इतिहास प्रगतिशील लेखक आंदोलन में शामिल महिला लेखकों की भूमिका

प्रगतिशील लेखक आंदोलन में शामिल महिला लेखकों की भूमिका

प्रगतिशील लेखक आंदोलन में पुरुष आवाजों का प्रभुत्व रहा। मुख्यतः पुरुष बुद्धिजीवियों द्वारा संचालित था जिन्होंने सामाजिक समानता की वकालत के बावजूद, अक्सर जेंडर के मुद्दों को ठीक से संबोधित नहीं किया। महिलाओं की आवाजें मुख्य रूप से वर्ग, संघर्ष और औपनिवेशिक विरोध पर केंद्रित प्रमुख पुरुष कथाओं द्वारा छाया में रह जाती थीं। महिला लेखकों को अक्सर जेंडर विशिष्ट आलोचना का सामना करना पड़ता था।

भारत में प्रगतिशील लेखक आंदोलन एक महत्वपूर्ण साहित्यिक और सांस्कृतिक आंदोलन था जो 20वीं सदी की शुरुआत में उभरा। इसकी जड़ें 1932 में प्रकाशित “अंगारे” से जुड़ी हैं, जो सज्जाद ज़हीर और राशिद जहान सहित चार युवा लेखकों द्वारा लिखी गई उर्दू लघु कथाओं का संग्रह है। पुस्तक में उस समय की सामाजिक-राजनीतिक और धार्मिक रूढ़िवादिता की आलोचना की गई थी, जिसके कारण व्यापक प्रतिक्रिया हुई और इसके बाद मार्च 1933 में ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया। इस सेंसरशिप के जवाब में “अंगारे” के लेखकों ने “प्रगतिशील लेखकों के संघ” के गठन का प्रस्ताव रखा, जो 1935 में लंदन में भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ (आईपीडब्ल्यूए) के रूप में विकसित हुआ। यह संगठन औपचारिक रूप से भारत में अप्रैल 1936 में लखनऊ में अपने पहले सम्मेलन के साथ स्थापित हुआ, जिसमें मुंशी प्रेमचंद जैसे प्रमुख लेखक शामिल हुए, जिन्होंने समूह के घोषणापत्र के अनुवाद और प्रचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

पीडब्ल्यूएम का वैचारिक ढांचा और लक्ष्य

पीडब्ल्यूएम मार्क्सवादी विचारधाराओं से काफी प्रभावित था और साहित्य को सामाजिक और राजनीतिक बदलाव के उपकरण के रूप में उपयोग करना चाहता था। आंदोलन का उद्देश्य प्रतिक्रियावादी और पुनरुत्थानवादी प्रवृत्तियों का प्रतिकार करना था, भूख, गरीबी और सामाजिक असमानता को संबोधित करने वाले विषयों की वकालत करना संघ का उद्देश्य था। साल 1930 और 1940 के दशक में पीडब्लूएम ने गति पकड़ी, जिसने विभिन्न भाषाओं के भारतीय लेखकों की एक विस्तृत श्रृंखला को प्रभावित किया। आंदोलन का प्रभाव गहरा था, जिससे उस समय के सामाजिक-राजनीतिक ताने-बाने से गहराई से जुड़े साहित्य का निर्माण हुआ। इसने लेखकों को औपनिवेशिक शासन, धार्मिक रूढ़िवाद और सामाजिक अन्याय की आलोचना करने के साथ-साथ प्रगतिशील और समाजवादी विचारों को बढ़ावा देने के लिए एक मंच प्रदान किया। बावजूद इतने प्रगतिशील मूल्यों के इस संघ में भी महिलाओं की भागीदारी हाशिए पर रही।

राशिद जहां प्रगतिशील लेखक आंदोलन की एक प्रमुख हस्ती थीं। अलीगढ़ में जन्मी, वह एक चिकित्सक और साहसी लेखिका थीं, जिन्होंने अपने कार्यों में महिलाओं के जीवन की कठोर वास्तविकताओं को उजागर किया। उनकी रचनाएं अक्सर सामाजिक परिस्थितियों और महिलाओं के प्रति उत्पीड़न की आलोचना करती थीं।

महिलाओं को हाशिये पर रखने के कारण

प्रगतिशील लेखक आंदोलन में पुरुष आवाजों का प्रभुत्व रहा। मुख्यतः पुरुष बुद्धिजीवियों द्वारा संचालित था जिन्होंने सामाजिक समानता की वकालत के बावजूद, अक्सर जेंडर के मुद्दों को ठीक से संबोधित नहीं किया। महिलाओं की आवाजें मुख्य रूप से वर्ग, संघर्ष और औपनिवेशिक विरोध पर केंद्रित प्रमुख पुरुष कथाओं द्वारा छाया में रह जाती थीं। महिला लेखकों को अक्सर जेंडर विशिष्ट आलोचना का सामना करना पड़ता था। उनके कार्यों को अक्सर उनके पुरुष समकक्षों द्वारा संबोधित “अधिक महत्वपूर्ण” मुद्दों की तुलना में द्वितीयक के रूप में खारिज कर दिया जाता था। इससे उनके साहित्यिक योगदानों का अवमूल्यन हुआ और आंदोलन के भीतर उनके प्रभाव को सीमित कर दिया। सीमित समर्थन और मान्यता प्रगतिशील लेखक आंदोलन में महिलाएं अपने पुरुष सहयोगियों की तुलना में सीमित संस्थागत समर्थन प्राप्त करती थीं। उन्हें मान्यता प्राप्त करने में कठिनाइयां होती थीं और अक्सर प्रमुख साहित्यिक और संगठनात्मक भूमिकाओं से बाहर रखा जाता था, जिससे आंदोलन की दिशा और प्राथमिकताओं पर उनका प्रभाव सीमित हो जाता था।

आंदोलन में शामिल महिलाएं

राशिद जहाँ, इस्मत चुगताई और अतिया हुसैन जैसी महिला लेखक आंदोलन में महत्वपूर्ण योगदानकर्ता थीं। राशिद जहाँ इसमें कुछ महिला संस्थापक सदस्यों में से एक थीं। उन्होंने विवादास्पद संग्रह “अंगारे” (1932) का सह-लेखन किया, जो पीडब्ल्यूएम के गठन में महत्वपूर्ण था। उनके महत्वपूर्ण योगदानों के बावजूद, महिला लेखकों को अक्सर आंदोलन के भीतर उपेक्षा और हाशिये पर रखा गया और बेहतरीन महिला लेखिकाएं हाशिए के कारण सामाजिक पटल से कहीं ओझल हो गईं। भारत में प्रगतिशील लेखक आंदोलन (PWM) में कई महिला लेखकों की भागीदारी रही, जिनके योगदान महत्वपूर्ण थे, लेकिन अक्सर अनदेखे रह गए। ऐसी ही किन्हीं महिला लेखकों की बात हम इस लेख में कर रहे हैं।

राशिद जहां

तस्वीर साभारः Sangat Book store

राशिद जहां (1905-1952) प्रगतिशील लेखक आंदोलन की एक प्रमुख हस्ती थीं। अलीगढ़ में जन्मी, वह एक चिकित्सक और साहसी लेखिका थीं, जिन्होंने अपने कार्यों में महिलाओं के जीवन की कठोर वास्तविकताओं को उजागर किया। उनकी रचनाएं अक्सर सामाजिक परिस्थितियों और महिलाओं के प्रति उत्पीड़न की आलोचना करती थीं। उनकी प्रमुख कृतियां में निम्नलिखित शामिल हैं, “अंगारे” (1932): राशिद जहां ने इस विवादास्पद संकलन में “दिल्ली की सैर” और नाटक “पर्दा” जैसी कहानियों का योगदान दिया। इन रचनाओं में महिलाओं के उत्पीड़न और सामाजिक सुधार की आवश्यकता को उजागर किया गया। उनके लेखन में पितृसत्ता और परिवार के भीतर महिलाओं के शोषण की आलोचना की गई है। जहां की निडर लेखनी और महिला अधिकारों के प्रति उनकी वकालत ने उन्हें प्रगतशील लेखक संघ में एक महत्वपूर्ण हस्ती बना दिया, भले ही उन्हें सेंसरशिप और प्रतिरोध का सामना करना पड़ा था।

सुभद्रा कुमारी चौहान

तस्वीर साभारः Wikipedia

सुभद्रा कुमारी चौहान (1904-1948) उत्तर प्रदेश की एक प्रसिद्ध कवयित्री और लेखिका थीं। वह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय थीं और उन्होंने अपने साहित्यिक प्रतिभा का उपयोग औपनिवेशिक शासन के खिलाफ लोगों को प्रेरित करने और संगठित करने के लिए किया था। “झांसी की रानी” उनकी ऐसी कृति है जिसे खूब गाया गया है, यह प्रसिद्ध कविता रानी लक्ष्मीबाई की वीरता का गुणगान करती है और महिला वीरता, देशभक्ति का प्रतीक बन गई है। चौहान ने लघु कथाएं भी लिखीं जिसका केंद्र ग्रामीण महिलाओं का जीवन और उनकी समस्याएं रहा है। प्रसिद्ध लघु कथाएं जैसे “मेरा नया बचपन” और “सखी” बहुचर्चित है। चौहान की रचनाएं अपनी लयात्मक सुंदरता और मजबूत राष्ट्रवादी थीम के लिए जानी जाती हैं। प्रगतिशील लेखक आंदोलन में भी वह शामिल रहीं।

शम्सुन नाहर महमूद

तस्वीर साभारः Banglapedia

शम्सुन नाहर महमूद (1908-1964) एक बंगाली लेखिका, शिक्षिका और सामाजिक सुधारक थीं। वह इस आंदोलन में गहराई से शामिल थीं और उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से महिलाओं की शिक्षा और मुक्ति के मुद्दों को उठाया था। उनके प्रमुख साहित्यिक कार्यों में “बंगालर मुस्लिम नारी” का उच्च स्थान है, इस पुस्तक में बंगाल की मुस्लिम महिलाओं की स्थिति पर चर्चा की गई है और उनकी शिक्षा और सशक्तिकरण की वकालत की गई है। महमूद ने महिला अधिकारों और सामाजिक मुद्दों पर कई निबंध और लेख लिखे, जो लैंगिक समानता पर महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। महमूद का काम बंगाल और उससे आगे की महिलाओं की शिक्षा को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण था, जिसने भविष्य की पीढ़ियों की महिलाओं के लिए मार्ग प्रशस्त किया।

ज्योत्सना मिलन

तस्वीर साभारः Poshmpa

ज्योत्सना मिलन (1935-2014) एक हिंदी लेखिका थीं, जिनकी रचनाएं अक्सर महिलाओं के सामने आने वाले सामाजिक मुद्दों पर केंद्रित थीं। वह प्रगतशील लेखन आंदोलन से जुड़ी थीं और अपनी रचनाओं के माध्यम से सामाजिक मानदंडों को चुनौती देती थीं। उनकी रचनाओं में “औरत और औरत” साहित्यिक विधा में मिल का पत्थर है, यह लघु कथाओं का संग्रह महिलाओं के विभिन्न अनुभवों को उजागर करता है, उनकी समस्याओं और सहनशीलता को दर्शाता है। वहीं उपन्यास”एक थी अंसुईया” विधवा जीवन और भारत में विधवाओं को सामना करने वाले सामाजिक दबावों पर आधारित है। मिलन की रचनाएं महिलाओं के मुद्दों पर उनकी गहरी अंतर्दृष्टि और प्रगतिशील साहित्यिक आंदोलन में उनके योगदान के लिए सराही जाती हैं।

ये महिला लेखक, भले ही कम ज्ञात हों लेकिन इन्होंने प्रगतिशील लेखक आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उनके कार्यों ने न केवल भारतीय साहित्य को समृद्ध किया बल्कि महिला अधिकारों और सामाजिक सुधार के लिए भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनकी विरासत हमें साहित्य को सामाजिक परिवर्तन के साधन के रूप में इस्तेमाल करने की ताकत की याद दिलाती है।


स्रोतः

  1. Dawn.com
  2. Sfonline
  3. detailspedia.com
  4. The Open University

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