2014 में रिलीज़ हुई ‘कोर्ट’ एक अद्वितीय और संवेदनशील न्यायिक प्रक्रिया पर आधारित मराठी फिल्म है। इसे चैतन्य तम्हाने ने लिखा और निर्देशित किया है। फिल्म का केंद्रीय मुद्दा न्यायिक व्यवस्था और समाज के हाशिये पर रहने वाले लोगों के साथ उसका व्यवहार है। यह फिल्म एक अदालती केस की कहानी को केंद्र में रखकर, भारत की न्यायिक प्रक्रिया और सामाजिक ताने-बाने पर गंभीर सवाल खड़े करती है। फिल्म की कहानी एक निम्न तबके के लोकगायक नारायण कांबले के इर्द-गिर्द घूमती है, जिन्हें एक मैनुअल स्कैवेंजर की आत्महत्या से मौत के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है। फिल्म न्याय प्रणाली के ढांचे में फंसे एक साधारण व्यक्ति के संघर्ष को गहराई से दिखाती है और भारतीय अदालतों की बारीकियों को सामने लाती है।
कोर्ट एक ऐसी फिल्म है जो अपनी गहन सामाजिक-राजनीतिक विषयवस्तु के जरिए दर्शकों को न केवल सोचने पर मजबूर करती है, बल्कि भारतीय न्याय व्यवस्था की जटिलताओं और कमजोरियों को भी उजागर करती है। नवजीवन विद्रोही सांस्कृतिक जलसा के बैनर और बाबासाहेब अंबेडकर की तस्वीर के बैकग्राउंड में कांबले को मंच पर गाते हुए ही महाराष्ट्र पुलिस गिरफ्तार करती है। इसके बाद फिल्म हालांकि धीमी गति से लेकिन सभी सामाजिक और न्यायायिक पहलुओं पर नजर डालते हुए आगे बढ़ती है। फिल्म में पुलिस कांबले को दलित समुदाय से ताल्लुक रखने वाले मैनुअल स्कैवेंजर वासुदेव पवार को आत्महत्या से मौत के लिए उकसाने के लिए आईपीसी 306 के तहत गिरफ्तार करती है और उनपर मुकदमा चलाया जाता है। कहानी भारतीय न्यायपालिका की जटिलताओं, वर्ग, जाति और भाषाई विभाजन के संदर्भ में बुना गया है। फिल्म को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सराहना प्राप्त हुई, और इसने कई पुरस्कार भी जीते।
कहानी में दिखती सामाजिक और राजनीतिक यथार्थ
फिल्म ‘कोर्ट’ में 65 वर्षीय सामाजिक कार्यकर्ता और लोकगायक कांबले अपने लोकगीतों में सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर कटाक्ष करते हैं, जिनसे पुलिस और प्रशासन को यह शक होता है कि उनके गाने लोगों को उकसाने का काम करती हैं। अदालत में उनके खिलाफ़ मुकदमा चलता है, जहां कई तरह की कानूनी पेचीदगियों और लंबी सुनवाई के जरिए न्याय का रास्ता बेहद धीमा और तकलीफ़देह नजर आता है। चैतन्य तम्हाणे ने कोर्ट के माध्यम से न्यायिक प्रक्रिया की खामियों को बेहद यथार्थवादी तरीके से दर्शाया है। फिल्म में न्याय प्रणाली के प्रति लोगों की उदासीनता और उसके बेजान नौकरशाही ढांचे को उजागर किया गया है। यहां एक साधारण से मामले को भी इतने लंबे समय तक खींचा जाता है कि दर्शक खुद को भी न्यायालय की उसी प्रक्रिया में फंसा हुआ महसूस करता है। फिल्म में दिखाया गया है कि कैसे एक मामूली और शायद गैरजरूरी मामला भी सालों तक खिंचता रहता है और आखिरकार निर्दोष व्यक्ति को भी न्याय से दूर रखा जाता है।
भारतीय न्याय व्यवस्था पर चोट
असल में ‘कोर्ट’ एक साधारण अदालती ड्रामा से कहीं ज्यादा है। यह फिल्म भारतीय न्याय व्यवस्था के औपचारिकता और क्रूरता पर तीखा प्रहार करती है। एक तरफ, हम देख सकते हैं कि कैसे न्यायालय के नियम और कानून सामाजिक वास्तविकताओं से कटे हुए हैं। दूसरी तरफ, इस फिल्म में वकीलों, जजों और आरोपियों के निजी जीवन को भी दिखाया गया है, जो इसे और भी मानवीय बनाता है। फिल्म दिखाती है कि सरकारी वकील नूतन शादीशुदा है और अपने काम के बावजूद, घर के काम करती है और संभालती है। वहीं डिफेंस वकील विनायक के घर पर उनके माता-पिता को उसका इस तरह के मामलों पर काम करना पसंद नहीं।
उनकी माँ को सिर्फ उनके शादी की चिंता लगी रहती है। फिल्म में वकीलों और न्यायाधीशों का व्यवहार ठंडा और औपचारिक है। यह दिखाता है कि न्याय व्यवस्था में मानवीय संवेदनाओं और सहानुभूति की कमी होती है। कांबले जैसे साधारण नागरिकों को कानून की जटिलताओं और सरकारी नियमों के चक्कर में फंसा दिया जाता है। फिल्म यह सवाल उठाती है कि क्या न्यायालय में असल में न्याय हो रहा है या सिर्फ औपचारिकता पूरी की जा रही है? फिल्म ने किसी एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि समाज के हाशिए पर खड़े वर्गों की कहानी कहती है, जो बिना आवाज़ के इस व्यवस्था के भीतर पीड़ित रहते हैं।
अभिनय, सिनेमाटोग्राफी और निर्देशन का काम
फिल्म में कैमरा वर्क बेहद साधारण है, लेकिन यह साधारणता ही इसे असाधारण बनाती है। कैमरे का काम ज्यादा चकाचौंध भरा नहीं है। लेकिन यह कहानी को अधिक प्रभावशाली तरीके से दिखाने में मदद करती है। कैमरे की स्थिरता और पात्रों के बीच की दूरी फिल्म की ठंडी और औपचारिक भावना को और भी बढ़ाती है। फिल्म का सिनेमाटोग्राफी बेहद सजीव और वास्तविक है। फिल्म ‘कोर्ट’ के हर एक पात्र ने बेहद सजीव और अच्छा अभिनय किया है। वीरा साथीदार ने नारायण कांबले के किरदार में उत्कृष्ट प्रदर्शन किया है।
उन्होंने एक साधारण और सीधा-सादा लोकगायक का किरदार इतनी स्वाभाविकता से निभाया है कि दर्शक उनकी स्थिति के साथ तुरंत जुड़ जाते हैं। वकीलों की भूमिकाओं में विवेक गोम्बेर (डिफेंस वकील विनायक) और गीतांजलि कुलकर्णी (सरकारी वकील नूतन) ने भी शानदार अभिनय किया है। दोनों पात्रों के निजी जीवन के टुकड़े दर्शक को यह समझने में मदद करते हैं कि वे अदालत में जिस पेशेवर रूप में दिखाई देते हैं, वह उनके व्यक्तिगत जीवन से कितना अलग होता है। संवादों में प्राकृतिकता है और फिल्म में कोई भी गैरजरूरी नाटकीयता नहीं है। यह इसे और भी प्रभावी बनाती है। कोर्ट रूम की सुनवाई हो या रोजमर्रा की ज़िन्दगी के दृश्य, सभी बारीकियों के साथ प्रस्तुत किए गए हैं।
फिल्म में संगीत का उपयोग
फिल्म में संगीत का उपयोग बहुत कम किया गया है, जो इसके दर्शकों को ज़मीनी तौर पर जुडने में मदद करती है और कहानी को मजबूत करती है। कांबले के लोकगीत फिल्म में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये गीत समाज की विषमताओं, मजदूर वर्ग के संघर्ष और शोषण को दर्शाते हैं। यह गीत ही फिल्म के कथानक को आगे बढ़ाते हैं और दर्शक के मन में सवाल उठाते हैं। म्यूजिक का उपयोग भी बेहद सटीक ढंग से किया गया है। अदालत की खामोशी, कानूनी बहसों की गूंज और कांबले के गीतों की आवाज़, सब कुछ दर्शक के मन में एक स्थायी प्रभाव छोड़ते हैं।
फिल्म के सहारे सामाजिक संदेश
फिल्म दिखाती है कि कांबले जैसे लोग, जो समाज के लिए कुछ सार्थक करना चाहते हैं, उन्हें भी समाज की व्यवस्था के कारण उत्पीड़न सहना पड़ता है। फिल्म यह सवाल उठाती है कि क्या हमारी न्याय व्यवस्था केवल समाज के कुछ खास वर्गों के लिए ही काम करती है? फिल्म की एक महत्वपूर्ण दृश्य है, जब उस दलित व्यक्ति की पत्नी अपने पति की मृत्यु पर कोर्ट में बयान देती है। जब कोर्ट में पूछा जाता है कि क्या वो काम पर जाने से पहले कोई सुरक्षात्मक गियर पहनते थे, तो महिला बताती है कि वो कभी भी कुछ नहीं पहनते थे। जब कोर्ट पूछती है कि क्या वह व्यक्ति शराब पीते थे, तो उनकी पत्नी बताती है वो पीते थे। कहानी में मार्मिकता तब आती है जब कोर्ट के पूछे जाने पर वह बताती है, “गटर का बास सहने के लिए रोज काम पर जाने से पहले पीते थे।”
यह न केवल उस व्यक्ति की कार्यस्थल का वास्तविक संकेत देता है, बल्कि समाज की मानसिकता को भी दर्शाता है, जो दलित समुदाय को सबसे निम्न समझता और हाशिये पर रखता है। इस दृश्य में शराब की लत को एक व्यक्तिगत कमजोरी के रूप में नहीं, बल्कि सामाजिक अत्याचार और जातिगत उत्पीड़न का परिणाम बताया गया है। पति की इस आदत पर सवाल उठाने की बजाय, उसकी पत्नी इसका कारण समाज और उसके काम को मानती है। यह संवाद उसके पति की शराब की लत के पीछे छिपी सामाजिक और आर्थिक हकीकत की एक गहरी झलक भी देता है। इस दृश्य में पत्नी के बयान के बाद भी न्यायिक प्रक्रिया उसके मृत पति की वास्तविक समस्याओं को ध्यान में नहीं रखती। यह दिखाता है कि किस तरह समाज और न्यायिक व्यवस्था भी दलित समुदाय की समस्याओं को नजरन्दाज़ करती है।
कोर्ट एक गहरी, सोचने पर मजबूर करने वाली फिल्म है, जो भारतीय न्यायिक प्रणाली और समाज के हाशिये पर खड़े लोगों की स्थिति पर तीखी आलोचना करती है। यह फिल्म उन लोगों की आवाज़ को सामने लाती है, जिन्हें अक्सर अनसुना कर दिया जाता है। इसकी बिना किसी दिखावे के गंभीर विषयों पर ध्यान केंद्रित करने की क्षमता इसे भारतीय सिनेमा में एक महत्वपूर्ण स्थान देती है। कोर्ट समाज और न्याय प्रणाली पर गहरा प्रभाव छोड़ती है। जो दर्शक गंभीर सिनेमा, सामाजिक मुद्दों पर आधारित फिल्मों और न्यायिक व्यवस्था पर टिप्पणी करने वाली फिल्मों में रुचि रखते हैं, उनके लिए ‘कोर्ट’ एक ज़रूरी फिल्म है। यह फिल्म समाज के उन पहलुओं को उजागर करती है, जिनपर आमतौर पर चर्चा नहीं होती। भारतीय न्याय प्रणाली की धीमी और जटिल प्रक्रियाओं पर दृष्टिकोण चाहने वालों के लिए यह फिल्म एक खास अनुभव साबित होगी।