समाज माया: द बर्थ ऑफ सुपरहीरोः पीरियड्स टैबू पर बात करती एक बेहतरीन शॉर्ट फिल्म

माया: द बर्थ ऑफ सुपरहीरोः पीरियड्स टैबू पर बात करती एक बेहतरीन शॉर्ट फिल्म

यह शॉर्ट फ़िल्म उनके फ़ोटोग्राफ़ी प्रॉजेक्ट ‘ब्लड स्पीक्स-अ रिचुअल ऑफ़ एक्ज़ाइल’ (2013) से प्रेरित है जिसमें उन्होंने दक्षिणी एशिया, विशेष रूप से नेपाल में ‘चौपाड़ी प्रथा’ (पीरियड्स निर्वासन) के पालन से महिलाओं की स्थिति पर वैश्विक समुदाय का ध्यान खींचा था।

सदियों से पीरियड्स का विषय रूढ़िवाद और वर्जनाओं में घिरा हुआ विषय रहा है। पीरियड्स के साथ होने वाली असुविधा और दर्द को अक़्सर या तो नज़रअंदाज किया जाता है या फिर छिपाने की कोशिश की जाती है, जिससे अज्ञानता और शर्म का दुष्चक्र यूंही कायम रहता है। ‘माया: द बर्थ ऑफ़ अ सुपरहीरो’ फिल्म दर्शकों को एक जीवंत आभासी वास्तविकता का अनुभव देकर इस चुप्पी को ख़त्म कर पीरियड्स की वास्तविकताओं को स्पष्ट और इसे केंद्र में लाने का प्रयास करती है। 

हाल में ‘कांस फ़िल्म फेस्टिवल’ में रिलीज़ हुई पौलोमी बसु और सीजे क्लार्क द्वारा निर्देशित यह फ़िल्म पौलोमी बसु के लॉन्ग टर्म प्रॉजेक्ट ‘ब्लड स्पीक्स’ का हिस्सा है जिसमें वो पीरियड्स से जुड़े मुद्दों पर लगातार काम करती आ रही हैं। उनकी यह शॉर्ट फ़िल्म उनके फ़ोटोग्राफ़ी प्रॉजेक्ट ‘ब्लड स्पीक्स-अ रिचुअल ऑफ़ एक्ज़ाइल’ (2013) से प्रेरित है जिसमें उन्होंने दक्षिणी एशिया, विशेष रूप से नेपाल में ‘चौपाड़ी प्रथा’ (पीरियड्स निर्वासन) के पालन से महिलाओं की स्थिति पर वैश्विक समुदाय का ध्यान खींचा था।

यह फ़िल्म उन पितृसत्तात्मक संरचनाओं को चुनौती देती है जो लंबे समय से महिलाओं के पीरियड्स के अनुभवों के प्राकृतिक पहलू को दबाने और शर्मिंदगी करने की कोशिश करते रहे हैं। चाहे वो मेंस्ट्रुएशन के दौरान तमाम प्रतिबंध लगाने से लेकर प्री मेंस्ट्रुअल सिंड्रोम को झुठलाने की ही बात क्यों न हो। आधे घण्टे की अवधि वाले इस फ़िल्म में पीरियड्स से जुड़े वो तमाम अनुभव शामिल करने की कोशिश की गई है जो कभी भी किसी पीरियड्स होने वाले व्यक्ति के जीवन में उन्होंने महसूस किये होंगे। एक शॉर्ट फ़िल्म से ज़्यादा मैं इसे एक “रील ऑफ़ एक्सपीरिएंस” कहना पसन्द करूंगी क्योंकि ये दुनिया की हर औरत के निजी अनुभव की कहानी है जिसे वर्चुअल रिएलिटी की मदद से पौलोमी ने सबको वो एहसास करवाने कोशिश की है जिसमें वो काफ़ी हद तक सफल भी रही हैं।

फ़िल्म का सेंट्रल थीम है मेंस्ट्रुएशन यानी पीरियड्स जिसके माध्यम से यह बताने की कोशिश की गई है कि पीरियड्स कोई अभिशाप या छूत की बीमारी नहीं बल्कि यह तो वह शक्ति स्रोत है जिससे जीवन चलता है। इसकी वजह से हम औरतों के पास सृजन, उपचार और परिवर्तित करने की शक्ति है जैसा कि फ़िल्म की मुख्य किरदार माया भी कहती है, “पावर टू क्रिएट, हील एंड ट्रांसफ़ॉर्म!” फ़िल्म में माया की कहानी है जो कि अपने साउथ एशियन परिवार के साथ लंदन में रहती है। जैसा कि मैंने पहले कहा, ये कहानी रील ऑफ़ एक्सपीरिएंस है जिसमें माया के पहले पीरियड्स आने से कैसे उसके दोस्त, परिवार और आसपास के लोगों का रवैया बदलता है और उससे भी बढ़कर इन सबके बीच ख़ुद माया का कैसा अनुभव रहता है, यह फ़िल्म यह सब दर्शकों को अनुभव करा पाने में कामयाब होती है।

तस्वीर साभारः YouTube

इस कामयाबी का काफ़ी श्रेय जाता है पौलोमी के वीआर (वर्चुअल रिएलिटी) मीडियम को जो उन्होंने कहानी कहने के लिए चुना है। जहां आप वीआर हेडसेट लगाकर माया की दुनिया में उसकी स्व के खोज की आंतरिक यात्रा में शामिल हो जाते हैं। यह फ़िल्म आपको एक आभासी वास्तविकता की दुनिया में ले जाती है जहां आप 360 एनवायरमेंट में एक सहभागी सिनेमाई अनुभव साझा करेंगे जिसमें आप वो सब अनुभव कर सकेंगे जो एक स्त्री अपने पीरियड्स के दौरान करती है। औरतें माया के क़िरदार के साथ खुदको जोड़कर देख पाएंगी।

फ़िल्म को देखते आप काफ़ी बार असहज महसूस करेंगे। अगर आप एक महिला नहीं हैं तो ये फ़िल्म और ज़्यादा परेशान और असहज करती है। फिर आपके चेहरे का जो भाव उस वक्त होगा, वही देखना इस फ़िल्म का मक़सद भी है। इसके साथ ही यह फ़िल्म पीरियड्स और उससे जुड़े शर्म और कलंक के ऊपर खुलकर बात करती है जो न केवल ग्लोबल साउथ में महिलाओं की सच्चाई है बल्कि आश्चर्यजनक रूप से पश्चिमी देशों की भी महिलाओं की लगभग समान समस्याएं हैं। इसे देखने के बाद यह समझना मुश्किल नहीं कि कैसे विकसित समाज में भी महिलाएं कितनी पिछड़ी हैं और महिलाओं के प्रति विकसित समाज की सोच पिछड़ी है।

यह फ़िल्म उन पितृसत्तात्मक संरचनाओं को चुनौती देती है जो लंबे समय से महिलाओं के पीरियड्स के अनुभवों के प्राकृतिक पहलू को दबाने और शर्मिंदगी करने की कोशिश करते रहे हैं। चाहे वो मेंस्ट्रुएशन के दौरान तमाम प्रतिबंध लगाने से लेकर प्री मेंस्ट्रुअल सिंड्रोम को झुठलाने की ही बात क्यों न हो।

चाहे वो पीरियड्स को लेकर गोपनीयता बनाए रखने की थोपी गई अनिवार्यता हो, पीरियड्स के दौरान महिलाओं को अशुद्ध और अछूत मानकर उनके अपने दैनिक दिनचर्या से काटकर रखने का सवाल हो या फिर अज्ञानतावश आसपास के लोगों, ख़ासकर पुरुषों का उनके प्रति बर्ताव हो। दुनिया के ग्लोब में महिलाओं के पीरियड्स को लेकर हालात लगभग एक जैसे ही हैं। पौलोमी भी इस फ़िल्म को लेकर अपने एक इंटरव्यू में बताती हैं कि सबके मन में एक आम धारणा है कि पश्चिमी देश विकसित है तो वहां पीरियड्स को लेकर सबमें स्वीकृति का भाव होगा या ये टैबू नहीं होगा लेकिन सच्चाई इसके उलट है। जो यह फ़िल्म काफ़ी हद तक दिखा पाने में सक्षम है।

फ़िल्म कई मायनों में यूनिक है और इस विषय पर पहले बनी फ़िल्मों से काफ़ी अलग भी। पहले की फ़िल्मों से अलग ऐसे कि इसमें पीरियड्स को पौलोमी शक्ति के स्रोत के रूप में पुनर्परिभाषित करने का प्रयास करती हैं जिसके लिए उन्होंने एशियन माइथोलॉजी का सहारा लिया है। हालांकि ऐसा कर उन्होंने पीरियड्स को लेकर एक तरफ़ अशुद्ध और छूत वाले नैरेटिव के समकक्ष एक दैविक शक्ति वाला नैरेटिव तो खड़ा कर दिया है, लेकिन अब सवाल यह है कि इनके बीच की खाई पाटकर एक सहज प्राकृतिक प्रक्रिया के रूप में हम इसे कब स्वीकारेंगे?


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