समाजकानून और नीति ‘मृत्युदंड’ से महिलाओं के खिलाफ़ बढ़ते यौन हिंसा की समस्या का समाधान नहीं हो सकता

‘मृत्युदंड’ से महिलाओं के खिलाफ़ बढ़ते यौन हिंसा की समस्या का समाधान नहीं हो सकता

नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, दिल्ली की रिपोर्ट बताती है कि 2023 तक मौत की सजा पाने वाले कैदियों की संख्या 561 हो गई, जो पिछले दो दशकों में सबसे अधिक है। हालांकि ट्रायल कोर्ट ने 2023 में 120 मौत की सजाएं दीं, लेकिन अपील कोर्ट में पुष्टि की दर इतनी कम हो गई कि 2000 के बाद से मृत्युदंड नहीं देखा गया।

पिछले महीने आरजी कर कॉलेज और अस्पताल में एक महिला जूनियर डॉक्टर के बलात्कार और हत्या के बाद देशभर में आक्रोश है। यह पहली बार नहीं है कि जनता यौन हिंसा के आरोपियों के लिए मृत्युदंड की मांग कर रही है। 2012 के दिल्ली सामूहिक बलात्कार और हत्या के बाद भी ऐसे ही विरोध हुए थे, जिसके बाद संसद ने यौन अपराधों के कानूनों में संशोधन किया। इसमें मृत्युदंड का प्रावधान भी जोड़ा गया था। भारत में ‘रेरेस्ट ऑफ रेर’ मामलों में मृत्युदंड दिया जाता है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के अनुसार, 2018 में 186 दोषियों को मृत्युदंड मिला, जो 2017 में 121 से 53 फीसद बढ़ोतरी था।

नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, दिल्ली की रिपोर्ट बताती है कि 2023 तक मौत की सजा पाने वाले कैदियों की संख्या 561 हो गई, जो पिछले दो दशकों में सबसे अधिक है। हालांकि ट्रायल कोर्ट ने 2023 में 120 मौत की सजाएं दीं, लेकिन अपील कोर्ट में पुष्टि की दर इतनी कम हो गई कि 2000 के बाद से मृत्युदंड नहीं देखा गया। सुप्रीम कोर्ट ने भी लगातार दूसरे साल किसी मौत की सजा की पुष्टि नहीं की। स्क्रॉल में छपी खबर बताती है कि नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, नई दिल्ली की वार्षिक रिपोर्ट डेथ पेनल्टी इंडिया 2019 में कहा गया है कि 2018 में मृत्युदंड पाने वालों में से 40 फीसद से अधिक और 2019 में 52 फीसद से ज्यादा को यौन हिंसा और हत्या जैसे मामलों में दोषी ठहराया गया था।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार, 2018 में 186 दोषियों को मृत्युदंड मिला, जो 2017 में 121 से 53 फीसद बढ़ोतरी था। नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, दिल्ली की रिपोर्ट बताती है कि 2023 तक मौत की सजा पाने वाले कैदियों की संख्या 561 हो गई, जो पिछले दो दशकों में सबसे अधिक है।

रेप कल्चर, पितृसता और यौन हिंसा पर बातचीत की जरूरत

तस्वीर साभार: फेमिनिज़म इन इंडिया

मृत्युदंड सबसे कठोर सजा मानी जाती है। अपराधों की गंभीरता के आधार पर समय और स्थान के अनुसार इसकी मांग बदलती रही है, लेकिन इसका मतलब हमेशा ‘मौत’ से रहा है। इसके समर्थक इसे ‘डेटेरेंस थ्योरी’ से जोड़ते हैं, जिसका उद्देश्य अपराध को रोकना है। यानी, मृत्युदंड देकर भविष्य में अपराध रोकने की कोशिश की जाती है। लेकिन असली समस्या उस मानसिकता की है, जिसके कारण महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा होती है। इस संदर्भ में नोबेल शांति पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी कहते हैं कि हमारे बच्चों का बलात्कार भारत के विचार की विफलता है। वह कहते हैं कि यह राष्ट्र की नैतिक अंतरात्मा का क्षरण है और यह हमारे सिद्धांतों पर सवाल उठाता है।

महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा एक गंभीर मुद्दा है। यह घर, कार्यस्थल, जेल और सड़कों पर भी हो रही है। देश में 96 फीसद से अधिक बलात्कार सर्वाइवर के परिचित व्यक्तियों द्वारा किए जाते हैं। महिलाओं के खिलाफ़ अपराधों की कम रिपोर्ट होती है और कम मुकदमा चलाया जाता है। अक्सर घटनाओं पर विशेष शोध नहीं किया जाता। इसलिए, इन हिंसा को कम या खत्म करने के लिए नीति बनाना असंभव है जबतक कि इसके मूल कारण पर गौर न किया जाए। मथुरा बलात्कार मामले से लेकर दिल्ली, हैदराबाद और कोलकाता समेत बलात्कार के कई मामलों में जन आंदोलन देखा गया है। साल दर साल समाज में क्या बदलाव आया, इन विरोध प्रदर्शनों के आक्रोश में क्या जनता मूल मुद्दों को पूरी तरह से नजरअंदाज करती है, इन सवालों पर गौर करने की जरूरत है।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए श्रेया टिंगल

इस विषय पर मणिबेन नानावटी महिला कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर और मनोविज्ञान विभाग की एचओडी डॉ. सिसिलिया चेट्टियार कहती हैं, “पिछले कुछ सालों में लैंगिक हिंसा के बारे में सामाजिक जागरूकता बढ़ी है। हालांकि ये प्रदर्शन व्यक्तिगत मामलों पर ध्यान आकर्षित करने में महत्वपूर्ण हैं। लेकिन वे अक्सर मुख्य मुद्दों को व्यापक रूप से संबोधित करने में विफल रहते हैं। विरोध प्रदर्शन लैंगिक असमानता और पितृसत्तात्मक मानदंडों में डूबी सामाजिक अस्वस्थता के लक्षणों को उजागर करता है। स्थायी परिवर्तन के लिए, इन आंदोलनों को अलग-अलग घटनाओं से आगे बढ़कर महिलाओं के खिलाफ हिंसा के मूल कारणों को संबोधित करने वाले प्रणालीगत सुधारों पर जोर देने की जरूरत है।”

रेप कल्चर को संबोधित करना लंबे समय के बदलाव के लिए जरूरी है। मृत्युदंड लक्षण को संबोधित करता है लेकिन मूल कारण को नहीं। रेप कल्चर के बारे में हमें स्कूलों, सामुदायिक समूहों और स्थानीय संगठनों को शामिल करते हुए जमीनी स्तर पर बातचीत की शुरुआत करनी होगी।

जनता के आक्रोश को शांत करने का सरकार का शॉर्टकट

ऐसे विरोध प्रदशन के तहत मौत की सजा जनता के आक्रोश को शांत करने का सरकार का एक शॉर्टकट है, जो रेप कल्चर और पितृसत्ता पर बात नहीं करना चाहती। इस विषय पर डॉ. सिसिलिया कहती हैं, “रेप कल्चर को संबोधित करना जरूरी है। मृत्युदंड लक्षण को संबोधित करता है लेकिन मूल कारण को नहीं। रेप कल्चर पर हमें स्कूलों, सामुदायिक समूहों और स्थानीय संगठनों को शामिल करते हुए जमीनी स्तर पर बातचीत की शुरुआत करनी होगी। सहमति, सम्मान और लैंगिक समानता सिखाने वाले शैक्षिक कार्यक्रमों को स्कूली पाठ्यक्रमों में शामिल किया जाना चाहिए। जेंडर और हिंसा के बारे में चर्चा के लिए सुरक्षित स्थान बनाने से लोगों को रेप कल्चर के खिलाफ़ बोलने और सामूहिक कार्रवाई करने के लिए सशक्त बनाया जा सकता है।”

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए श्रेया टिंगल

सार्वजनिक आक्रोश और अनुचित सामाजिक मानदंडों के आधार पर दी गई मौत की सजा, न्यायिक व्यवस्था के सुधारात्मक पहलू को नजरअंदाज कर देती है। लोग बिना सामाजिक बदलाव में भाग लिए, गंभीर अपराधों के लिए कठोर सजा को सही ठहराते हैं। फेमिनिज़म इन इंडिया के पूछे जाने पर कि क्या मृत्युदंड यौन हिंसा और बलात्कार का जवाब है, शिक्षाविद, लेखिका, और राजनीतिक कार्यकर्ता डॉ. विभूति पटेल कहती हैं, “इतिहास गवाह है कि कैपिटल पनिश्मन्ट से हिंसा में कमी नहीं आती है। देश का काम है लोगों की रक्षा करना। ऐसे में सत्ता के इस्तेमाल से संस्थागत रूप से किसी की जान लेना बहुत बड़ी बात है। इसके अलावा, सारे प्रिज़न स्टडी बताते हैं कि बेगुनाह लोग अक्सर मृत्युदंड के भागी होते हैं। जब सरकार पर ये दबाव होता है कि सीमित समय में अपराधी को पकड़ना है, तो अक्सर संरचनात्मक असमानता के दायरे में गलत इंसान को निशाना बनाया जाता है। जहां भी राजनीतिक विरोध होती है, वहां औरतों के शरीर को टारगेट किया जाता है। जनता की ओर से मृत्युदंड की मांग दिखाता है कि लोग न सिर्फ अपनी जिम्मेदारी से भागना चाहते हैं बल्कि पितृसत्तातमक मानसिकता को चुनौती नहीं देना चाहते और न ही लैंगिक समानता चाहते हैं।” समाज में महिलाओं का अपने अधिकारों के लिए जागरूकता और प्रगति के बावजूद, पितृसत्तातमक व्यवस्था में आज भी उनके साथ संस्थागत भेदभाव आम है।

इतिहास गवाह है कि कैपिटल पनिश्मन्ट से हिंसा में कमी नहीं आती है। देश का काम है लोगों की रक्षा करना। ऐसे में सत्ता के इस्तेमाल से संस्थागत रूप से किसी की जान लेना बहुत बड़ी बात है। इसके अलावा, सारे प्रिज़न स्टडी बताते हैं कि बेगुनाह लोग अक्सर मृत्युदंड के भागी होते हैं।

न्यायायिक प्रक्रिया में कमियां  

लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स और राजनीति विज्ञान ने यह जानने और समझने की कोशिश कि न्याय मिलने में वे कौन सी बाधाएं हैं, जिसका महिलाएं सामना करती हैं। इसके लिए हरियाणा पुलिस की जनवरी 2015 से नवंबर 2018 तक के 4,18,190 मामलों पर शोध किया गया। इसके अनुसार महिलाओं ने 38,828 शिकायतें या कुल एफआईआर का सिर्फ 9 फीसद दर्ज किया। शोध बताती है घटना और पंजीकरण के बीच महिलाओं के मामलों में, पुरुषों की तुलना में औसतन एक महीने से अधिक का अंतराल होता है। ऐसे मामले जो आखिर तक अदालत में पहुंचते हैं, उनमें महिलाओं का महज 5 प्रतिशत है जबकि पुरुष शिकायतकर्ता के मामलों के लिए यह 17.9 फीसद है। लाइव लॉ की एक रिपोर्ट अनुसार देश में 75 फीसद से ऊपर कैदी विचाराधीन हैं, जेलों में वास्तविक बंदी संख्या 131 फीसद है और 1.9 फीसद अपराध करने की घटनाएं बार-बार होती हैं। असल में, आपराधिक कानून में नए, कठोर संशोधनों को लागू करने पर जोर देने की जगह ठोस, बदलाव के लिए उपायों और जमीनी स्तर पर सरकारी प्रयासों की जरूरत है।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए श्रेया टिंगल

न्यायायिक प्रक्रिया और विशेषाधिकार के विषय में कोलकाता की साइकोथेरपिस्ट कोमल भट्टाचार्जी कहती हैं, “हम हाशिये पर रहे लोगों को विशेषकर महिलाओं को एजेंसी के साथ या ऐसे नहीं देखते हैं जो न्याय के हकदार हैं। रेप कल्चर के मद्देनज़र हम समाज के तौर पर समस्या से दूर भागना चाहते हैं जोकि ‘हम खुद’ हैं। मॉब जस्टिस कभी भी समस्या का हल नहीं हो सकता।आरजी कर अस्पताल के मामले में निश्चित तौर पर हम जस्टिस चाहते हैं पर इससे मानविक तौर पर जुड़ने का कारण क्या महज ये है कि महिला किस समुदाय, वर्ग, जाति या कामकाजी क्षेत्र से आती हैं। यौन हिंसा के मामले में हमें न सिर्फ पुरुषों और महिलाओं बल्कि जेंडर बाइनरी के बाहर सोचने, पॉलिसी बनाने और नीतिनिर्माण करने वालों में हर समुदाय, वर्ग और जेंडर के प्रतिनिधित्व जरूरत है।”

मॉब जस्टिस कभी भी समस्या का हल नहीं हो सकता।आरजी कर अस्पताल के मामले में निश्चित तौर पर हम जस्टिस चाहते हैं पर इससे मानविक तौर पर जुड़ने का कारण क्या महज ये है कि महिला किस समुदाय, वर्ग, जाति या कामकाजी क्षेत्र से आती हैं। यौन हिंसा के मामले में हमें न सिर्फ पुरुषों और महिलाओं बल्कि जेंडर बाइनरी के बाहर सोचने, पॉलिसी बनाने और नीतिनिर्माण करने वालों में हर समुदाय, वर्ग और जेंडर के प्रतिनिधित्व जरूरत है।

द हिंदू की रिपोर्ट अनुसार मार्च 2019 तक भारत में 581 फास्ट-ट्रैक कोर्ट थे, जिनमें लगभग 590,000 मामले लंबित थे। कोलकाता की घटना के बाद, राज्य ने अपराजिता विधेयक पारित किया, जिसके अनुसार बलात्कार का अपराध करने वाले और चोट पहुंचाने वाले व्यक्तियों के लिए मृत्युदंड का प्रावधान शामिल है, जहां महिला की मृत्यु हो जाती है या वह निष्क्रिय अवस्था में चली जाती है। साथ ही, विधेयक में 21 दिनों के भीतर जांच पूरी करने का प्रस्ताव है। ये सच है कि ऐसे अपराध को रोकने के लिए सख्त कानून की जरूरत है। लेकिन, देश में कई महिला-केंद्रित आपराधिक कानून प्रणालीगत और संरचनात्मक मुद्दों को संबोधित करने के बजाय सजा पर अधिक ध्यान देते हैं। बलात्कार ही नहीं बल्कि सभी अपराधों के लिए जल्द से जल्द न्याय की जरूरत से इनकार नहीं किया जा सकता है। लेकिन ‘जल्द न्याय’ के साथ यह जरूरी है कि दोषी साबित होने तक ‘निर्दोषता’ की धारणा और निष्पक्ष सुनवाई जैसे पहलुओं को बरकरार रखा जाए। साथ ही, हमारे घरों में बलात्कार को एकलौती घटना के रूप में देखने के बजाय, काम्प्रीहेन्सिव सेक्स एजुकेशन, जेंडर और कॉन्सेंट जैसे मुद्दों पर बातचीत की पहल करनी होगी।

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