इंटरसेक्शनलLGBTQIA+ भारत में क्वीयर आंदोलन को कैसे नब्बे के दौर में शुरू हुई पत्रिकाओं ने दी एक सशक्त पहचान

भारत में क्वीयर आंदोलन को कैसे नब्बे के दौर में शुरू हुई पत्रिकाओं ने दी एक सशक्त पहचान

इस दौर में, भारत में पहली बार जनसंचार के साधन के रूप में प्रिंट मीडिया के क्षेत्र में हाशिये पर मौजूद होमोसेक्सुअलिटी के विषय पर बात शुरू की गई। समाज में मौजूद लैंगिक पूर्वाग्रह और भेदभाव के बीच समलैंगिक समुदाय के अधिकारों की इस आवाज़ का उठना, तब के माहौल में एक क्रांतिकारी कदम की तरह देखा जाना लाज़िमी है।

LGBTQIA+ समुदाय ने आज समझ और सीख दोनों लिया है कि अपनी आवाज़ को पहचान कैसे देनी है। इनकी नज़रों में समाज की निंदा अब ज़रा फ़ीकी पड़ने लगी है। महिलाओं, दलितों, अल्पसंख्यकों, आदि के विषय में यह समाज आज भी ऐसा ही है जैसा पहले था। ये समुदाय संघर्षरत पहले भी थे और आज भी हैं। इस संबंध में समाज में व्याप्त पितृसत्तात्मक होमोफोबिक कसूर सोच का है। ऐसी सोच जिसे वैधता जन समर्थन से मिलती है। यही सोच शक्ति, प्रभाव, ऑथोरिटी और लीडरशिप में तब्दील तब होती है जब इसे जनसमर्थन प्राप्त होता है। LGBTQIA+ को ‘नॉट नॉर्मल’ की श्रेणी में रखना और इनके अधिकारों को नकारना इसी जनसमर्थन का ही परिणाम है।

इतिहास में चाहे प्राचीनकाल (ख़ासकर के वेदांती व्यवस्थाओं में धार्मिक ग्रंथ), मध्यकाल या आधुनिक काल जैसी कोई भी अवस्था हो होमोसेक्सुअलिटी की पहचान एक अवधारणा के तौर पर ज़िंदा नहीं रही है बल्कि जेंडर के रूप में एक स्वतंत्र इकाई की तरह हमें दिखाई देती है। इसे आज के सो-काॅल्ड सभ्य समाज में जेंडर की मुख्यधारा में आने से हमेशा रोका गया है ताकि यूटोपिया से ग्रस्त समाज जेंडर की बाइनरी से बाहर न आ सके। होमोसेक्सुअलिटी का आज भी टैबू माना जाना इसी बाइनरी की संस्कृति का नतीजा है।

भारत में जेंडर बाइनरी की इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था को तोड़ने का काम नब्बे के दशक में कई होमोसेक्सुअलिटी समर्थक गैर-सरकारी संगठनों की पहल और सम्मेलनों ने करना शुरू किया था। नब्बे के दशक का नया दौर, देश में केवल एल.पी.जी.(लिब्रलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन और ग्लोबलाइजेशन) जैसे निर्णायक बदलावों को ही अनुभव नहीं कर रहा था बल्कि एक कठोर हेट्रोसेक्सुअल मानकों से ग्रस्त सामाजिक व्यवस्था के भीतर रह रहे क्वीयर समुदाय को अपनी पहचान और मुद्दों को आगे लाने का भी मौका दे रहा था।

इस दौर में, भारत में पहली बार प्रिंट मीडिया के क्षेत्र में हाशिये पर मौजूद होमोसेक्सुअलिटी के विषय पर बात शुरू की गई। समाज में मौजूद लैंगिक पूर्वाग्रह और भेदभाव के बीच क्वीयर समुदाय के अधिकारों की इस आवाज़ का उठना, तब के माहौल में एक क्रांतिकारी कदम की तरह देखा जाना लाज़िमी है। इसका श्रेय बॉम्बे दोस्त और लेबिया (LABIA) जैसे प्रयासों को जाता है। लेखन जगत में एक लंबे समय तक होमोसेक्सुअलिटी का विषय सेंसरशिप तले अश्लील होने और सज़ा पाने की अन्यायपूर्ण ज़िल्लत सहता आ रहा है। इसी बीच नब्बे के दशक में इन दोनों ने क्वीयर समुदाय की अपनी हस्ती जताने और सामाजिक हैसियत के तहत उनके मुद्दों और अधिकारों को उठाने का बखूबी काम किया। सामाजिक अवहेलना की संस्कृति से जन्मी क्वीयर होने की वर्जना और मिथ्या से निपटने के लिए संवाद शुरू करना छोटी बात कतई नहीं थी।

क्वीयरनेस की मिसाल बॉम्बे दोस्त

होमोसेक्सुअलिटी को एक बीमारी समझे जाने और इसे अप्राकृतिक मानने जैसी होमोफोबिक व्याख्याओं और सोच को चुनौती देती पत्रिका बॉम्बे दोस्त की शुरुआत साल 1990 में की गई थी। भारत के उस दौर में, पत्रिका के रूप में बॉम्बे दोस्त LGBTQIA+ समुदाय के साथ हो रहे भेदभाव को दर्ज करने के लिए प्रिंट की दुनिया में एक सशक्त कदम की तरह सामने आया था। यह देश की LGBTQIA+ समुदाय के लिए पहली पत्रिका भी मानी जाती है जिसके संस्थापक अशोक रो कवि हैं। 

तस्वीर साभार: Mid Day

शुरुआती दौर में ‘बॉम्बे दोस्त’ के संस्करण 15 रुपये की प्रीमियम क़ीमत पर बेचे जाते थे। गे समुदाय से आनेवाली शख़्सियतों के इंटरव्यू, उनसे जुड़ी व्यक्तिगत समस्याएं जिनपर खुलकर कभी बात नहीं की जाती थी, सेक्सुअल ओरिएंटेशन और व्यवहार के पैटर्न को कलंकित मानने की सामूहिक सोच, समाज में हर क़दम पर संघर्ष से भरे गे लोगों के अनुभव और मुद्दों को इस पत्रिका में कवर किया जाता था। अगले ही साल 1991 के संस्करण में, पत्रिका को समावेशी बनाते हुए समलैंगिकों की एक और लेस्बियन कैटेगरी को जगह मिली। भारत में जब इंटरनेट की शुरुआत हुई तो इसे जनता के लिए उपलब्ध कराने में तक़रीबन एक दशक लग गया था। 1999 के संस्करण ने इसी की तर्ज पर इंटरनेट से समलैंगिक समुदाय के जीवन में होने वाले बदलावों और पड़नेवाले प्रभावों की चर्चा की, जिसे ‘साइबरगे कवर स्टोरी’ का शीर्षक दिया गया था।

क्वीयर समुदाय और नारीवादी दृष्टिकोण के विचार के तहत काम करता लेबिया

इसी पंक्ति में दूसरी चर्चा एक क्वीयर नारीवादी संगठन लेबिया(LABIA) की होती है। साल 1995 में शुरू हुआ, लेबिया समलैंगिक समुदाय के समूहों के सबसे पुराने समूहों में से एक है। इसे पहले ‘स्त्री संगम’ के नाम से जाना जाता था। हाशिये पर मौजूद ट्रांस महिलाओं जो कि अलग-थलग और अदृश्यता में अपनी ज़िंदगियां जी रही थीं, उन्हें अभिव्यक्त करने के उद्देश्य से इसकी नींव रखी गई थी। लेबिया की गतिविधियों में भारत और अन्य देशों में रह रहीं क्वीयर महिलाएं के अलावा अन्य क्वीयर लोग भी शामिल हैं।

इस समूह ने उत्पीड़न और हिंसा के सर्वाइवर क्वीयर समुदाय और महिलाओं के अधिकारों को लेकर कई सेमिनार और अभियान चलाए हैं जैसे क्वीयर समुदाय की काउंसिलिंग के लिए हेल्पलाइन की सेवा मुहैया कराना, क्वीयर अधिकारों पर रणनीति तैयार करने के लिए राष्ट्रीय कार्यशाला का गठन करना, हमारी जिंदगी, हमारी चाॅइस, आदि प्रयास शामिल हैं। 1997 में, संगठन ने ‘स्क्रिप्ट्स’ नाम से पत्रिका भी शुरू की थी जिसके ज़रिये क्वीयर समुदाय की रचनात्मक अभिव्यक्ति के लिए कई तरह के कार्यक्रम आयोजित किए हैं।

रितिका बनर्जी फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए

लेबिया के साथ कई तरह के क्वीयर और नारीवादी संगठन मिलकर काम करते हैं। लेबिया का शोधपरक नज़रिया क्वीयर समुदाय की समस्याओं और मुद्दों को और बेहतर तरीके से समझने का रास्ता प्रदान करता है। इस संबंध में संगठन ने जन्म से स्त्री जेंडर निर्धारित क्वीयर लोगों की कई तरह की लिंग पहचान की वास्तविकताओं और समस्याओं को सामने लाने के लिए ‘बाइनरी जेंडर व्यवस्था को तोड़ते हुए’ नाम से एक शोध अध्ययन पर भी काम किया है।

देश में आज भी समलैंगिक समुदाय कलंक और हिंसा जैसी कठिनाइयों का सामना कर रहा है। सदियों से हाशिये पर ठहरे वे आज भी समाज में, क्वीयर मूवमेंट के जरिए अपने अस्तित्व और पहचान को सशक्त अभिव्यक्ति प्रदान कर रहे हैं। इसी क्वीयर आंदोलन को मज़बूत बनाने में बॉम्बे दोस्त और लेबिया जैसे संगठन का योगदान अग्रणी हैं। वे आज भी समलैंगिक समुदाय के सामाजिक मुद्दों से संबंधित अपने मक़सद को आगे बढ़ाते हुए लगातार जारी हैं।


Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content