स्वास्थ्यशारीरिक स्वास्थ्य क्यों कैंसर से जूझ रही महिलाओं के अनुभवों को दर्ज करने की है ज़रूरत  

क्यों कैंसर से जूझ रही महिलाओं के अनुभवों को दर्ज करने की है ज़रूरत  

भारत में, निदान में देरी कैंसर मृत्यु दर की उच्च दर में एक प्रमुख कारक है। नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन के अध्ययन में पाया गया कि कैंसर रोगी अपने बीमारी के संकेतों और लक्षणों के बारे में दोस्तों या परिवार के सदस्यों से सलाह लेने से पहले औसतन 271 दिन इंतजार करते हैं।

कैंसर शब्द सुनते ही आप एक बार जरूर घबराते या डरते हैं। आज देश में कैंसर रोगियों की बढ़ती संख्या के कारण, हम अक्सर सुनते हैं कि किसी परिचित को कैंसर हुआ है। लेकिन इस बीमारी से जुड़ी मानसिक, शारीरिक, भावनात्मक और आर्थिक समस्याओं को समझना  मुश्किल है। यह तब और भी मुश्किल हो जाता है, जब आपका कोई नजदीकी या आप खुद इस बीमारी से न गुजरे हों। कैंसर से मेनस्ट्रीम मीडिया और बॉलीवुड ने हालांकि हमारा परिचय तो  करवाया, लेकिन या तो इस बीमारी को ग्लैमराइज़ किया गया या डरावने तरीके से हमारे सामने लाया गया। शायद इसलिए, लोग आज कैंसर से डरते हैं, लेकिन इसके बावजूद जितनी जागरूकता की जरूरत है, उससे कोसों दूर हैं।

अक्सर महिलाओं को महत्व उनके शरीर के बाहरी बनावट या बच्चे पैदा कर पाने की जैविक क्षमता की वजह से दी जाती है। इसलिए, जब ब्रेस्ट या सर्वाइकल कैंसर इन्हें प्रभावित करता है, तो न सिर्फ बीमारी ठीक होने की चिंता बल्कि जीवन के कई पहलू प्रभवित होते हैं। चिकित्सकों में भी रूढ़िवादी सोच देखने को मिलती है, जो महिलाओं के अनुभवों को महत्व नहीं देना चाहते। फेमिनिज़म इन इंडिया ने देश के विभिन्न क्षेत्रों से कैंसर का सामना कर चुकी अलग-अलग महिलाओं से बात कर उनके कैंसर के सफर, समस्याओं और चुनौतियों को जानने की कोशिश की।

मुझे एडिनोमायोसिस है। कीमोथेरपी शुरू होने के बाद, मेरी ब्लीडिंग बहुत बढ़ गई। जब मैंने अपने ऑनकोलॉजिस्ट को ये बताया तो उन्होंने कहा कि रिसर्च में इसका कोई पारस्परिक संबंध नहीं है। इसलिए, इसमें चिंता की बात नहीं। जब हर कीमो से पहले रेगुलर ब्लड टेस्ट हुए, तो लगातार हेवी ब्लीडिंग की वजह से मेरा हैमोग्लोबिन 8.5 पर जा चुका था, जबकि आधा पॉइंट और कम होने से ब्लड ट्रैन्स्फ्यूशन की ज़रूरत पड़ जाती।

क्या चिकित्सक खुद विभिन्न कैंसर को लेकर जागरूक हैं

हालांकि ब्रेस्ट और सर्वाइकल कैंसर सबसे ज्यादा महिलाओं को प्रभावित कर रहा है, लेकिन इसके अलावा कई प्रकार के कैंसर भी महिलाओं को प्रभावित करते हैं। मुंबई में रहने वाली कंटेन्ट स्ट्रेटिजिस्ट 36 वर्षीय महिती पिल्लई अपने कैंसर के अनुभव के बारे में बताती हैं, “मेरे शरीर पर चोट के निशान; जैसे नीले धब्बे हो रहे थे। मुझे लगा कि मुझे अक्सर चोट लगती रहती है, तो यह उस कारण है। साल 2019 में मेरा हाथ फ्रैक्चर हुआ और उसी जगह पर चोट का निशान दिखा, जो ठीक नहीं हो रहा था। हालांकि मुझे कुछ-कुछ दूसरे लक्षण हो रहे थे। मेरे डॉक्टर ने पहले मुझे बीपी की दवाई दी। लेकिन मेरे मुंह और मसूढ़ों से अचानक ब्लीडिंग होने लगी। इसके बाद मैं अपनी माँ के साथ अस्पताल में डॉक्टर दिखाने और सारे टेस्ट कराने गई। नॉर्मल ब्लड टेस्ट से पता चला कि मेरा हैमोग्लोबिन 4.5 और प्लैट्लट 3500 हो गया है। काफी जांच के बाद पता चला कि मुझे एक्यूट प्रोमायलोसाइटिक ल्यूकेमिया (एपीएमएल) है। लेकिन मेरे चिकित्सा का सफर आसान नहीं रहा।”

कैंसर से जुड़ी मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं और आर्थिक बोझ  

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

नैशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसन के ब्रेस्ट कैंसर से जूझ रही महिलाओं पर एक शोध के अनुसार भारतीय महिलाओं में बीमारी और उपचार से संबंधित मनोवैज्ञानिक चिंताएं आम हैं, जिनमें बालों के झड़ने से जुड़ी शारीरिक छवि के मुद्दों पर विशेष जोर दिया जाता है। शोध बताता है कि लगभग सभी महिलाओं के लिए परिवार और आस्था मुख्य सहारा थे, हालांकि यह परेशानी का कारण भी हो सकता है। कैंसर का एक बहुत बड़ा पहलू है कि आपको किस प्रकार का कैंसर है और आपकी आर्थिक स्थिति या आप किस इलाके में रहते हैं। देश में प्राइवेट अस्पतालों में कैंसर का इलाज बहुत महंगा है, जिसका खर्च हर कोई नहीं उठा सकता।

जब लोग मुझे कहते हैं कि मैं बच गई और इससे ज्यादा मुझे और क्या चाहिए, तब लगता था ये तो बेसिक है। मैं खुश हूं कि मैं जिंदा हूं लेकिन मेरे जीवन की क्वालिटी का क्या? आज मुझे कैंसर चिकित्सा के 4 साल और थेरपी लेते हुए 2 साल हो चुके हैं। कीमो और कैंसर स्थायी रूप से जीवन को नुकसान पहुंचाते और प्रभावित करते हैं।

इस विषय पर मुंबई की 61 वर्षीय सलीमा कादिर बताती हैं, “मेरे लिए इलाज कराना संभव ही नहीं होता, अगर मेरी बहन ने इलाज का खर्च न उठाया होता। गनीमत था कि उसके पति ने इसपर आपत्ति नहीं जताई। मुझे 2018 में स्टेज-3 ब्रेस्ट कैंसर का पता चला। साल 2018 से 2023 तक के इलाज में लगभग 12-15 लाख रुपए खर्च हुए। हमने कई सामाजिक संस्थानों से हर तरह से आर्थिक मदद मांगने की कोशिश की, पर कोई फायदा नहीं हुआ। कई कैंसर की दवाएं आज भी देश में नहीं बनती, जिस कारण दवाइयां और महंगी आती है। ये सभी घटनाएं मेरे लिए चिंता और भावनात्मक उथल-पुथल की वजह थी। हालांकि इसके लिए काउन्सेलिंग की सलाह नहीं दी गई थी। हर कीमो में मेरी बहन साथ थी, जो मेरी हिम्मत का कारण था।”

हमने कई सामाजिक संस्थानों से हर तरह से आर्थिक मदद मांगने की कोशिश की, पर कोई फायदा नहीं हुआ। कई कैंसर की दवाएं आज भी देश में नहीं बनती, जिस कारण दवाइयां और महंगी आती है। ये सभी घटनाएं मेरे लिए चिंता और भावनात्मक उथल-पुथल की वजह थी। हालांकि इसके लिए काउन्सेलिंग की सलाह नहीं दी गई थी।

वहीं मुंबई में इलाज करा चुकी इकोलोजिस्ट और शोधकर्ता डॉ. कादंबरी देवराजन कहती हैं, “रिपोर्ट मिलने के तुरंत बाद मेरी आंखों में आंसू आ गए। लेकिन कुछ मिनट बाद मैं शांत और संयमित हो गई। मुझे हॉजकिन लिम्फोमा डाएग्नोस हुआ था। मैंने हॉजकिन लिम्फोमा के बारे में जानकारी के लिए जर्नल और इंटरनेट खंगालना शुरू कर दिया। कुछ डॉक्टर मुझे साफ-साफ कहते थे कि मैं पढ़ना बंद कर दूं, लेकिन मेरे पास यह विकल्प नहीं था। ऑन्कोलॉजिस्ट सब कुछ नहीं जानते, और मेरे पास हमेशा कोई ऐसा व्यक्ति नहीं होता था जो मेरे सवालों का जवाब दे सके। इंटरनेट ही मेरा एकमात्र स्थिर जरिया था।”

तस्वीर साभार: Freepik

शहरी पढ़े-लिखे लोगों के लिए ये संभव है कि वे जल्द से जल्द इलाज शुरू करें और इंटरनेट के माध्यम से विभिन्न शोध को पढ़ें, जिससे उन्हें मदद मिले। लेकिन ग्रामीण भारत में ये मुश्किल है। उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जिले में रहने वाले दीपक जैसवाल अपनी 53 वर्षीय माँ के विषय में बताते हैं जो ब्रेस्ट कैंसर से जूझ चुकी हैं। वह कहते हैं, “कैंसर आर्थिक, मानसिक और शारीरिक रूप से आपको तोड़ देता है। मेरी माँ के इलाज के दौरान जब उनके बाल झड़ने शुरू हुए, तो मानसिक रूप से वह बहुत निराश थीं। रेडीएशन के दौरान भी स्थिति बहुत बुरी थी। कई बातें होती हैं, जिसके विषय में डॉक्टर भी उस तरह जानकारी नहीं देता। रेडीऐशन के वक्त खाने-पीने में दिक्कत थी और मुंह में छाले हो रहे थे। इलाज के दौरान हमने गांववालों और रिश्तेदारों को उनसे मिलने मना कर दिया, जो नेगटिव बातें कहकर और परेशान कर रहे थे। 2017 से शुरू हुए इलाज में लगभग 15-16 लाख रूपर खर्च हुए जिसके लिए मैंने लोन लिया है, जिसकी किस्त अब भी चल रही है।”        

इलाज के दौरान हमने गांववालों और रिश्तेदारों को उनसे मिलने मना कर दिया, जो नेगटिव बातें कहकर और परेशान कर रहे थे। 2017 से शुरू हुए इलाज में लगभग 15-16 लाख रूपर खर्च हुए जिसके लिए मैंने लोन लिया है, जिसकी किस्त अब भी चल रही है।   

क्या चिकित्सक महिलाओं के अनुभवों को देते हैं महत्व

अक्सर, चिकित्सक इलाज के दौरान जीवन के क्वालिटी या महिलाओं के विशेष समस्याओं के बारे में नहीं सोचते। हालांकि कई लोगों का तर्क है कि इतनी बड़ी तादाद में डॉक्टरों का मरीजों को भावनात्मक रूप से साथ देना संभव नहीं। इलाज के दौरान चुनौतियों के बारे में महिती बताती हैं, “मुझे एडिनोमायोसिस है। कीमोथेरपी शुरू होने के बाद, मेरी ब्लीडिंग बहुत बढ़ गई। जब मैंने अपने ऑनकोलॉजिस्ट को ये बताया तो उन्होंने कहा कि रिसर्च में इसका कोई पारस्परिक संबंध नहीं है। इसलिए, इसमें चिंता की बात नहीं। जब हर कीमो से पहले रेगुलर ब्लड टेस्ट हुए, तो लगातार हेवी ब्लीडिंग की वजह से मेरा हैमोग्लोबिन 8.5 पर जा चुका था, जबकि आधा पॉइंट और कम होने से ब्लड ट्रैन्स्फ्यूशन की ज़रूरत पड़ जाती। उस वक्त ब्लीडिंग इंजेक्शन से रोका गया और कीमो जारी रहा। इलाज से जुड़ी समस्याओं के कारण मेरा डिप्रेशन और बढ़ गया और इसके लिए भी मैंने खुद मदद मांगी थी।”

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

चिकित्सकीय दुनिया में मौजूद रूढ़िवाद को दरकिनार करते हुए, कैंसर से जूझ रही महिलाओं पर गहन शोध किया जाना चाहिए, ताकि उन अनसुने पहलुओं पर भी बात हो। कई बार चिकित्सक खुद महिलाओं के अनुभवों को दर्ज नहीं करते। इस विषय पर डॉ. कादंबरी कहती हैं, “कीमोथेरेपी के कारण मुझे कई तरह के साइड-इफेक्ट्स हुए। ऑन्कोलॉजिस्ट ने मुझे कुछ शॉर्ट टर्म (जैसे मतली, बालों का झड़ना और संक्रमण के खतरे) के बारे में चेतावनी दी और कुछ के बारे में (जैसे तेज दर्द, थ्रोम्बोफ्लेबिटिस, थकान और अवसाद) के बारे में कुछ न बताने का फैसला किया। मैं कुछ अपेक्षित दुष्प्रभावों (जैसे न्यूट्रोफिल की संख्या में गिरावट और यह खतरनाक क्यों हो सकता है) के बारे में जानती थी, जबकि अपने साथ होने वाली कुछ समस्याओं (जैसेकि हाथ पर रहस्यमय पिगमेनटेशन पैच) के बारे में पढ़ने की कोशिश कर रही थी। कुछ प्रभावों को मैनेज करना आसान था और कुछ को नहीं।”

ऑन्कोलॉजिस्ट ने मुझे कुछ शॉर्ट टर्म (जैसे मतली, बालों का झड़ना और संक्रमण के खतरे) के बारे में चेतावनी दी और कुछ के बारे में (जैसे तेज दर्द, थ्रोम्बोफ्लेबिटिस, थकान और अवसाद) के बारे में कुछ न बताने का फैसला किया। मैं कुछ अपेक्षित दुष्प्रभावों के बारे में जानती थी, जबकि अपने साथ होने वाली कुछ समस्याओं के बारे में पढ़ने की कोशिश कर रही थी।

वहीं स्टेज-3 ब्रेस्ट कैंसर के जूझ चुकी में मीडिया संस्थान फ्रन्टलाइन में काम कर रहीं 56 वर्षीय टीके राजलक्ष्मी बताती हैं, “डॉक्टरों ने कई साइड इफेक्ट के बारे में आगाह नहीं किया था। मुझे इलाज के दौरान बहुत ज्यादा कब्ज़ हुआ करता था। मुझे डाएट चार्ट दिया गया था, पर कई चीजें साफ नहीं थी। ओरल हेल्थ के बारे में खास तौर से नहीं बताया गया था।” बता दें कि कीमो की वजह से दांतों और मुंह के स्वास्थ्य पर खास प्रभाव पड़ता है, जिसके लिए विशेष देखभाल की जरूरत पड़ती है। ये जरूरी है कि हम सब समझें कि जीवन बचाया जाना जितना ज़रूरी है, उतना ही ज़रूरी है जीवन के सामान्य स्तर को बरकरार रखने की कोशिश करना। इसपर महिती कहती हैं, “जब लोग मुझे कहते हैं कि मैं बच गई और इससे ज्यादा मुझे और क्या चाहिए, तब लगता था ये तो बेसिक है। मैं खुश हूं कि मैं जिंदा हूं लेकिन मेरे जीवन की क्वालिटी का क्या? आज मुझे कैंसर चिकित्सा के 4 साल और थेरपी लेते हुए 2 साल हो चुके हैं। कीमो और कैंसर स्थायी रूप से जीवन को नुकसान पहुंचाते और प्रभावित करते हैं।”

देश में बढ़ता कैंसर और जागरूकता की कमी

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

देश में साल 2022 में कैंसर के अनुमानित मामलों की संख्या 14,61,427 थी। भारत में, आज हर नौ में से एक व्यक्ति को अपने जीवनकाल में कैंसर होने की संभावना है। साल 2020 की तुलना में 2025 में कैंसर के मामलों की घटनाओं में 12.8 प्रतिशत की बढ़ोतरी होने का अनुमान है। ग्लोबल कैंसर ऑब्ज़र्वेटरी (GLOBOCAN) के अनुमान के अनुसार, साल 2020 में दुनिया भर में 19.3 मिलियन कैंसर के मामले सामने आए। चीन और अमेरिका के बाद भारत तीसरे स्थान पर है। ग्लोबोकैन ने भविष्यवाणी की है कि भारत में कैंसर के मामले बढ़कर 2.08 मिलियन हो जाएंगे, जो 2020 से 2040 में 57.5 प्रतिशत की वृद्धि होगी। भारत में, निदान में देरी कैंसर मृत्यु दर की उच्च दर में एक प्रमुख कारक है। नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन के अध्ययन में पाया गया कि कैंसर रोगी अपने बीमारी के संकेतों और लक्षणों के बारे में दोस्तों या परिवार के सदस्यों से सलाह लेने से पहले औसतन 271 दिन इंतजार करते हैं। 

जागरूकता के विषय पर राजलक्ष्मी बताती हैं, “जून 2021 से कैंसर के पता चलने से पहले मैंने कभी जीवन में स्क्रीनिंग नहीं करवाया था। सरकार को ज्यादा से ज्यादा स्क्रीनिंग पर खर्च करने की ज़रूरत है, और ये सुनिश्चित करने की ज़रूरत है कि ज्यादा से ज्यादा महिलाएं स्क्रीनिंग करवाए।” कैंसर से जूझने वाली महिलाओं को सिर्फ बीमारी से नहीं, बल्कि चिकित्सकीय व्यवस्था, समाज के रवैये, आर्थिक और व्यक्तिगत चुनौतियों से भी लड़ना पड़ता है। कैंसर केवल शरीर को नहीं, बल्कि व्यक्ति की पूरी जीवनशैली और मानसिकता को बदल देता है। इसके प्रभाव से उबरने के लिए महिलाओं को उचित चिकित्सकीय देखभाल, मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान और परिवार का समर्थन चाहिए। ये भी ज़रूरी है कि सरकार कैंसर के चुनिंदा दवाओं को नहीं, बल्कि पूरे इलाज को किफायती बनाने की सोचे और हर व्यक्ति तक इसकी पहुंच सुनिश्चित करे। समाज को यह समझना होगा कि महिलाओं की सेहत सिर्फ उनके शरीर तक सीमित नहीं है, बल्कि उनकी भावनात्मक और मानसिक भलाई भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। जागरूकता और समर्थन बढ़ाने से ही कैंसर जैसी जटिल बीमारी से जूझने वाली महिलाओं का जीवन बेहतर हो सकता है।

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