केवल इतिहास ही नहीं बल्कि वर्तमान सदी भी इस बात को पुख्ता करती है कि जाति पर आधारित समाज में दलित महिलाएं सबसे अधिक वंचित रही हैं। समाज में दलित महिलाओं को दलित होने और महिला होने दोनों के रूप में हाशिए पर रखा गया है। यहां इस बात का संदर्भ देना जरूरी है कि महिला आंदोलन और नारीवाद समाज जाति और वर्ग के आधार पर होने वाले उत्पीड़न को उजागर करने में सक्षम नहीं हो सके। दलित महिलाओं के संबंध में इस महत्वपूर्ण पहलू को आधार बनाकर एक नये आंदोलन दलित नारीवाद ने इंटेरसेक्शनलिटी की ओर रूख कर दलित महिलाओं की दरिद्रता को उजागर किया। इस चेतना के भीतर दलित महिलाओं के समाज में उत्पीड़न से भरे अनछुए अनुभवों जिसमें उनके तमाम संघर्षों और उनके साथ रोज़ाना होने वाले भेदभाव को दलित साहित्य में रेखांकित करने का प्रयास दलित नारीवाद की लहर में हुआ।
यहां हम चर्चा करेंगें दलित महिला साहित्य में बेबी कांबले और उर्मिला पवार की रचनाओं की। दलित आत्मकथाओं में दोनों का योगदान अहम और उल्लेखनीय माना जाता है। बेबी कांबले और उर्मिला पवार ने अपनी रचनाओं में इस बात पर ध्यान केंद्रित किया है कि कैसे जाति और लिंग दोनों के आधार पर दलित महिलाओं को भेदभाव का सामना करना पड़ता है। वह निडर और स्पष्ट भाषा में उच्च जाति के लोगों द्वारा किए जाने वाले अमानवीय व्यवहार और सामाजिक जहालत को अपनी भाषा में लिखती हैं। उन्होंने अपने समुदाय के भीतर अपने उत्पीड़न को तथ्यों और साफ़-गोई से पेश किया।
बेबी कांबले और ‘द प्रिज़न्स वी ब्रोक’
1986 में प्रकाशित बेबी कांबले द्वारा मराठी भाषा में लिखी गई ‘जीना अमुचा’ ऐसा ही एक प्रयास है जो दलित साहित्य में दलित महिलाओं के अनुभवों और संघर्षों को केंद्रित करने का महत्वपूर्ण स्थान रखता है। बाद में 2009 में माया पंडित द्वारा ‘जीना अमुचा’ का अनुवाद ‘द प्रिज़न्स वी ब्रोक’ के रूप में अंग्रेजी में किया गया। इस रचना में बेबी कांबले ने अपनी भाषा और अपने नारीवादी दृष्टिकोण के जरिये भारतीय समाज में दलित महिलाओं द्वारा अनुभव किये जाने वाले जाति और लैंगिक भेदभाव की तस्वीर को बयां किया है। वह बताती हैं कि सवर्णों द्वारा कैसे पूरे महार समुदाय को घृणा और हीन नजरों से देखा जाता है। महार न केवल अपना जीवन गरीबी व दरिद्रता में जी रहे थे बल्कि अक्सर बड़े और बच्चे मृत जानवरों को खाया करते थे।
बेबी दलित महिलाओं की औपनिवेशिक काल से पहले और उसके बाद के जीवन को हमारे सामने लाने का प्रयास करती है। बेबीताई डॉ. बी आर अंबेडकर के नेतृत्व में शुरू किये गए जाति-विरोधी आंदोलन से प्रेरित थीं। बेबी कांबले ने पूरी कृति में इस बात पर प्रकाश डाला है कि उच्च जाति के महिला और पुरुष कैसे उन्हें अछूत समझकर उनका हर दिन तिरस्कार करते हैं। वस्तुओं का मोल-भाव करते वक्त वे हिंदू धर्म की पवित्रता की दुहाई देकर उन्हे नीचा दिखाने से कभी नहीं चुकते। वह अपने समुदाय जोकि गाँव के बाहरी छोर पर रहते थे उनके बीच पितृसत्ता और स्त्री द्वेषी चेहरे की सटीकता को उजागर करती हैं।
हिन्दू धर्म के तर्कहीन प्रथाओं पर प्रहार
अपनी आत्मकथा में वह बताती हैं कि समुदाय के लोग काफी अंधविश्वासी थे। हिंदू समुदाय से बहिष्कृत होने के बावजूद महारों ने हिन्दू मूल्यों और प्रथाओं को अपनाया। उन्होंने समुदाय के बीच प्रचलित हिंदू धर्म की इन्हीं अतार्किक मूल्यों और प्रथाओं पर सवाल उठाया। जैसे महारों का गांव उच्च जाति हिंदुओं के बसाए गए क्षेत्रों से कोसो दूर था। हिंदू समाज में अपने हीन स्थिति के कारण महिलाओं को हिंदू धर्म में प्रचलित अंधविश्वासों का सबसे अधिक सामना करना पड़ता था। वह समाज में पुरूषों द्वारा दलित महिलाओं के साथ किये जाने वाले तिरस्कार का ख़ुलासा करती हैं।
सवर्ण के सामने महार महिला द्वारा हुई गलती के अक्सर उनके पुरुष द्वारा शारीरिक शोषण किया जाता था। महार महिलाओं को मजबूरी में कम पैसे में सवर्ण महिलाओं को अपनी वस्तुएं बेचनी पड़ती थी। उनके शरीर का कोई हिस्सा स्पर्श न हो जाए इसके लिए लेन-देन के वक़्त कड़े नियमों का पालन किया जाता था। बेबी बताती हैं कि महार महिलाएं नवविवाहित ब्राह्मण महिलाओं का मल ढो कर ले जाती थीं क्योंकि ब्राह्मण महिलाओं को शौच के लिए घर से बाहर नहीं निकलने दिया जाता था।
बात महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा की
वह शोषण और शारीरिक यातना के सबसे बुरे रूप को सामने लाती है, जब दलित पुरुष भी अपने जीवनसाथियों पर शोषण करते हैं। वह बताती हैं, “हम एक बार एक बैठक में भाग लेने के लिए मुंबई जा रहे थे। जिस सामान्य डिब्बे में हम बैठे थे वह काफी भरा हुआ था। अचानक से तीन युवक मेरी ओर देखने लगे। मुझ पर शक होते ही मेरे पति ने मुझे इतनी जोर से मुंह पर मुक्का मारा कि मेरी नाक से तेज़ खून बहने लगा। जब हम शाम को वापस लौट रहे थे तब भी वह इतना क्रोधित था कि उसने ट्रेन में मुझे मुक्के मारना जारी रखा।”
उर्मिला पवार की ‘आयदान’ और उनके संघर्षों की व्यथा
दूसरी महान दलित लेखिका जिनकी हम यहां चर्चा करने जा रहे हैं वह उर्मिला पवार हैं। साल 1988 में लिखी गई प्रमुख रचना उनकी अपनी आत्मकथा ‘आयदान’ है। उर्मिला पवार ने अपनी आत्मकथा ‘आयदान’ मूल रूप से मराठी में लिखी थी जिसका अनुवाद माया पंडित ने ‘द वीव ऑफ माई लाइफ: ए दलित वुमन मेमॉयर्स’ नाम के शीर्षक से किया। यहां मराठी शब्द ‘आयदान’ का अर्थ ‘बुनना’ होता है। यहां लेखिका आयदान शब्द का इस्तेमाल अपनी माँ के द्वारा बुनने वाली टोकरियां के कार्य को अपने लेखन से जोड़ती हैं। वह किताब में लिखती हैं, “मुझे लगता है कि मेरी माँ का बुनाई का कार्य और मेरा लेखन कार्य स्वाभाविक रूप से जुड़ा हुआ है। यह दर्द, पीड़ा और वेदना का ताना-बाना है जो हमें जोड़ता है।”
यह रचना भारत के महाराष्ट्र के एक छोटे से गाँव में और एक दलित परिवार में पलने-बढ़ने का एक संस्मरण है। उर्मिला पवार अपने साथ हुए जातिगत भेदभाव, गरीबी और उत्पीड़न से जुड़े अनुभवों को बताती हैं। इन अनुभवों में साथ-साथ एक लेखिका और कार्यकर्ता बनने की यात्रा भी शामिल है। उन्होंने यौन शोषण के अनुभवों को उजागर करने का साहस किया साथ ही घरेलू और वैवाहिक जीवन के बारे में खुलकर लिखा है।
दलित समाज में पीरियड्स के दौरान ‘शुद्धता’ और ‘अशुद्धता’ का प्रचलन
अपनी पुस्तक में उन्होंने बताया है कि कैसे ‘शुद्धता’ और ‘अशुद्धता’ के विचार ने न केवल सवर्णों को मनोवैज्ञानिक रूप से जकड़ रखा है बल्कि दलितों को भी पीड़ित किया। जब वह एक छोटी लड़की थी तब पीरियड्स में उन्हें किसी भी चीज़ को छूने से उनकी मां रोका करती थी और एक कोने में बैठा दिया जाता था। पवार परिवार में इस बर्ताव के बीच विस्मय में भीतर ही भीतर सोचती हैं कि मानो मेरे साथ बाहर के लोगों की तुलना में पर्याप्त भेदभाव नहीं किया गया हो अब परिवार ही कर रहा है।
पवार उस किस्से का वर्णन करती हैं जहां दलित महिलाओं के साथ छुआछूत बरता जाता था। दलित महिलाओं को अपने घड़े में पानी डलवाने के लिए इंतजार करना पड़ता था। पानी के लिए भीख मांगने पर भी मजबूर होना पड़ता था क्योंकि जल स्त्रोतों के अशुद्ध हो जाने के भय से उन्हें छूने की अनुमति नहीं थी।
रक्तस्राव से वर्जिन होने का गवाह
पवार अपनी शादी की पहली रात के अगले दिन का जिक्र करती हैं। पवार को लगता है कि उन्हें पीरियड्स हो रहा है और अपनी सास से इसका जिक्र करती हैं। लेकिन उनके पति पवार के रक्तस्राव होने से उनके वर्जिन होने के प्रमाण की ओर इंगित करते हैं। वह इस बात पर शर्मिंदा होती हैं और चार दिनों तक अलग बैठकर पीरियड्स से गुज़रने वाली महिलाओं की तरह अपवित्रता से जुड़े अनुष्ठानों का पालन करती हैं, जबकि उन्हें पीरियड्स नहीं हो रहा था। वह बताती हैं कि आगे जब असल में उनको पीरियड्स होते थे तो वह इस बात को घरवालों से छिपाती थीं और सभी के साथ खुलकर घुलती-मिलती थीं।
कांबले और पवार का सशक्त दलित आत्मकथा लेखन
दोनों लेखिकाओं में काफी कई पहलूओं में समानता दिखाई देती है। बेबी कांबले ने अंबेडकर से प्रेरित होकर अपने लेखन कार्य में प्रेरणा हासिल की। वैसे ही उर्मिला पवार ने अंबेडकर से प्रेरणा पाकर लघु कथाएँ लिखना शुरू किया। दोनों ने स्कूली परिवेश में शिक्षा हासिल करने की प्रक्रिया के दौरान जातिगत भेदभाव को अनुभव करती हैं और उसका जिक्र अपनी आत्मकथाओं में करती हैं। असमानताओं की बात करें तो उर्मिला पवार के विवाहित जीवन में पितृसत्ता के उनके अपने अनुभव कम हिंसक हैं। वह अपने गाँव में नशे में धुत्त पुरुषों द्वारा अपनी पत्नियों की पर हिंसा का उल्लेख करती हैं। वहीं बेबी कांबले ट्रेन का वो किस्सा और अन्य किस्से बताती हैं। पति का दुर्व्यवहार और हिंसा की बात वह भी करती हैं।
दलित साहित्य की दृष्टि से यहां इस बात का जिक्र करना जरूरी है, वह डॉ. बी. आर. अंबेडकर ही थे जिन्होंने जाति व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष के साधन के रूप में साहित्यिक दावे पर जोर दिया। इस तरह दलित साहित्य का एक आंदोलन शुरू हुआ, जिसके जरिए बेबी कांबले और उर्मिला पवार जैसी महिलाओं को अपने-अपने जिए हुए अनुभवों को कहानियों और आत्मकथाओं के माध्यम से लिखने का माध्यम और जगह मिला। बेबी कांबले और उर्मिला पवार दोनों की आत्मकथाएं दलित महिला साहित्य में बेहद खास स्थान रखती हैं जिन्होंने प्रतिरोध और सशक्तिकरण को दलित लेखनी में गढ़ा।