भारत को विश्व में अलग-अलग प्रकार की चीज़ों के लिए लोग जानते हैं। जैसे-खाना, संस्कृति और क्रिकेट। पर इसके अलावा भारत को यात्राओं के लिए भी जाना जाता है। भारत में ऐसे अनेक पर्यटन स्थल हैं जहां हर साल करोड़ों लोग घूमने आते हैं। इन ट्रैवलर्स में से कुछ विदेशी तो कुछ देशी होते हैं। भारत में जब भी घूमने की बात आती है, तो इसको एक व्यवसाय की तरह कुछ ही लोग देखते हैं। जो लोग इसको व्यवसाय की तरह अपनाते हैं और अक्सर अकेले नई जगहें घूमा करते हैं, उन्हें ‘सोलो ट्रैवलर्स’ कहा जाता है। हालांकि इस व्यवसाय को गिने-चुने लोग चुनते हैं और अगर कोई महिला बोले कि उसको ‘सोलो ट्रैवल’ बनना है तो ये तो समाज की तथाकथित रीतिरिवाज़ों के विरुद्ध बात है।
भारत में जहां लड़कियों के लिए अकेले घर से बाहर जाना भी आसान नहीं है, वहां कोई महिला सोलो ट्रैवल करने की बात भी करे वो अपनेआप में समाज के रीतिरिवाज़ों को बदलने का प्रयास है। अक्सर ऐसा माना जाता है कि लड़कियों को कहीं घूमने जाना है तो उसके साथ कोई मर्द होना ज़रूरी है जो उसकी रक्षा कर सके या यूं कहूँ कि घर की इज़्ज़त की रक्षा की जा सके। हमारा समाज यह मानता है कि महिलाएं कमज़ोर हैं और उनकी रक्षा के लिए कोई मर्द होना ज़रूरी है। आज भी लाखों घरों में बिना किसी पुरुष के साथ के महिला घर के बाहर कदम भी नहीं रख सकती है। इस विचारधारा की विरुद्ध अगर कोई महिला सोलो ट्रैवलिंग की बात करे तो ये तो समाज की नज़र में अपराध है।
अमेरिकन एक्सप्रेस 2024 की ग्लोबल ट्रैवल ट्रेंड्स की रिपोर्ट के अनुसार इस साल 84 फीसद भारतीयों ने सोलो ट्रैवलिंग का प्लान किया जिसमें से ज़्यादातर पुरुष थे। ओयो ट्रैवलोपीडिया 2022 की रिपोर्ट के अनुसार केवल 25 फीसद महिलाओं ने सोलो ट्रेवलिंग करने की इच्छा जताई थी। पर भारत में ट्रिप प्लान करना और उस ट्रिप पर जाना दोनों अलग बात हैं। फोर्ब्स की रिपोर्ट के अनुसार अकेले यात्रा करने से लोगों में आत्मविश्वास बढ़ता है, खुद की खोज कर पाते हैं, स्वतंत्रता का एहसास होता है और नए लोगों से जुड़ते हैं। ऐसे में तो पुरुष हो या महिला, सबका सोलो ट्रैवलिंग करना बहुत ज़रूरी है।
सोलो ट्रैवल करने की आज़ादी
कहने को तो समाज में महिला आज़ाद हैं पर क्या सच में वो आज़ाद हैं? उन्होंने कभी आज़ादी का अनुभव के किया है? समाज में ज़्यादातर पुरुष का यही मानना है कि महिलाएं आज़ाद है पर उन्हें पितृसत्ता के बनाए समाज में नियमों के अनुसार रहना पड़ेगा। ऐसे में सच्ची आज़ादी महिलाओं ने कभी अनुभव ही नहीं की। इन चीज़ों के बारे में और समझने और जानने के लिए हमने श्वेता गुप्ता से बात की, जो लखनऊ के पास लखीमपुर की रहने वाली 29 वर्षीय एक सोलो ट्रैवलर हैं और पिछले 4 साल से सोलो ट्रैवल कर रही हैं। श्वेता वैसे तो 16 साल की उम्र से कभी पढ़ाई तो कभी जॉब के कारण घर से बाहर रही हैं। पर जब उन्होंने लगभग 24-25 की उम्र में पहली सोलो ट्रिप का निर्णय लिया तो इस बारे में घर वालों से नहीं कहा। उनका मानना था कि उनके घर वाले उन्हें सोलो ट्रैवलिंग न करने की सलाह देंगे। वह वैसे तो एक ऐसे परिवार से आती हैं जहां उन्हें ज़्यादा रोकटोक नहीं थी। उन्हें पढ़ाई और जॉब के लिए अक्सर अकेले शहर से बाहर जाने दिया गया।
पर जब सोलो ट्रैवलिंग की बात आती है तब उनके परिवार में भी लड़की होने को लेकर डर रहता है। भारत में हम किसी भी वर्ग या समुदाय से क्यों न आते हो पर लड़कियों की सोलो ट्रेवलिंग की जब भी बात आती है, वो उनके परिवार के लिए चिंता का विषय बन जाता है। श्वेता बताती हैं कि जब उन्होंने अपनी पहली सोलो ट्रिप की तब उन्हें बहुत आनंद आया और उन्हें ऐसा लगा कि आत्मविश्वास कई गुना बढ़ गया हो। फोर्ब्स की रिपोर्ट के अनुसार हर किसी को सोलो ट्रैवलिंग एक न एक बार ज़रूर करनी चाहिए। जब हमने ऐसी महिलाओं से बात की जो सोलो ट्रैवलिंग नहीं गई है तब पाया कि उनमें सोलो ट्रैवलर्स की तुलना में कम आत्मविश्वास है और वो अपने लिए स्टैंड लेने में भी झिझकती हैं।
श्वेता बताती हैं कि वो जिस परिवेश से आती हैं वहां लड़कियों पर ज़्यादा पाबंदियां तो नहीं है। तो उन्हें ऐसा लगता है कि उन्होंने अपने आस-पास के लोगों में ज़्यादा बदलाव नहीं किए। पर जब भी उन्हें सोशल मीडिया पर दूसरी लड़कियों के मैसेज या फिर कॉल आते हैं कि उन्हें भी सोलो ट्रैवलिंग करनी है या सोलो ट्रैवलर बनना है तब उन्हें एहसास होता है कि उन्होंने समाज में दूसरी लड़कियों को प्रेरित किया है।
महिलाओं के सोलो ट्रैवलिंग से समाज की बेहतरी
वह मानती हैं कि महिलाओं के सोलो ट्रैवलिंग करने से समाज बेहतर होता है। सोलो ट्रैवलिंग से महिला सच्ची आज़ादी का अनुभव करती हैं। उनमें आत्मविश्वास के साथ-साथ निर्णय लेने की क्षमता बढ़ती है, ज़िन्दगी जीने का नया दृष्टिकोण बनता है, और वो सशक्त होती हैं। सोलो ट्रैवलिंग के माध्यम से महिलाएं अलग-अलग समाज के कल्चर और भाषाओं को समझती हैं। लेकिन महिला होने के नाते उन्हें अक्सर यात्रा के दौरान कई परेशानियों का सामना भी करना पड़ता है। सोलो ट्रैवलिंग करते हुए श्वेता टॉयलेट न मिल पाना सबसे बड़ी समस्याओं में से एक बताती हैं।
भारत में टॉयलेट की समस्या काफ़ी ज़्यादा है। सफ़र करते वक़्त हर बार सुचारु और साफ टॉयलेट मिल पाना संभव नहीं है। वैसे तो कहा जाता है देश में न के बराबर खुले में शौच हो रहा है पर श्वेता बताती हैं कि अभी भी काफी गांव में शौच को ले कर जागरूकता की कमी है। उन्हें जागरूक करना ज़रूरी है। वह सोलो ट्रैवलिंग करते वक़्त टूरिस्ट प्लेस पर तो रात 9 से 10 तक बाहर रहने के बारे में सोच लेती हैं पर जब किसी ग्रामीण क्षेत्र की बात आती है तो वो शाम होते ही होटल के लिए रवाना हो जाती हैं।
महिलाओं को होने वाली यात्रा के दौरान चुनौतियां
देश के काफ़ी इलाकों को वो महिलाओं के लिए रात में बाहर रहने को सुरक्षित नहीं मानती हैं। महिलाओं को सुरक्षित महसूस करने के लिए समाज को बदलने की ज़रूरत है। उनमें सिविक सेंस और महिलाओं को ऑब्जेक्ट की तरह न समझने की मानसिकता को विकसित करना ज़रूरी है। यात्रा के दौरान होने वाली परेशानियों के बारे में बात करती हुई श्वेता बताती हैं कि एक बार अकेले होने की वजह से होटल में ठहरने नहीं दिया गया। बहुत मिन्नतों के बाद उनके घर वालों से फ़ोन पर बात करने के बाद ठहरने के लिए कमरा दिया गया। इस तरह की घटना कोई पहली बार नहीं थी। वह कहती हैं कि सोलो ट्रैवलर्स को कई बार होटल में अकेले कमरा मिलना मुश्किल होता है। वह बताती हैं कि काफ़ी जगह अब भी ट्रांसपोर्ट एक बड़ी समस्या है। ऐसे इलाके में जहां ट्रांसपोर्ट नहीं है या ज़्यादा साधन नहीं है तब उन्हें एक जगह से दूसरी जगह जाने में काफ़ी समस्या होती है। और वो किसी से लिफ्ट भी नहीं लेना चाहती हैं।
अकेले एक जगह से दूसरी जगह जाने की समस्या
भारत में लिफ्ट लेने और देने का कल्चर न के बराबर है। महिलाओं को लिफ्ट लेना सुरक्षित नहीं लगता तो लड़कों को कोई इतनी आसानी से लिफ्ट नहीं देता है। आईआईएमसी के प्रोफ़ेसर आनंद प्रधान का मानना है कि भारत में सिविक सेंस की कमी है। जो एक बार लोगों में विकसित हो गया तो भारत की काफ़ी समस्याएं हल हो जाएंगी, जिसमें महिलाओं के प्रति समाज का दृष्टिकोण भी शामिल है। श्वेता से बातचीत महिलाओं को सोलो ट्रैवलिंग क्यों करनी चाहिए इसका महत्व समझाती हैं। वो सोलो ट्रेवलिंग में आने वाली कुछ समस्याओं को भी बताती हैं। पर उनसे बात करने के बाद यही समझ आया कि हर महिला को एक न एक बार ज़रूर सोलो ट्रैवल करनी चाहिए।
कल्पना कीजिए ऐसे समाज की जहां बिना किसी भेदभाव और डर के महिलाएं अकेले घूम सकती हैं तो वो समाज कितना विकास करेगा। जहां किसी के जेंडर नहीं काबिलियत से उन्हें परखा जाए। कितनी ही महिला होंगी जो श्वेता की तरह सोलो ट्रैवलिंग करने का ख़्वाब देखती होंगी पर समाज के कारण वो उस ख्वाब को पूरा नहीं कर पाती हैं। हालांकि आज श्वेता की तरह कितनी ही अन्य महिलाएं हैं, जो दूसरी महिलाओं को सोलो ट्रेवलिंग के लिए प्रेरित करती हैं और उन्हें सोलो ट्रेवलिंग के लिए गाइड भी करती हैं। लेकिन हमें एक अधिक सुरक्षित और समावेशी समाज गढ़ने की दिशा में सोचने की जरूरत है।