ओटीटी प्लेटफॉर्म पर ‘महाराजा’ फिल्म रिलीज होने के बाद फिल्म ख़बरों में छा गई। फिल्म कैसी है, कहानी, अभिनय के अलावा यह अन्य कारणों से चर्चा में घिरी रही। फिल्म के ऊपर विवाद के चलते गुजरात हाई कोर्ट में धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने का मामला दर्ज किया गया था। यह फिल्म 1862 के एक महाराज के मानहानि मामले पर आधारित थी। भारतीय फिल्मों का धर्म के साथ विवादित लेकिन शुरुआती रिश्ता रहा है। भारतीय समाज में अपनी गहरी जड़ जमाए हुए बाबाओं और उनकी संस्कृति को दिखाने के लिए फिल्मों में हमेशा यह विषय शामिल रहा है। शुरू से लेकर वर्तमान तक हिंदी सिनेमा के इतिहास पर नज़र डाले तो भक्ति, पौराणिक विषयों से शुरू हुई कहानियां वर्तमान के बाबा, महाराजों की ठग और चमत्कारिक दावों से पर्दा उठाने और बाबाओं के धर्म के बाजार की व्यवस्था को समझाने का एक तरीका भी रहा है। यही वजह कि इस मुद्दे पर बनी लोकप्रिय फिल्मों के ख़िलाफ़ भावनाएं आहत होने के क्रम में कानूनी दांव-पेंच लगाए गए ताकि सिनेमा के माध्यम से धर्म बाबाओं के इस पक्ष से दर्शकों को दूर रखा जाए।
सिनेमा और धार्मिक पौराणिक कथाएं
पौराणिक फ़िल्मों का भारत में ख़ास स्थान रहा है। इन्हें भारतीय सिनेमा में फ़िल्मों की पहली शैली कहा जाता है। साल 1913 में आई फिल्म राजा हरीशचंद को भारत की पहली फिल्म माना है। इसमें हिंदू ग्रंथ महाभारत की एक कहानी बताई गई। भारतीय सिनेमा के शुरुआती दौर में पौराणिक कथाएं थीं। भारत में पौराणिक फिल्मों की शैली की शुरुआत फिल्मकार धुंडीराज गोविंद फाल्के ने की थी। दादा साहेब फाल्के का मानना था कि भारत की छवि बनाने के लिए, भारत से जुड़े चरित्रों को फिल्मों में दिखाया जाना चाहिए। उस दौर में सत्यावान सावित्री (1914), सत्यवादी हरिश्चंद (1917), कालिया मर्दन (1919) जैसी फिल्में बनी थीं। ये फिल्में केवल भक्तिपूर्ण समर्पण की नहीं थी बल्कि धर्म और व्यक्तिकरण के बारे में भी थीं। फिल्म अछूत कन्या (1936) में भेदभावपूर्ण ब्राह्मणवादी मूल्यों का संरक्षण करने वाले धर्मगुरुओं पर कटाक्ष किया गया था।
हिंदी सिनेमा में धर्म इतना व्यापक रहा है कि फिल्में भगवान या धार्मिक रीति-रिवाजों से अलग धार्मिक किरदारों में आस्थाओं से जुड़ी बातें दिखाई जाने लगी। इस कड़ी में 1943 में आई फिल्म पृथ्वी वल्लभ, 1956 में इंद्रसभा भी थी। इतना ही नहीं फिल्मों में भगवान की जगह भक्तों की कहानियां भी दिखाई जाती थी। साल 1926 में प्रह्लाद के नाम पर दो अलग-अलग फिल्में बनीं और करीब हर भारतीय भाषा में इस कहानी के रीमेक बने। धर्म और सिनेमा के संबंध पर बात करने एक महत्वपूर्ण उदाहरण विजय आनंद द्वारा निर्देशित और आर.के. नारायण के उपन्यास पर आधारित फिल्म ‘गाइड’ (1965) है। इसमें राजू नामक एक मार्गदर्शक की कहानी है, जो आध्यात्मिक नेता में बदल जाता है। फिल्म में मानव स्वभाव, आस्था और मुक्ति के विषय को उजागर किया गया है। यह दर्शकों को कर्म-काड़ से अलग आध्यात्मिकता पर बात करती है।
शुरुआती पहला दृश्य धार्मिक
इतना ही नहीं उस दौर में फिल्मों के शुरुआती सीन में अक्सर धार्मिक चित्र और मंत्र होते थे जैसे आरके फिल्म के सीन में पृथ्वीराज कपूर को एक पूजा करते हुए दिखाया गया या महबूब खान का कम्युनिस्ट हथौड़ा और दरांती जहां उर्दू शायरी के साथ लिखा होता था, ‘मुद्दई लाख बुरा चाहे तो क्या होता है, वही होता है जो मंज़ूर-ए-खुदा होता है’ इसका मतलब है कि आपके दुश्मन आपका कितना भी बुरा चाहते हों, आपके लिए इसका कोई महत्व नहीं होना चाहिए क्योंकि हमारे साथ वही होता है जो ईश्वर चाहता है।
फिल्मों में धार्मिक आस्था का तत्व समय के साथ बदला है। शुरुआत में जहां यह भक्ति भावना और आस्था पर आधारित थी वहीं बाद के समय में समाज में जिस तरह धर्म की स्थिति बदलती गई उसी तरह सिनेमा में भी इस विषय पर काम होता रहा। जब हम सिनेमा और धर्म के विषय पर बात करते हैं तो इसके आलोचनात्मक पक्ष को भी देखना होगा। भारतीय सिनेमा ने धार्मिक मुद्दों पर बनी फिल्मों में बाबाओं, स्वघोषित भगवानों और इसके व्यापार के मॉडल की वास्तविकता से रूबरू भी कराया है। सिनेमा ने आस्था को पुनस्थापित करते हुए देवताओं और बाबाओं की वर्चस्वशाली मूल्यों के चंगुल से मुक्त करने का निरतंर प्रयास किया है।
1941 और 1964 में चित्रलेखा टाइटल से दो फिल्में बनी और दोनों फिल्मों में धार्मिक धारणाओं की तीखी आलोचना हुई। इसी क्रम में आईएस जौहर निर्देशित नास्तिक (1954) में ईश्वर, बाबाओं और सामाजिक प्रभुत्व के चंगुल से मुक्त कराने के विषय पर थी। सत्यजीत रे की ‘कपुरुष ओ महापुरुष’ में भी बाबाओं के धोखेबाज रूप को सामने रखा गया है। पिछले कुछ दशकों में धर्मगुरुओं पर बनी फिल्मों मे भक्तों पर उनके प्रभाव, ठगी, धन, बाहुबल को पर्दे पर उतारा गया है। राजनीति के साथ बाबाओं का गठबंधन, यौन शोषण के पक्ष को भी दर्शकों के सामने बखूबी रखा गया है। ओ माई गॉड (2012), दोजखः इन सर्च ऑफ हेवन (2013), पीके (2014), स्वामी पब्लिक लिमिटेड (2024), सिंघम रिटर्न (2014) धर्म संकट में (2015), सेक्रेड गेम्स (2018), आश्रम (2020) और महाराजा (2024) जैसी फिल्मों और सीरीज बाबा संस्कृति के काले पक्ष पर बात करती हैं। इन फिल्मों का विरोध हुआ है, भावनाएं आहत होने के क्रम में अदालती कार्रवाई तक की गई है।
क्षेत्रीय सिनेमा में पौराणिक किरदार
क्षेत्रीय सिनेमा की बात करे तो धर्म, स्थानीय मिथक, लोककथाओं और आध्यात्मिक परंपराओं से जुड़ी कहानियों को वहां भी दर्शाया जाता आ रहा है। मराठी, मलयालय, तेलगु या तमिल कोई भी क्षेत्रीय सिनेमा हो वहां भी पौराणिक कथाओं और किरदारों को केंद्र में रखते हुए कहानियां कही गई। हर क्षेत्रीय सिनेमा में संतो और सुधारकों के जीवन को पर्दे पर दिखाया गया है। मलयालम में कुमारसंभवम (1969), गुरू (1977) जैसी फिल्में बनीं। तेलगु में अन्नामन्या (1997), श्री रामदासु (2006) जैसी फिल्में बनी हैं। भारतीय सिनेमा में धार्मिक विषयों को दर्शाने में क्षेत्रीय सिनेमा हमेशा आगे रहा है।
भगवान के साथ आम इंसान के रिश्ते से लेकर भगवान के नाम पर व्यापार को फिल्मी पर्दे पर बेहतर तरीके से उतारा गया है। फिल्मों की शुरुआत से लेकर धार्मिक विषयों की भारतीय समाज में स्थिति का वर्णन होता चला आ रहा है। पौराणिक महाकाव्यों से लेकर मौजूदा फिल्मों में सामाजिक रूप से प्रासंगिक आख्यानों तक, धार्मिक रूपांकनों को हर एंगल से दिखाया गया है। लोकप्रिय सिनेमा ने धर्म के तमाम पक्ष को दिखाते हुए उन विचारों और बाबाओं के अनुयायी के सामने बहुत ही तार्किक ढंग से अपनी बात प्रस्तुत की है। साथ ही आस्था, समाज और व्यक्ति के बीच बेहद जटिल संबंधों की गहरी समझ को भी बढ़ावा देने का काम किया गया है।