उत्तराखंड के सुंदर पहाड़ों में स्थित भागीरथी और भिलंगना नदियों पर बना टिहरी बांध जलविद्युत उत्पादन का प्रतीक है, लेकिन इसके पीछे छिपी कहानियां इसके निर्माण की चकाचौंध से कहीं अधिक गहराई में जाती हैं। यह बांध, जो अपने विशाल आकार और उद्देश्यों के लिए जाना जाता है, हजारों परिवारों के लिए विस्थापन और संघर्ष का कारण बना। इस संघर्ष में महिलाओं ने अद्वितीय साहस और समर्पण के साथ अपने समुदाय की एकता को बनाए रखा। महिलाएं, जो इस क्षेत्र की पारंपरिक कृषि और संसाधन प्रबंधन की रीढ़ थीं, अपने घरों, खेतों और जीवन की धुरी को बचाने के लिए मैदान में उतरीं।
महिलाओं का संघर्ष केवल अपने हक की लड़ाई नहीं था; यह उस पारिस्थिति की और सांस्कृतिक विरासत की रक्षा का आंदोलन था, जो पीढ़ियों से उनके पूर्वजों द्वारा पोषित किया गया था। टिहरी बांध आंदोलन ने महिलाओं को न केवल अपनी आवाज़ उठाने का मौका दिया, बल्कि उन्हें नेतृत्व करने की शक्ति भी सौंपी। उन्होंने धरना, प्रदर्शन और जल सत्याग्रह जैसे साधनों का सहारा लेकर दिखाया कि वे केवल परिवार की चौखट तक सीमित नहीं हैं, बल्कि पर्यावरण और सामाजिक न्याय की लड़ाई में भी उनकी भूमिका महत्वपूर्ण है।
महिलाओं का नेतृत्व: एक सशक्त आवाज
टिहरी बांध के निर्माण के खिलाफ विरोध का मुख्य कारण स्थानीय लोगों का विस्थापन था। बांध के निर्माण से लगभग 80,000 से 100,000 लोग प्रभावित हुए, जिनमें से अधिकांश किसान और स्थानीय समुदाय के सदस्य थे। उनके खेत, घर और जल संसाधन इस परियोजना के कारण डूबने वाले थे, जिससे उनकी आजीविका और सांस्कृतिक पहचान को खतरा था। महिलाओं ने अपने पारंपरिक जीवन, जिसमें कृषि, पशुपालन और जल संसाधन प्रबंधन शामिल था, के लिए लड़ाई लड़ी। उन्हें यह चिंता थी कि बांध के निर्माण से उनके परिवारों को न केवल भूमि से बल्कि अपने जीवन के महत्वपूर्ण संसाधनों से भी वंचित होना पड़ेगा। इसके अलावा, उन्हें यह भी एहसास हुआ कि यह केवल आर्थिक नुकसान नहीं, बल्कि उनकी सांस्कृतिक और सामाजिक संरचना के लिए भी एक बड़ा संकट था।
टिहरी बांध विरोध आंदोलन में महिलाओं ने एक महत्वपूर्ण और सशक्त भूमिका निभाई, जो न केवल स्थानीय स्तर पर, बल्कि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने में सहायक बनी। विमला बहुगुणा जैसी महिलाओं ने गढ़वाल क्षेत्र की महिलाओं को जल, जंगल, ज़मीन और संस्कृति की रक्षा के लिए सरकार से टकराने का साहस दिया। इस आंदोलन में महिलाओं ने जल सत्याग्रह और शांतिपूर्ण धरने का नेतृत्व किया, जिससे वे बांध के कारण विस्थापित होने वाले हजारों ग्रामीणों की
आवाज़ बनीं।
महिलाओं ने पर्यावरण संरक्षण और सामाजिक न्याय के मुद्दों को बड़े पैमाने पर उठाया, जिससे वे केवल आंदोलन की सहयोगी नहीं रहीं, बल्कि नेतृत्वकर्ता के रूप में उभरीं। विमला बहुगुणा ने अपने पति सुंदरलाल बहुगुणा के साथ मिलकर “चिपको आंदोलन” और “टिहरी आंदोलन” में योगदान दिया। उन्होंने महिलाओं को यह सिखाया कि उनकी आवाज़ें भी राजनीतिक और सामाजिक बदलाव ला सकती हैं। इस आंदोलन में ग्रामीण महिलाओं की भागीदारी ने यह सिद्ध कर दिया कि वे केवल घरेलू
जीवन तक सीमित नहीं हैं बल्कि अपनी संस्कृति, संसाधनों और अधिकारों के लिए संघर्ष करने में पूरी तरह सक्षम हैं।
प्रमुख महिलाएं और उनकी भूमिकाएं
टिहरी बांध आंदोलन में अनेक महिलाएं जुड़ीं। सुदेशा देवी वह महिला हैं जो इस आंदोलन की एक प्रमुख कार्यकर्ता थीं। जिन्होंने न केवल प्रदर्शन किए, बल्कि जनसभाएं आयोजित कर स्थानीय समुदायों को जागरूक किया। उन्होंने विस्थापन और प्राकृतिक संसाधनों की बर्बादी पर अपनी चिंताएं जताईं। इसी सूची में अगला नाम राधा बेन (राधा भट्ट) का है। उन्होंने महिलाओं को एकजुट किया और क्षेत्र की पर्यावरणीय महत्ता को उजागर किया। उनके नेतृत्व में कई विरोध प्रदर्शन और जागरूकता अभियान चलाए गए, जिससे महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित हुई। भगवती प्रसाद भी ऐसी ही महिला आंदोलनकारी हुई जिन्होंने स्थानीय समुदायों पर बांध के प्रतिकूल प्रभावों को उजागर किया और विरोध प्रदर्शन में भाग लिया। उनके प्रयासों ने सामाजिक अधिकारों के लिए आवाज उठाने में मदद की। सुमित्रा पड़िया ने पर्यावरणीय जागरूकता को बढ़ावा देने के लिए उन्होंने स्थानीय समुदायों के साथ बैठकें और कार्यशालाएं आयोजित की। उनका योगदान प्रभावित समुदायों के अधिकारों के लिए आंदोलन को मजबूत करने में महत्वपूर्ण रहा।
इन सभी महिलाओं ने टिहरी आंदोलन को मजबूत और प्रभावी बनाया। गाँव की महिलाओं ने इस आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाई। टिहरी बांध का विरोध उनके लिए सिर्फ एक परियोजना का विरोध नहीं था, बल्कि उनके घरों, खेती-बाड़ी और परंपराओं को बचाने की लड़ाई थी। महिलाओं ने नदियों में जल सत्याग्रह किया, अपने शरीरों को पानी में डुबोकर सरकार से अपने हक की मांग की। महिलाओं ने निडर होकर इस आंदोलन का हिस्सा बनकर अपनी जमीनी स्थिति को सुधारने का प्रयास
किया। उनकी भागीदारी ने आंदोलन को एक नया मोड़ दिया, जहां हर महिला ने अपनी व्यक्तिगत कहानी को आंदोलन का हिस्सा बना दिया।
महिलाओं का संघर्ष और कारण
महिलाओं के इस आंदोलन में भाग लेने के पीछे की मुख्य वजह थी उनके जीवन के आधारभूत संसाधनों का खतरे में पड़ना। टिहरी बांध के निर्माण से हज़ारों परिवारों का विस्थापन होना था, जिससे न सिर्फ उनकी जमीन, बल्कि उनके घर, खेती और आजीविका पर भी असर पड़ता। नदी उनके जीवन की धुरी थी, और बांध का निर्माण इसे उनसे छीन लेता। साथ ही, वे इसे एक सामाजिक और सांस्कृतिक नुकसान मानती थीं क्योंकि उनकी पीढ़ियों से चली आ रही परंपराओं और रीति-रिवाजों पर भी संकट आ जाता। इसने महिलाओं को घर की चारदीवारी से बाहर निकलकर सड़क पर आंदोलन करने के लिए प्रेरित किया। जहां ग्रामीण महिलाएं अपने हक और भविष्य के लिए सीधे टकराव में उतरीं।
महिलाओं की संघर्ष क्षमता और परिणाम
टिहरी बांध विरोध आंदोलन में महिलाओं की संघर्ष क्षमता अद्वितीय रही। उन्होंने इस आंदोलन को लंबे समय तक जीवित रखा और इसे एक सामूहिक जनांदोलन का रूप दिया। महिलाओं ने घर-परिवार की जिम्मेदारियों के साथ-साथ आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। उन्होंने शांतिपूर्ण जल सत्याग्रह से लेकर सड़क पर विरोध-प्रदर्शन तक किया। उनकी सामूहिक शक्ति ने सरकार और प्रशासन पर दबाव बनाया। अंततः, भले ही बांध का निर्माण हो गया, लेकिन यह आंदोलन महिलाओं की आवाज और उनकी अदम्य साहस का प्रतीक बन गया।
आर्थिक और सामाजिक प्रभाव: महिलाओं की दृष्टि से
टिहरी बांध परियोजना ने जहां बड़े पैमाने पर ऊर्जा उत्पादन और सिंचाई की संभावनाएं प्रस्तुत कीं, वहीं इसने हजारों लोगों के जीवन में गहरा आर्थिक और सामाजिक उथल-पुथल भी पैदा की। विशेष रूप से महिलाओं पर इसका प्रभाव गहरा और व्यापक रहा है। विकास के नाम पर होने वाले इस प्रकार के विस्थापन ने यह स्पष्ट किया है कि पुरुष और महिलाएं इसे अलग-अलग तरीके से अनुभव करते हैं, जिसका मुख्य कारण समाज में स्थापित जेंडर आधारित श्रम विभाजन है। महिलाएं पारंपरिक रूप से कृषि, पशुपालन और जल संसाधन प्रबंधन जैसे भूमिकाओं में संलग्न रही हैं। उनकी आजीविका और दैनिक जीवन प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर रहा है। जब टिहरी बांध के निर्माण के कारण जमीनें डूबीं और लोग विस्थापित हुए, तो महिलाओं ने न केवल अपने घर खोए, बल्कि अपनी आजीविका के साधन भी गंवाए।
नए स्थानों पर उन्हें आर्थिक असुरक्षा, सामाजिक अलगाव और सांस्कृतिक पहचान के नुकसान का सामना करना पड़ा।विस्थापन और पुनर्वास नीतियों में महिलाओं की आवश्यकताओं को अक्सर अनदेखा किया गया है। सरकारी नीतियों में पुरुषों को ही परिवार का मुखिया मानकर पुनर्वास पैकेज तैयार किए गए, जिससे महिलाओं की हिस्सेदारी सीमित रह गई। उन्हें संपत्ति के अधिकारों से वंचित रखा गया और उनके योगदान को नजरअंदाज किया गया। इस प्रकार की नीतिगत उपेक्षा ने महिलाओं की सामाजिक और आर्थिक स्थिति को और कमजोर किया शोधकर्ताओं ने पाया है कि विस्थापन के बाद महिलाओं को भूमि हीनता, बेरोजगारी, सामाजिक हाशिए पर जाने, खाद्य असुरक्षा और स्वास्थ्य समस्याओं जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ा है। उनकी सामाजिक संरचना टूट गई है और सामुदायिक समर्थन कम हो गया है।
इस सब के बावजूद, सरकारी नीतियों में उनके लिए विशेष प्रावधानों का अभाव है। टिहरी बांध परियोजना के संदर्भ में यह स्पष्ट होता है कि विकास योजनाओं में जेंडर संवेदनशीलता की कमी के कारण महिलाओं को अधिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। यह आवश्यक है कि भविष्य की विकास नीतियों में महिलाओं की भूमिका और आवश्यकताओं को प्राथमिकता दी जाए, ताकि उन्हें विकास का समान लाभ मिल सके और वे सामाजिक और आर्थिक रूप से सशक्त बन सकें।
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