समाजकानून और नीति पतियों का अपने पत्नियों के वित्तीय सशक्तिकरण के बारे में सोचना क्यों ज़रूरी है?

पतियों का अपने पत्नियों के वित्तीय सशक्तिकरण के बारे में सोचना क्यों ज़रूरी है?

एक ऐसे समाज में जहां व्यवस्थित पितृसत्ता है, और हजारों महिलाओं को शिक्षा, स्वास्थ्य और आय करने के बुनियादी अधिकार से दूर रखा जा रहा है, वहां परिवार और खासकर जीवनसाथी का आर्थिक रूप से महिलाओं को सारे अधिकार देना जरूरी है।

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट की न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना ने हाल ही में अपने एक फैसले में कहा कि पतियों को अपने वित्तीय संसाधनों को अपनी ‘हाउसवाइफ’ पत्नियों के साथ साझा करना चाहिए, जिनके पास सशक्त बनने के लिए आय का कोई स्वतंत्र स्रोत नहीं है। न्यायमूर्ति नागरत्ना ने पूर्ववर्ती आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धर्मनिरपेक्ष धारा 125 के तहत तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण के अधिकार को बरकरार रखते हुए, मामले में एक अलग राय दी कि एक भारतीय विवाहित पुरुष को इस तथ्य के प्रति सचेत होना चाहिए कि उसे अपनी पत्नी, जिसके पास आय का कोई स्वतंत्र स्रोत नहीं है, को विशेष रूप से उनकी व्यक्तिगत जरूरतों के लिए वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराकर आर्थिक रूप से सशक्त बनाना होगा और उनकी देखभाल करनी होगी। दूसरे शब्दों में, पतियों को अपने वित्तीय संसाधनों तक पहुंच प्रदान करते हुए ‘हाउसवाइफ’ पत्नियों को सशक्त करना जरूरी है।

सुप्रीम कोर्ट की न्यायाधीश ने आर्थिक रूप से स्वतंत्र या नौकरीपेशा विवाहित महिलाओं और उन महिलाओं के बीच अंतर किया, जो अपने व्यक्तिगत खर्चों को पूरा करने के लिए घर पर ही रहती हैं। न्यायमूर्ति नागरत्ना ने कहा कि एक ‘कमजोर पत्नी’ का ऐसा ‘वित्तीय सशक्तिकरण’ उसे परिवार में अधिक सुरक्षित बनाएगा। वे भारतीय विवाहित पुरुष जो इस पहलू के प्रति सचेत हैं और जो घरेलू खर्च के अलावा, संयुक्त बैंक खाता या एटीएम कार्ड के माध्यम से, अपने व्यक्तिगत खर्चों के लिए अपने जीवनसाथी के लिए वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराते हैं, उन्हें स्वीकार किया जाना चाहिए।

एक घरेलू महिला एक कामकाजी पुरुष की तुलना में अधिक समय तक काम करती है। फर्क सिर्फ इतना है कि पुरुष को उस काम करने के बदले में पैसा मिल जाता है। लेकिन महिला के घरेलू काम को कोई पैसा देने लायक नहीं समझता है। 

महिलाएं खुदकी इच्छाओं को ताक पर रखकर करती हैं सेविंग 

उच्चतम न्यायलय की यह टिप्पणी गृहणियों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। पतियों द्वारा पत्नियों को आर्थिक रूप से सशक्त बनाना असल में उन्हें गोल्ड डिगर नहीं बना देता है। हमारे समाज में अक्सर औरतों को पैसे बचाने वाली माना जाता है। अमूमन भारतीय गृहिणी से मासिक घरेलू बजट से जितना संभव हो, उतना पैसा बचाने की उम्मीद की जाती है और वह ऐसा करती भी हैं। ये सेविंग न केवल परिवार के वित्तीय संसाधनों को बढ़ाने के लिए बल्कि शायद अपने व्यक्तिगत खर्चों के लिए भी एक छोटा सा हिस्सा बचाने की पूरी कोशिश में लगी रहती है। अपने निजी खर्चों के लिए पति या उसके परिवार से अनुरोध करने से बचने के लिए पत्नियां इस तरह की प्रथा का पालन करती हैं। हर छोटे-मोटे खर्चे के लिए दूसरों के आगे हाथ फैलाने से अच्छा उन्हें बचत करना लगता है। एक तरह से यह पैसा वो खुद के सशक्तिकरण में लगाती हैं। कई बार यह सेविंग घर पर या पति पर आई मुश्किल को टालने में भी खर्च हो जाती है।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए श्रेया टिंगल

इस सबके बावजूद, भारत में अधिकतर शादीशुदा पुरुषों को अपनी ‘गृहिणी’ पत्नियों की आर्थिक स्थिति का एहसास भी नहीं होता है। अमूमन इनके खर्च के अनुरोध को उनके या उनके परिवार द्वारा स्पष्ट रूप से अस्वीकार कर दिया जाता है। पतियों को पत्नियों के खुद के खर्चे नहीं पता होते और न ही उन्हें इस सबकी समझ होती है। यदि पत्नी कुछ कहती भी है, तो पितृसत्तात्मक सोच और व्यवहार क्षण भर में उन्हें चुप भी करा देता है। उनकी नज़र में पत्नी का अपनी इच्छा के लिए सवाल करना बहुत बड़ा मुद्दा हो जाता है। कुछ पतियों को इस तथ्य के बारे में पता भी नहीं है कि जिस पत्नी के पास वित्त का कोई स्वतंत्र स्रोत नहीं है, वह न केवल भावनात्मक रूप से बल्कि आर्थिक रूप से भी उन पर निर्भर है। ऐसे में उसे वित्तीय पहुंच से दूर करना उसे मानसिक और भावनात्मक नुकसान पहुंचाना भी होता है।

पतियों द्वारा पत्नियों को आर्थिक रूप से सशक्त बनाना असल में उन्हें गोल्ड डिगर नहीं बना देता है। हमारे समाज में अक्सर औरतों को पैसे बचाने वाली माना जाता है।

घरेलू काम को महत्व देने की जरूरत

महिला सशक्तिकरण केवल उच्च शिक्षित, कठोर, महत्वाकांक्षी, कैरियर उन्मुख महिलाओं द्वारा कार्यस्थल में कड़ी लड़ाई लड़ने और और ऊंचे ओहदों पर पहुंचने से ही पूरा नहीं होता है। एक सशक्त महिला वह भी है, जो नौकरी नहीं बल्कि गृहिणी बनना चुनती है। यह अपनी पसंद खुद चुनने और अपनी पसंद का जीवन जीने की आज़ादी के बारे में है। यदि एक महिला गृहिणी बनकर खुश है और वह अपनी आवश्यकताओं के लिए आर्थिक रूप से अपने पति पर निर्भर रहना पसंद करती है तो यह उसकी अपनी पसंद है। एक महिला का घरेलू महिला होने, एक स्नेहमयी पत्नी होने और पूरे समय देखभाल करने वाली माँ होने का किरदार अदा करना मुश्किल, चुनौतीपूर्ण और अद्भुत भी है।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए श्रेया टिंगल

इसमें उस महिला पर दया करने या उसकी हालत में सुधार करने जैसी कोई बात नहीं है। गृहिणी होना आवश्यक रूप से आलसी या शांतचित्त, प्रभुत्वशाली और उत्पीड़ित होने का निशानी नहीं है। उस महिला का गृहणी बनने का अर्थ महज इतना नहीं है कि वह पैसा कमाने का काम नहीं करती। एक घरेलू महिला एक कामकाजी पुरुष की तुलना में अधिक समय तक काम करती है। फर्क सिर्फ इतना है कि पुरुष को उस काम करने के बदले में पैसा मिल जाता है। लेकिन, महिला के घरेलू काम को कोई पैसा देने लायक नहीं समझता है। 

एक सशक्त महिला वह भी है, जो नौकरी नहीं बल्कि गृहिणी बनना चुनती है। यह अपनी पसंद खुद चुनने और अपनी पसंद का जीवन जीने की आज़ादी के बारे में है। यदि एक महिला गृहिणी बनकर खुश है और वह अपनी आवश्यकताओं के लिए आर्थिक रूप से अपने पति पर निर्भर रहना पसंद करती है तो यह उसकी अपनी पसंद है।

क्यों महिलाओं को आर्थिक रूप से सशक्त करने की जरूरत

हालांकि कई बार महिलाएं खुद गृहिणी बनाना नहीं चुनती। उन्हें हालात ऐसी स्थिति में डाल देते हैं कि उन्हें मजबूरन सिर्फ गृहिणी तक खुदको सीमित करना पड़ता है। पितृसत्तात्मक सोच इसका एक बड़ा कारण है। अमूमन ऐसा माना जाता है कि एक बहु को कमाने के लिए घर से बाहर नहीं जाना चाहिए। पैसा कमाने का काम सिर्फ पुरुषों का है। हमारे समाज में मौजूद लैंगिक रूढ़िवाद तय करती है कि महिला का स्थान घर में है और वह सामाजिक पदानुक्रम में पुरुष की ‘कॉर्पोरेट ब्रेड विनर’ स्थिति की तुलना में निम्न सामाजिक और आर्थिक स्थिति रखती है।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए श्रेया टिंगल

यह रूढ़िवादिता विशेष रूप से महिलाओं की अपने प्रति अपेक्षाओं और समाज के महिलाओं के साथ किए जाने वाले व्यवहार के लिए हानिकारक है। महिलाओं के अधिकारों को प्रभावित करने वाला सबसे महत्वपूर्ण कारकों में से एक, विशेष रूप से विकासशील दुनिया में, उन्हें दूसरों पर निर्भर बनाकर रखना या उनकी ‘निर्भरता’ है। महिलाओं को अक्सर अपने पतियों की नौकरी करना चाहे तो भी वह समर्थन नहीं मिलता, जो घर के पुरुष को मिलता है। साथ ही, कामकाजी महिलाओं के लिए रोजगार के क्षेत्र में भी अवसर की कमी और भेदभाव मौजूद है जो महिलाओं को घर तक सीमित करता है।

एक ऐसे समाज में जहां व्यवस्थित पितृसत्ता है, और हजारों महिलाओं को शिक्षा, स्वास्थ्य और आय करने के बुनियादी अधिकार से दूर रखा जा रहा है, वहां परिवार और खासकर जीवनसाथी का आर्थिक रूप से महिलाओं को सारे अधिकार देना जरूरी है।

जब महिलाओं को आर्थिक रूप से मजबूत नहीं किया जाता है, तो एक गृहिणी को पैसे के लिए अपने पति पर निर्भर रहना पड़ता है। खासकर अगर उसके बच्चे हैं, तो उसे उन बच्चों की हर छोटी-बड़ी ख्वाहिश के लिए पति या रिश्तेदारों और संबंधियों का मुंह देखना पड़ता है। एक ऐसे समाज में जहां व्यवस्थित पितृसत्ता है, और हजारों महिलाओं को शिक्षा, स्वास्थ्य और आय करने के बुनियादी अधिकार से दूर रखा जा रहा है, वहां परिवार और खासकर जीवनसाथी का आर्थिक रूप से महिलाओं को सारे अधिकार देना जरूरी है। उच्चतम न्यायालय की ओर से यह टिप्पणी महिलाओं को उनके गरिमापूर्ण जीवन जीने में मदद करेगी। समाज को यह समझना पड़ेगा कि पत्नियों को वित्तीय पहुंच देना, कोई आर्थिक शोषण नहीं बल्कि उनका अधिकार है। उनको वित्तीय पहुंच से दूर करना उनके मौलिक अधिकारों का हनन है।

वित्तीय सशक्तिकरण का महत्व

जब तक महिलाएं आर्थिक रूप से सशक्त नहीं होंगी तब तक वे पूरी तरह से सशक्त नहीं हो सकतीं। आम तौर पर, महिलाएं पुरुषों की तुलना में आय और खर्च पर चर्चा करने की कम संभावना रखती हैं।  इसलिए, वे बड़े नुकसान से शुरुआत करती हैं। आर्थिक रूप से सशक्त व्यक्ति सूचित और कुशल दोनों होता है। वे समझते हैं कि वे अपना पैसा कैसे खर्च करते हैं, सही वित्तीय निर्णय लेते हैं, और अपने लक्ष्यों तक पहुंचने में मदद करने के लिए संसाधनों तक उनकी पहुंच होती है। महिलाओं को पैसों के मामलों में शामिल होना चाहिए। पैसे संभालने से ही हर क्षेत्र में आगे बढ़ने का अवसर होता है। महिलाओं का गरिमापूर्ण जीवन जीने का मौका मिलता है। वित्तीय पहुंच से महिलाओं को अपना आत्मविश्वास ही नहीं, खुदके जीवन के निर्णय लेने में मजबूती मिलती है।

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