जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक संकट बन चुका है, और इसके प्रभाव से भारत भी अछूता नहीं है। इसमें लगातार बढ़ता तापमान, मौसम की अनियमितता, बाढ़, सूखा, और प्राकृतिक आपदाओं की बढ़ती संख्या शामिल है। मानसून के शुरू होने से पहले मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) ने साल 2024 के लिए पूर्वानुमान किया था कि इस साल चार महीने सामान्य से अधिक बारिश होगी। हालांकि इस मॉनसून वर्षा के पैटर्न में कई अनियमितताएं देखी गई हैं। कहीं पर ज़रूरत से ज्यादा बारिश हुई है, तो कहीं ज़रूरत से कम। उत्तर प्रदेश, बिहार, और झारखंड के ज्यादातर इलाकों में अपर्याप्त वर्षा हुई है। पिछले एक दशक में दक्षिण-पश्चिम मानसून की वर्षा ने बिहार और उत्तर प्रदेश के ज्यादातर इलाकों में लगातार गिरावट दर्ज की है। अगर बात बिहार की करें, तो यह कृषि क्षेत्र के लिहाज से एक अहम राज्य है। इस वर्ष बिहार में अब तक 735.8 मिमी वर्षा हुई है, जो औसत से काफी कम है।
बिहार में आम तौर पर 1200 से 1300 मिमी वर्षा होती है। पिछले एक महीने को देखें, तो हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और दिल्ली में अच्छी बारिश हुई है, जबकि उत्तर प्रदेश, बिहार, और झारखंड में 36 प्रतिशत से 52 प्रतिशत तक कम बारिश दर्ज की गई है। जलवायु वैज्ञानिकों ने ग्लोबल वार्मिंग के चलते चरम मौसम की घटनाओं में वृद्धि की बात की है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) मंडी, आईआईटी गुवाहाटी, और भारतीय विज्ञान संस्थान, बेंगलुरु के सहयोग से किए गए एक अध्ययन में ‘एक सामान्य ढांचे का उपयोग करते हुए भारत में अनुकूलन योजना के लिए जलवायु भेद्यता आकलन’ शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की गई है। इस अध्ययन में वर्तमान जलवायु जोखिमों के संबंध में भारत के सबसे अधिक संवेदनशील राज्यों और जिलों की पहचान की गई है। इसमें बिहार, झारखंड और असम के 60 फीसद से अधिक जिले अत्यधिक संवेदनशील हैं। अध्ययन में यह भी बताया गया है कि जलवायु परिवर्तन के प्रति भारत में सबसे अधिक संवेदनशील 50 जिलों में से 14 बिहार में हैं।
बिहार की स्थिति और जलवायु परिवर्तन से बचने का अधिकार
वैसे तो बिहार की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि उत्तर बिहार हमेशा से बाढ़ ग्रस्त रहा है, जबकि दक्षिण बिहार सूखा ग्रस्त रहता है। लेकिन हाल के सालों में जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा काफी अनियमित हो गई है, जिससे उत्तर बिहार भी सूखे की चपेट में आ गया है। गर्मी हो या बारिश, मौसम हर व्यक्ति के लिए समान होता है। लेकिन जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक नुकसान महिलाओं विशेषकर हाशिये कि महिलाओं को झेलना पड़ता है। तेज़ गर्मी, बाढ़, सूखा, तूफ़ान या धूल भरी आंधी की स्थिति में इन महिलाओं को अधिक परेशानी होती है। ‘द हिंदू’ में प्रकाशित ‘द क्लाइमेट क्राइसिस इज़ नॉट जेंडर न्यूट्रल’ लेख में बताया गया है कि जलवायु संकट का प्रभाव सभी पर एक समान रूप से नहीं पड़ता है।
महिलाएं और बालिकाएं, विशेष रूप से गरीबी में रहने वाली, अपनी मौजूदा भूमिकाओं, जिम्मेदारियों और सांस्कृतिक मानदंडों के कारण असमान रूप से अधिक स्वास्थ्य जोखिमों का सामना करती हैं। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) के अनुसार, किसी आपदा में पुरुषों की तुलना में महिलाओं और बच्चों की मृत्यु की संभावना 14 गुना अधिक होती है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में एक निर्णय में कहा है कि लोगों को जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक प्रभावों से सुरक्षित रहने का अधिकार है। पहले से ही स्वच्छ पर्यावरण के अधिकार को जीवन के अधिकार के तहत एक मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी गई है।
मौसम के परिवर्तन का सबसे ज्यादा असर बुजुर्गों और बच्चों के स्वास्थ्य पर पड़ता है, जिससे कई तरह की बीमारियाँ जैसे सर्दी, खांसी, बुखार, टाइफाइड, मलेरिया, निमोनिया, और खाज-खुजली जैसी संक्रामक बीमारियाँ फैलती हैं। इनकी देखभाल की सारी ज़िम्मेदारी हमपर आ जाती है।
बिहार में जलवायु परिवर्तन से जूझती महिलाएं
प्रकृति ने पुरुष और महिला को समान बनाया है। लेकिन समाज में मौजूद पितृसत्तात्मक मानदंडों और पुरुषवादी सोच के कारण घरेलू काम जैसे भोजन, पानी, और ऊर्जा की व्यवस्था की जिम्मेदारी महिलाओं पर होती है, जबकि महिलाओं की शिक्षा, संसाधनों, और निर्णय लेने की शक्ति तक पहुंच सीमित होती है। साथ ही, गरीबी रेखा के नीचे रहने वाली महिलाएं अक्सर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति अधिक संवेदनशील होती हैं। इन्हीं मुद्दों पर बात करते हुए बिहार के पूर्णिया ज़िले के बाइसी ब्लॉक की अंसरी बताती हैं कि बारिश की कमी से खेती को बहुत नुकसान हुआ है। पहले बारिश होने पर सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध होता था, लेकिन अब बारिश न होने से उन्हें वाटर पंप की मदद से सिंचाई करनी पड़ती है, जिसके लिए डीज़ल खरीदना पड़ता है। इससे उनकी आर्थिक स्थिति पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
चूंकि अंसरी पशुपालन करके अपना जीवनयापन करती हैं, बाढ़ आने पर पशुओं के रहने और उनके चारे-पानी की व्यवस्था करने में उन्हें कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। वह कहती हैं, “बाढ़ की स्थिति में पशुओं का चारा डूब जाता है, जिससे चारा खरीदना पड़ता है और यह आर्थिक स्थिति को और कमजोर कर देता है। मौसम के परिवर्तन का सबसे ज्यादा असर बुजुर्गों और बच्चों के स्वास्थ्य पर पड़ता है, जिससे कई तरह की बीमारियाँ जैसे सर्दी, खांसी, बुखार, टाइफाइड, मलेरिया, निमोनिया, और खाज-खुजली जैसी संक्रामक बीमारियाँ फैलती हैं। इनकी देखभाल की सारी ज़िम्मेदारी हमपर आ जाती है।” जब उनसे पूछा गया कि क्या सरकार ऐसी आपदाओं की स्थिति में आर्थिक मदद करती है, तो वह कहती हैं, “दो-चार साल पहले सरकार छः हजार रुपये की सहायता करती थी, लेकिन अब वह भी बंद हो गई है।”
बाढ़ की वजह से न केवल इंसानों, बल्कि पशुओं पर भी असर होता है। पशुओं के चारे-पानी की कमी हो जाती है, और उनके रहने की जगह पानी में डूब जाने से उन्हें अपने साथ रखना पड़ता है। बच्चों के पालन-पोषण में भी समस्याएं आती हैं।
मनुष्य ही नहीं पशु भी जलवायु परिवर्तन से जूझते हैं
वहीं पूर्णिया की सतानी बताती हैं, “बाढ़ की वजह से न केवल इंसानों, बल्कि पशुओं पर भी असर होता है। पशुओं के चारे-पानी की कमी हो जाती है, और उनके रहने की जगह पानी में डूब जाने से उन्हें अपने साथ रखना पड़ता है। बच्चों के पालन-पोषण में भी समस्याएं आती हैं। बाढ़ के कारण अपर्याप्त भोजन से बच्चों की सेहत खराब होती है और जलजमाव से संक्रामक बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। गरीबी के कारण सही इलाज भी मिलना मुश्किल हो जाता है। सरकार की तरफ से किसी तरह की आर्थिक सहायता नहीं मिलती, जो निराशा को और बढ़ाती है। सरकार को बाढ़ रोकने के पुख्ता उपाय करने चाहिए और कच्चे मकानों का पक्कीकरण करना चाहिए।”
जलवायु परिवर्तन कमोबेश हर तबके की महिलाओं को प्रभावित करता है, और बदलते मौसम में हर वर्ग की अलग-अलग परेशानियां होती हैं। अररिया जिले की दसवीं कक्षा की छात्रा नेहा, एक निम्नवर्गीय परिवार से हैं। वह बताती हैं, “बदलते मौसम के साथ कई बार बहुत तीव्र और चक्रवाती तूफान आने से उनके कच्चे मकान टूट जाते हैं और शौच जाने या नहाने में बेहद कठिनाई होती है। आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी न होने के कारण कई बार घरों की मरम्मत का काम हम महिलाओं के जिम्मे आता है, जिससे मेरी पढ़ाई बाधित होती है।”
बाढ़ के कारण अपर्याप्त भोजन से बच्चों की सेहत खराब होती है और जलजमाव से संक्रामक बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। गरीबी के कारण सही इलाज भी मिलना मुश्किल हो जाता है। सरकार की तरफ से किसी तरह की आर्थिक सहायता नहीं मिलती, जो निराशा को और बढ़ाती है।
कामकाजी महिलाओं पर बदलते मौसम का प्रकोप
बदलता मौसम हर क्षेत्र और वर्ग की महिलाओं को अलग तरीके से प्रभावित कर्ता है। शहरी और कामकाजी महिलाएं भी इससे अछूती नहीं हैं। इस विषय पर पूर्णिया यूनिवर्सिटी की असिस्टेंट प्रोफेसर राधा शाह कहती हैं, “पूर्णिया जैसे बड़े शहर में कई समस्याएं हैं। जैसे धूल और धुएं की वजह से घर से कॉलेज तक का 9 किलोमीटर का सफर बहुत तकलीफदेह हो जाता है। घटते पेड़ों और बढ़ते तापमान के बीच बारिश की कमी ने इस सफर को और कठिन बना दिया है। वर्षा की कमी और धूल भरी हवा से मुझे सिरदर्द होता है, जिसके कारण मुझे दमे के दौरे अधिक बार आ रहे हैं। साथ ही, आँखों की ड्राईनेस और धूल की वजह से त्वचा संबंधी एलर्जी जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। प्रतिकूल पर्यावरणीय परिस्थितियों और बीमारी के कारण घर के काम और ऑफिस के बीच संतुलन बनाना स्वाभाविक रूप से और कठिन हो जाता है।” उनका मानना है कि इस माहौल में बड़े हो रहे बच्चे सांस संबंधी और गैस्ट्रिक जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं।
जलवायु परिवर्तन से महिलाएं और लड़कियां गरीबी में चली जाएंगी
संयुक्त राष्ट्र वुमन की एक रिपोर्ट बताती है कि जलवायु परिवर्तन के कारण साल 2050 तक 158 मिलियन से अधिक महिलाएं और लड़कियां गरीबी में चली जाएंगी और 232 मिलियन महिलाओं और लड़कियों को खाद्य असुरक्षा का सामना करना पड़ सकता है। जलवायु परिवर्तन के कारण महिलाओं और लड़कियों को लैंगिक हिंसा सामना करने की अधिक संभावना होती है। संकट के समय युवा लड़कियां विशेष रूप से शोषण और यूमन ट्राफिकिंग की शिकार हो जाती हैं। महिलाओं को बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए अधिक समय तक काम करने का जोखिम उठाना पड़ता है। ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएं अपने परिवारों के लिए भोजन, पानी और ईंधन की लकड़ी जुटाने के लिए कड़ी मेहनत करती हैं।
बदलते मौसम के साथ कई बार बहुत तीव्र और चक्रवाती तूफान आने से उनके कच्चे मकान टूट जाते हैं और शौच जाने या नहाने में बेहद कठिनाई होती है।
शुष्क मौसम बाल विवाह को भी बढ़ावा देता है, जिससे महिलाओं की शिक्षा, स्वास्थ्य और जीवन पर बुरा असर पड़ता है। जलवायु परिवर्तन से महिलाओं पर शारीरिक, मानसिक और आर्थिक रूप से नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। महिलाओं के स्वास्थ्य पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने के लिए उनके सामाजिक और आर्थिक संदर्भों को समझना और उन्हें प्राथमिकता देना जरूरी है। जलवायु आपदाओं से बढ़ते स्वास्थ्य जोखिमों को देखते हुए, नीति निर्माताओं, स्वास्थ्य पेशेवरों और समुदायों को तत्काल सशक्त उपायों की दिशा में काम करना चाहिए, ताकि महिलाओं की सेहत और सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके।