सोशल मीडिया और टीवी चैनल की ख़बरों में शहीद कैप्टन अंशुमान सिंह के माता-पिता के एक बयान के बाद एक बहस चल पड़ी कि शहीद के वित्तीय अधिकारों पर हक किसका है। मृत सैनिक की विधवा का या उसके माता-पिता का। भारत में दुनिया में सबसे ज्यादा उन विधवा महिलाओं की संख्या है जिन्होंने अपने पति को युद्ध में खोया है। देश में युद्ध विधवाओं के अनुभवों, जीवन और उनके अधिकारों को लेकर बहुत कम चर्चा होती है। इस दिशा में बहुत कम शोध हुआ है। एक सैनिक के शहीद होने बाद पत्नी को मिलने वाली पेंशन, राशि और अन्य अनुदान के सुनिश्चित करने के कई मानदंड तय किए गए हैं। विधवाओं के लिए बनाए गए नियम कई स्तर पर उनकी एजेंसी को नियंत्रित करते हैं। हालांकि बीते कुछ समय में भारत में इस दिशा में प्रगतिशील बदलाव हुए हैं लेकिन आज भी युद्ध विधवा ऐसा विषय है जिस पर बहुत कम बात होती है। कैप्टन अंशुमन की विधवा स्मृति सिंह के साथ हो रहे व्यवहार से कई सवाल समाने खड़े कर दिए हैं।
5 जुलाई को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्म ने मरणोपरांत अंशुमान सिंह को सम्मानित करते हुए उनकी पत्नी स्मृति सिंह और माँ को कीर्ति चक्र दिया था इस कार्यक्रम के बाद अंशुमान के पिता का इंटरव्यू आया जिसमें उन्होंने कहा कि स्मृति सिंह ने घर छोड़ दिया है। कैप्टन के पिता ने रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह से सेना के निकटतम संबंधी नियमों के बदलाव की मांग तक की। उन्होंने कहा कि रक्षा सेवाओं में सर्विसमैन के माता-पिता को तब तक निकटतम संबंधी माना जाता है जब तक उसकी शादी नहीं होती है। शादी के बाद जीवनसाथी का नाम माता-पिता के नाम की जगह ले लेता है। इन सब घटनाओं के बीच ख़बरों, टीवी और सोशल मीडिया पर जिस तरह से प्रतिक्रियाएं आई उससे यह सवाल उठता है कि भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति कैसे देखता है। ख़ासकर जब एक विधवा बहू परिवार में हो और वह अपनी एजेंसी का इस्तेमाल कर रही हो।
कैप्टन अंशुमान सिंह के माता-पिता द्वारा स्मृति सिंह के ख़िलाफ़ संपत्ति को लेकर सार्वजनिक तौर पर आरोप लगाए गए। द हिंदू में प्रकाशित लेख के मुताबिक़ सेना के सूत्रों ने स्पष्ट किया है कि एक करोड़ रूपये का आर्मी ग्रुप इंश्योरेंस फंड उनकी पत्नी और माता-पिता के बीच बांटा गया था जबकि पेंशन जीवनसाथी को मिलेगी। इसके अलावा उत्तर प्रदेश सरकार की 50 लाख की साहयता की घोषणा का 35 लाख उनकी पत्नी और 15 लाख उनके माता-पिता को दिए गए। नियमों के अनुसार सेना में अधिकारी के विवाहित होने के बाद उसकी पत्नी पेंशन के लिए नामित होती है। नियमों के अनुसार अगर उन्हे लाभ मिल रहा है तो यह उनकी वसीयत के अनुसार ही है।
नियमों से अलग भारत में युद्ध विधवाओं की स्थिति कैसी है इस घटना पर आई प्रतिक्रियाएं स्पष्ट करती है। युद्ध विधवाओं की पसंद और जीवन में आगे बढ़ने को लेकर पूरा समाज में असहजता देखने को मिलती है। अक्सर हमारे समाज में किसी बहू के विधवा हो जाने पर उसके देवर से शादी कराने का चलन देखने को मिलता है। ख़ासतौर पर युद्ध में विधवा हुई स्त्री के साथ ऐसा अक्सर होता है। स्मृति सिहं के सामने भी उनकी ससुराल पक्ष की ओर से यह प्रस्ताव रखा गया। आर्थिक सहयोग इस चलन का बड़ा कारण है। इस तरह के कई उदाहरण अतीत में भी हमारे सामने सुर्खियों तक में आ चुके हैं। फरवरी 2019 को कश्मीर में पुलवामा मुठभेड़ में अपने पति एच. गुरू की मौत के दो सप्ताह बाद उनकी पत्नी कलावती ने पुलिस को सूचित किया कि मुआवजे की घोषण के बाद उनका ससुराल पक्ष उनके छोटे बेटे से शादी करने का दबाव बना रहा है ताकि मुआवजे में मिली आर्थिक रकम परिवार के पास ही रहे।
भारत में पुलवामा हमले के बाद शहीदों को 25 से 30 लाख रूपये के करीब तक का मुआवज़ा एक बड़ा बदलाव था। इस तरह के आर्थिक मूल्य के बदलाव से युद्ध विधवाओं के सामाजिक स्थिति और एजेंसी में कितना बदलाव आया है यह एक एक बहस का मुद्दा होना चाहिए। क्योंकि वीरता के बैनर तले विधवा महिलाओं के सामने सबसे बड़ी चुनौती खुद के अस्तित्व और पहचान को बनाना है। पूरा सिस्टम उसे वीर नारी के रूप में देखना चाहता है जहां वह बाकी का जीवन या तो एक विधवा के तौर पर जिए या फिर उसी परिवार के दूसरे बेटे की बहू बनकर वहां रहे। कुल मिलाकर महिला के जीवन का फैसला इन्हीं दोनों विकल्पों के इर्द-गिर्द हो तो सही रहेगा।
कारगिल युद्ध विधवाओं की सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति पर किए गए लीना परमार के “कारगिल वार विडो क्वेश्चन ऑफ कम्पसेशन एंड रीमैरिज” अध्ययन में विवाह के विषय पर बड़े पैमाने पर ध्यान केंद्रित करती है। उन्होंने विधवा महिलाओं के इंटरव्यू लेकर अपने अध्ययन में निष्कर्ष निकाला है कि उत्तर भारत के ग्रामीण सामाजिक परिदृश्य में सख्त सामाजिक मानदंड, संयुक्त परिवार प्रणाली, पितृसत्तात्मक संरचना, निम्न शिक्षा स्तर और लिवराइट की प्रथा के चलते ‘1999 के कारगिल युद्ध विधवाओं’ को मुआवजे के रूप में भारी राशि मिलने के बाद एक बड़ा बदलाव आया। इसने न केवल ग्रामीण परिवारों की गतिशीलता को बदल दिया, बल्कि कारगिल युद्ध की विधवाओं ने एक विशिष्ट सामाजिक श्रेणी का गठन किया। मुआवजे ने उन्हें परिवार और समाज में एक उच्चतर स्थिति प्रदान की, उन्हें अधिक आर्थिक सुरक्षा से सुसज्जित किया, भले ही ग्रामीण राजस्थान की प्रचलित पितृसत्तात्मक संरचना पहले की तरह ही बनी रही।
उनके साक्षात्कार में शामिल युद्ध विधवाओं ने 90 फीसदी महिलाओं का दोबारा शादी उनके देवर से हुई। ऐसा होने का एक ही कारण था ताकि पैसा परिवार में ही रहे। इस तरह सेना और परिवार के बीच ये विधावाएं अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करती नज़र आती है। समाज और परिवार की सहजता आज भी इसी में है कि विधवा की शादी देवर से हो। एक तरफ सेना रक्षा के लिए अपने मानदंडों के तरह नीतियां, भविष्य के लिए आर्थिक सहयोग के प्रावधान करती है दूसरी तरफ परिवार एक महिला के स्वतंत्र इंसान होने के उसके रूप को पूरी तरह नकार देता है और केवल एक शहीद जवान की विधवा की उसकी छवि को आगे रखते हुए संपत्ति के संचयन के लिए सारे प्रयास करता नज़र आता है।
साल 2019 के बाद से इस कानून में बदलाव आया है लेकिन सामाजिक स्तर पर क्या कुछ बदलाव हुआ है यह एक बड़ा सवाल है। विधवा के अधिकारों की सुरक्षा की दिशा में बेहतर हुआ है, चाहे वह बाद में किसी से भी पुनर्विवाह क्यों न करे। उदाहरण के लिए, एक विधवा जो विशेष परिवार पेंशन प्राप्त कर रही है, जो सैन्य सेवा से उत्पन्न मृत्यु के लिए दी जाती है, उसको पूरा अधिकार मिलता हैं यदि उसके कोई बच्चा नहीं हैं, और यदि बच्चे हैं और पुनर्विवाह के बाद भी वह उनका समर्थन करती है। अगर विधवा पुनर्विवाह के बाद बच्चों का समर्थन नहीं करती है, तो बच्चों को भी पेंशन का हिस्सा मिलने का अधिकार होता है।
नियमों में बदलाव एक प्रगतिशील कदम है लेकिन भारतीय पितृसत्तात्मक व्यवस्था में महिलाओं को उनके अधिकारों का इस्तेमाल करने पर उनकी नकारात्मक छवि बना दी जाती है, उन्हें ट्रोल किया जाता है, सरे आम उन पर आरोप-प्रत्यारोप लगाया जाता है। स्मृति सिंह के मामले मे यह सब नज़र आता है कि इस स्थिति में महिलाओं को परिवार के अधीन रहने के लिए कहा जाता है। पैसे में समान हिस्सेदारी या मांग करने पर उनके सामने सांस्कृति की दुहाई देकर उन्हें सार्वजनिक तौर पर अपमानित किया जाता है। क्या कोई ऐसा नियम है जिसमें एक महिला अपने शारीरिक, सामाजिक और आर्थिक संसाधनों तक परिवार की पहुंच को नकार सकती है या उससे बच सकती है ताकि वह लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले मुल्क में एक नागरिक की तरह अपना जीवन व्यतीत कर सकें।
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