सिनेमा और टीवी हमारे समाज का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। न सिर्फ़ मनोरंजन बल्कि समाज की समकालीन व्यवस्था, मानक, परंपरा और चलन को समझने के लिए भी ये अत्यंत उपयोगी माध्यम हैं। कई बार तो लोग इसे सूचना प्राप्त करने का साधन तक बना लेते हैं। अर्थपूर्ण सिनेमा और टीवी कार्यक्रम जहां सामाजिक बदलाव के सूत्रधार बनते हैं, वहीं किरदारों का ग़लत चित्रण समाज के एक तबके को ग़ुमराह तक करने की क्षमता भी रखते हैं। इसलिए फ़िल्मकारों को पर्दे पर कहानी को प्रस्तुत करने के लिए बेहद सतर्क और ज़िम्मेदार होने की ज़रूरत होती है। हालांकि मनोरंजन जगत मांग और पूर्ति के नियम पर काफ़ी हद तक निर्भर करता है। लेकिन कुछ संवेदनशील फिल्मकारों और निर्माताओं ने हाशिए के समुदाय को भी पर्दे पर जगह देने की प्रतिबद्धता दिखाई है। इसी क्रम में पिछले कुछ वर्षों में भारतीय मनोरंजन जगत में एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के चित्रण में उल्लेखनीय तेजी आई है।
भारतीय सिनेमा और टेलीविजन लंबे समय से देश की विविधतापूर्ण संस्कृति और समाज का प्रतिबिंब रहे हैं। कुछ दशकों पहले तक ख़ासतौर पर बॉलीवुड में एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के किरदारों को मनोरंजन के मकसद से रखा जाता रहा है। इनको फ़िल्म के मुख्य क़िरदार के बजाय ऐसे सहायक कलाकार के तौर पर जगह मिलती, जो आमतौर पर मुख्य क़िरदार के इर्द-गिर्द घूमता था। इसके अलावा बहुत बार क्वीयर समुदाय को अजीब, बेढंगे और असंवेदनशील तरीके से प्रस्तुत किया जाता था। फ़िल्म ‘शोले’, ‘हम हैं राही प्यार के’, ‘राजा हिंदुस्तानी’, ‘दोस्ताना’, ‘मस्तीजादे’, ‘बोल बच्चन’, ‘कल हो न हो’ जैसे फिल्मों में एलजीबीटीक्यू+ समुदाय का असंवेदनशील तरीके से चित्रण किया गया है, जो समाज में उनके प्रति पहले से चल रहे पूर्वाग्रहों को और मजबूती देने का काम करता है। भले ही फ़िल्म में इन किरदारों का मकसद मनोरंजन रहा हो, लेकिन आम दर्शकों में इसका प्रभाव नकारात्मक रूप से पड़ता है, जिसका असर एक लंबे अर्से तक समाज में देखा जाता रहा है।
ट्रांसजेंडर समुदाय का असंवेदनशील चित्रण
बॉलीवुड में ट्रांसजेंडर समुदाय का चित्रण बेहद निराशाजनक रहा है। अधिकतर फ़िल्मों में जहां इन्हें जगह मिली, वहां पर इन्हें या तो एक हास्यास्पद तरीके से या फिर खलनायक के रूप में दिखाया गया। अभिनेता आशुतोष राणा द्वारा ‘संघर्ष’ फ़िल्म में निभाया गया किरदार हो या फिल्म ‘सड़क’ में सदाशिव अमरापुरकर का ‘महारानी’ नामक ट्रांसवूमन का किरदार, दोनों को ही हिंसक, आक्रामक और खलनायक के रूप में दिखाया गया है। ज़ाहिर सी बात है इससे ट्रांसजेंडर को लेकर समाज में नकारात्मक पूर्वाग्रह और मजबूत होते हैं।
इसी तरह ‘क्या कूल हैं हम’ , ‘पार्टनर’ और ‘मस्ती’ जैसी कई अन्य फ़िल्मों में ट्रांसजेंडर व्यक्ति के यौनिकता को नकारात्मक और अपमानजनक तरीके से दिखाया गया है। इसी तरह देश भर में होने वाले लाफ्टर शोज में कॉमेडी के नाम पर होमोफोबिया और ट्रांसफोबिया को बढ़ावा दिया जाता है। पर्दे पर इस तरह के चित्रण से आम जनमानस में गलत संदेश जाता है और लोगों में ट्रांसजेंडर के प्रति शक़ और नफ़रत को बढ़ावा मिलता है।
हिंदी फिल्मों में एलजीबीटीक्यू+ समुदाय का सफ़र
हालांकि, जब एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के प्रतिनिधित्व की बात आती है, तो छोटे परदे से लेकर बड़े पर्दे तक का यह सफ़र धीमा और चुनौतियों से भरा रहा है। हाल के वर्षों में, एलजीबीटीक्यू+ क़िरदारों और कहानियों के चित्रण में एक महत्त्वपूर्ण बदलाव दिखाई देता है। अगर सिनेमा जगत की बात की जाए तो 1971 में रिलीज हुई फ़िल्म ‘बदनाम बस्ती’ को क्वीयर समुदाय पर भारत की पहली फिल्म होने का दर्ज़ा प्राप्त है। प्रेम कपूर द्वारा निर्देशित यह फ़िल्म उस समय के लिए एक क्रांतिकारी क़दम के तौर पर जानी जाती है। इसके बाद 1996 में रिलीज हुई दीपा मेहता की फ़िल्म ‘फायर’ ने सिनेमा जगत में सनसनी फैला दी थी।
क्वीयर जोड़े के तौर पर शबाना आज़मी और नंदिता दास ने अपने बेहतरीन अभिनय से फिल्म जगत में अपनी अमिट छाप छोड़ी। इसके अलावा ‘अलीगढ़’, ‘मार्गरीटा विद स्ट्रॉ’, ‘माय ब्रदर निखिल’, ‘कपूर एंड संस’, ‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा’, ‘बधाई दो’, ‘चंडीगढ़ करे आशिकी’, ‘शुभ मंगल ज़्यादा सावधान’ जैसी फ़िल्मों ने क्वीयर समुदाय के व्यक्तियों का काफ़ी संवेदनशीलता से चित्रण किया है। इन फ़िल्मों में समुदाय पहचान स्वीकृति और संघर्ष को बेहद ख़ूबसूरती से उकेरा है।
छोटे पर्दे पर जगह
छोटे पर्दे की बात करें तो 2016 में रिलीज हुआ ‘द अदर लव स्टोरी’ नामक टीवी सीरियल क्वीयर संबंधों पर आधारित भारत का पहला टीवी सीरियल माना जाता है। रूपा राव लिखित और निर्देशित इस सीरियल में दो युवतियों के बीच की प्रेम कहानी को बेहद ख़ूबसूरती से दर्शाया गया है। इसी तरह ओटीटी प्लेटफॉर्म्स की बढ़ती लोकप्रियता के साथ इन पर नए-नए विषयों और कहानी को लेकर वेब सीरीज का चलन देखा गया। ‘मैरिड वूमेन’, ‘फोर मोर शॉट्स’, ‘मेड इन हेवन’ जैसी वेब सीरीज़ के साथ भारतीय दर्शकों के सामने एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के संबंधों का चित्रण सहजता से किया जाने लगा।
एलजीबीटीक्यू+ समुदाय की प्रगति के लिए सिनेमा और टीवी की भूमिका को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता। लेकिन यह तो तय है कि इस दिशा में अब तक जो भी प्रयास किए गए वह नाकाफ़ी हैं। शुरुआती तौर पर क्वीयर समुदाय को विमर्श में जगह देने के लिहाज़ से इन फ़िल्मों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इससे पहले यह समुदाय अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रहा था, सिनेमा के माध्यम से इस पर मुख्यधारा में विमर्श शुरू हुआ। एलजीबीटीक्यू+ किरदारों की संख्या में बढ़ोत्तरी के बावजूद चित्रण में अक्सर गहराई और प्रामाणिकता की कमी नज़र आती है। मुख्यधारा के भारतीय सिनेमा ने ऐतिहासिक रूप से एलजीबीटीक्यू+ किरदारों को वह जगह नहीं दी जो उन्हें मिलनी चाहिए। उनके वास्तविक जीवन की जटिलताओं संघर्षों, खुशियों और प्रेम संबंधों की बात कम ही की जाती है।
क्या है चुनौतियां
सिनेमा और टेलीविजन जगत में एलजीबीटीक्यू+ समुदाय का समुचित प्रतिनिधित्व न होने से इन्हें अपनी बात कहने और सही ढंग से प्रस्तुत करने का मौका नहीं मिल पाता है क्योंकि जिस समुदाय की बात होगी वह उसी समुदाय के व्यक्ति के द्वारा प्रस्तुत करने से उसकी विश्वसनीयता और प्रामाणिकता अधिक होती है। इसके अलावा, ज़्यादातर फ़िल्में बहुसंख्यक दर्शकों को ध्यान में रखकर और बॉक्स ऑफिस कलेक्शन के लिए बनाई जाती हैं। साथ ही सामाजिक स्वीकृति की भी अपनी अलग भूमिका है।
अक्सर फ़िल्मकार अपनी फ़िल्मों को विवाद से बचाने के लिए विवादित मुद्दे का चयन नहीं करते हैं बल्कि समाज स्वीकृत तयशुदा पैमाने के अनुसार फ़िल्में बनाते हैं। ग़ौरतलब है कि भारतीय समाज में लैंगिक रुझान और लैंगिक पहचान जैसे मुद्दों पर चर्चा अभी भी मनाही होती है। इसी तरह परंपरावादी धार्मिक समूहों के विरोध प्रदर्शन और ‘केन्द्रीय फ़िल्म निर्माण और प्रमाणन बोर्ड’ (सीबीएफसी) की सेंसरशिप से बचने के लिए भी बहुत सारे कलाकार ऐसे विषयों से बचते हैं।
क्या हैं आगे की संभावनाएं
इन तमाम चुनौतियों के बावजूद एलजीबीटीक्यू+ समुदाय की कहानियों को मुख्यधारा में जगह मिलनी शुरू हो गई है। पिछले 2 दशकों में एलजीबीटीक्यू+ समुदाय को लेकर मुख्यधारा के कलाकारों के साथ मिलकर फिल्मकारों द्वारा काफ़ी संवेदनशील फिल्में बनाई जा रही हैं। खासतौर पर ओटीटी प्लेटफॉर्म्स और वेब सीरीज ने छोटे पर्दे का दायरा काफ़ी विस्तृत कर दिया है। इसके अलावा एलजीबीटी+ आंदोलनों और अधिकारों की दिशा में पूरी दुनिया में सकारात्मक विमर्श चल रहा है।
क्वीयर सिनेमा को समर्पित पहल ‘कशिश मुंबई इंटरनेशनल क्वीयर फ़िल्म फ़ेस्टिवल’ एलजीबीटीक्यू+ समुदाय की कहानियों के लिए प्लेटफ़ॉर्म प्रदान करने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। अब ज़रूरत है क्वीयर एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के व्यक्तियों का फ़िल्म निर्माण में उचित प्रतिनिधित्व हो, जिससे दर्शकों के सामने इनके जीवन से जुड़ी कहानियों को और प्रामाणिक रूप से प्रस्तुत किया जा सके। इस तरह से सभी के लिए अधिक न्यायपूर्ण और समावेशी समाज बनाकर प्रगति का मार्ग सुनिश्चित किया जा सकता है।