के मामले में महिलाएं अक्सर घर में सबसे आखिर में खाना खाती हैं। दुनिया भर में 1 अरब से अधिक किशोर लड़कियां और महिलाएं कुपोषण से पीड़ित हैं, जिसमें दुर्बलता और बौनापन, सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी और एनीमिया के हानिकारक आजीवन प्रभाव शामिल हैं।

घरों में क्या महिलाओं को पौष्टिक आहार मिल रहा है

खाने के मामले में महिलाएं अक्सर घर में सबसे आखिर में खाना खाती हैं। दुनिया भर में 1 अरब से अधिक किशोर लड़कियां और महिलाएं कुपोषण से पीड़ित हैं, जिसमें दुर्बलता और बौनापन, सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी और एनीमिया के हानिकारक आजीवन प्रभाव शामिल हैं। 2015-16 से 2019-21 के बीच अध्ययन के अनुसार भारत में किशोरियों में एनीमिया की व्यापकता 54.2 फीसद से बढ़कर 58.9 फीसद पाई गई। 28 भारतीय राज्यों में से 21 ने एनीमिया की व्यापकता में वृद्धि की सूचना दी। अक्सर महिलाओं के इन स्वास्थ्य समस्याओं पर तभी बात होती है, जब वह गर्भवती होती है।

तस्वीर साभार: Hindustan Times

वहीं विभिन्न शोध के अनुसार भारत में, महिलाओं के सबसे आखिर में खाना खाने से शारीरिक स्वास्थ्य खराब होने के संबंध मिले हैं। सबसे आखिर में खाने और कम वजन के बीच मजबूत संबंध यह दर्शाता है कि सबसे आखिर में खाने से शारीरिक स्वास्थ्य पर असर पड़ सकता है, जो बदले में मानसिक स्वास्थ्य पर असर डाल सकता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ)  के अनुसार, अवसाद, चिंता और कई तरह के दैहिक शिकायतें महिलाओं में अधिक देखने को मिलती हैं।

द स्क्रोल के प्रकाशित खबर के अनुसार, भारत में गर्भनिरोधक तरीकों को अपनाने का भार पुरुषों से ज्यादा महिलाओं में है। हर आठ में तीन पुरुष यह मानते हैं कि गर्भनिरोधक महिलाओं का विषय है।

परिवार नियोजन में महिलाओं की कोई भूमिका नहीं

कई बार शादी के तुरंत बाद महिलाओं पर बच्चा पैदा करने का दबाव बनाया जाता है। बच्चों के बीच अंतराल न होने से महिलाओं के स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। द स्क्रोल के प्रकाशित खबर के अनुसार, भारत में गर्भनिरोधक तरीकों को अपनाने का भार पुरुषों से ज्यादा महिलाओं में है। हर आठ में तीन पुरुष यह मानते हैं कि गर्भनिरोधक महिलाओं का विषय है। शोध के मुताबिक अनियोजित गर्भधारण अबॉर्शन करवाने का मुख्य कारण है। एक अध्ययन में अनुमान लगाया गया है कि 2015 में भारत में लगभग 15.6 मिलियन गर्भपात हुए और असुरक्षित गर्भपात मातृ मृत्यु दर में 10 से 13 फीसद का योगदान देता है। हालांकि महिलाओं के मामले में अबॉर्शन एक स्वास्थ्य के मुद्दे की तरह देखा ही नहीं जाता।  

महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए क्या होती है जांच

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

डब्ल्यूएचओ के अनुसार सर्वाइकल कैंसर वैश्विक स्तर पर महिलाओं में चौथा सबसे आम कैंसर है, जिसमें 2022 में लगभग 660 000 नए मामले और लगभग 350 000 मौतें हुई। कैंसर की घटनाओं और मृत्यु दर की उच्चतम दर निम्न और मध्यम आय वाले देशों में है। 2022 में ब्रेस्ट कैंसर के कारण विश्वभर में 670,000 मौतें हुईं। लेकिन भारत में स्क्रीनिंग की बात करें, तो सर्वाइकल कैंसर की जांच कराने वाली महिलाओं की संख्या  महज 1.9 फीसद थी। आर्थिक या सामाजिक रूप से हाशिये पर रहने वाली महिलाओं के लिए अपने स्वास्थ्य के लिए खर्च करना और भी मुश्किल होता है।

तस्वीर में लक्ष्मी, तस्वीर साभार: ज्योति

30 वर्षीय लक्ष्मी दिल्ली के स्लम में 15 साल से रहती हैं। इस विषय पर वो कहती हैं, “महिलाओं की स्वास्थ्य की लड़ाई जारी ही है। बच्चे होने के बाद मेरे शरीर में एकदम से बदलाव हो गया। वजन बहुत बढ़ गया जिसके कारण मुझ से काम नहीं होता और बहुत दिक्कत होती है। मैंने डॉक्टर से इसके बारे में पूछा था। उनका कहना था कि कई बार डिलेवरी के बाद ऐसा हो जाता है। कुछ चीज़ों का ध्यान रखने को कहा था पर शायद मैं नहीं रख पाई। आठ साल हुए अबतक ठीक नहीं हुआ और अब मैं इसका इलाज़ कैसे करवाऊँ? परिवार ध्यान नहीं देता है और मैं कोई नौकरी नहीं करती हूं।”

परिवार के लिए इतना सबकुछ करने के बाद भी अगर बीमार हो जाओ तो बेड पर एक गिलास पानी भी नहीं मिलता है। यह कहना गलत नहीं होगा कि बेशक परिवार ख़्याल रखता है लेकिन तब जब महिलाएं गर्भवती हो। महिलाओं की स्वास्थ्य संबंधित देखभाल बस यही तक सीमित होती है। इसलिए आत्मनिर्भर होना बहुत जरूरी है ताकि हम अपने समग्र स्वास्थ्य की देखभाल कर पाएं।

ऐसा नहीं है कि आर्थिक और शैक्षिक स्थिति सही होने से महिलाओं के स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता बेहद अच्छी है। इस विषय पर दिल्ली की 47 वर्षीय नीलम ‘सेल्फ हेल्प ग्रुप’ नामक गैर सरकारी संस्था की डायरेक्टर कहती हैं, “महिलाओं के स्वास्थ्य पर कोई ध्यान नहीं देता है। मेरी ही बात करें तो मैं फील्ड पर काम कर रही हूं। जब घर जाऊँगी तो घर पर कोई भी काम नहीं हुआ होगा। कई दफा घर जाकर काम करने का मन नहीं होता लेकिन मना भी नहीं कर सकती हूं कि तबीयत खराब है। परिवार के लिए इतना सबकुछ करने के बाद भी अगर बीमार हो जाओ तो बेड पर एक गिलास पानी भी नहीं मिलता है। यह कहना गलत नहीं होगा कि बेशक परिवार ख़्याल रखता है लेकिन तब जब महिलाएं गर्भवती हो। महिलाओं की स्वास्थ्य संबंधित देखभाल बस यही तक सीमित होती है। इसलिए आत्मनिर्भर होना बहुत जरूरी है ताकि हम अपने समग्र स्वास्थ्य की देखभाल कर पाएं।”

हालांकि ये गर्भावस्था और प्रसव महिलाओं के जीवन में रोगों की संख्या और मृत्यु दर के प्रमुख कारण हैं और इन्हें सही सही समय पर संबोधित करने की आवश्यकता है। लेकिन साथ ही यह सवाल भी उठता है कि महिलाओं के स्वास्थ्य को पारंपरिक मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य मुद्दों तक ही सीमित क्यों रखा जाना चाहिए? वे गर्भावस्था या बच्चे के जन्म के खतरों के अलावा जीवनशैली से जुड़ी बीमारियों, कैंसर, एनीमिया जैसी विशिष्ट स्थितियों के भी जोखिम में रहती हैं। इन स्थितियों की मुख्य रूप से कोई लक्षण न होने के कारण महिलाओं को पता नहीं हो सकता है कि वे गैर-संचारी रोगों के जोखिम में हैं। इसलिए, भविष्य की चिकित्सा समस्याओं के जोखिम का आकलन करने और महिलाओं द्वारा स्वस्थ जीवनशैली को प्रोत्साहित करने के लिए इन बीमारियों की जांच महत्वपूर्ण है।

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