इंटरसेक्शनल समावेशी समाज के लिए ‘जेंडर डिस्फोरिया’ जैसी स्थिति को समझने की है ज़रूरत

समावेशी समाज के लिए ‘जेंडर डिस्फोरिया’ जैसी स्थिति को समझने की है ज़रूरत

विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी 2019 की नवीनतम ICD-11 में जेंडर डिस्फोरिया को मानसिक रोग के बजाय यौन स्वास्थ्य से संबंधित स्थितियों के तहत रखा गया है और इसे जेंडर इनकंग्रुएंस कहा गया है। इस उद्देश्य से ताकि ट्रांसजेंडर या नॉन बाइनरी लोगों से जुड़ी स्वास्थ्य समस्याओं को और बेहतर किया जा सके।

आज के आधुनिक समय में जहां पहचान की स्वतंत्रता को एक मौलिक अधिकार तरह समझा जाता है, वहीं कुछ ऐसे लोग है जिन्हें अपनी मन मुताबिक पहचान और जेंडर आइडेंटिटी के हिसाब से जीने के लिए हर दिन संघर्ष करना पड़ता है। हमारा नाम, चेहरा, जेंडर, कपड़े और व्यवहार ये सब हमारी पहचान का हिस्सा होते हैं। लेकिन सोचिए, अगर एक व्यक्ति को अपने जन्म के शरीर में ही अजनबी जैसा महसूस हो? अगर वह जिस जेंडर में पैदा हुआ है, उससे उसका मन मेल ही न खाता हो? किसी शख्स द्वारा ऐसा अनुभव करना जेंडर डिस्फोरिया कहलाता है। बीबीसी की साल 2017 की रिपोर्ट बताती है कि जेंडर डिस्फोरिया से गुजरने वाला व्यक्ति अपने जन्म से मिले शरीर में असहज महसूस करता है।

इस स्थिति में ऐसा हो सकता है कि लड़के के रूप में जन्मा कोई व्यक्ति लड़की जैसा महसूस करे और लड़की के रूप  में जन्मा व्यक्ति लड़के जैसा महसूस करे। ऐसे में उनकी वास्तविक लैंगिक पहचान (जेंडर आइडेंटिटी) जन्म के वक़्त निर्धारित जेंडर (असाइन्ड जेंडर) से मेल नहीं खाती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक  यह कोई दिमागी परेशानी, स्वभाव या जान-बूझकर की जाने वाली हरकत नहीं है। ऐसा होना बिल्कुल नॉर्मल है। ऐसे लोगों में भी लड़के (XY) और लड़कियों (XX, YY) वाले क्रोमोसोम्स ही होते हैं। इसके बावजूद ये अपने शरीर के अनुसार न तो महसूस करते हैं और न ही वैसा बर्ताव कर पाते हैं। ऐसी स्थिति को चिकित्सीय दुनिया और भाषा में ‘जेंडर डिस्फ़ोरिया’ कहा जाता हैं। 

अमेरिकन साइकीऐट्रिक एसोसिएशन के मुताबिक जेंडर डिस्फोरिया एक ऐसी स्थिति है, जिसमें व्यक्ति अपने जन्म के समय निर्धारित लिंग और अपनी वास्तविक अनुभूत लैंगिक पहचान (जेंडेर आइडेंटिटी) के बीच गहरे मानसिक तनाव, बैचेनी और असमंजस का अनुभव करता है।

जेंडर डिस्फ़ोरिया क्या है? 

अमेरिकन साइकीऐट्रिक एसोसिएशन के मुताबिक जेंडर डिस्फोरिया एक ऐसी स्थिति है, जिसमें व्यक्ति अपने जन्म के समय निर्धारित लिंग और अपनी वास्तविक अनुभूत लैंगिक पहचान (जेंडेर आइडेंटिटी) के बीच गहरे मानसिक तनाव, बैचेनी और असमंजस का अनुभव करता है। जेंडर डिस्फोरिया एक मानसिक, सामाजिक और भावनात्मक स्थिति है, जिसमें किसी व्यक्ति की आंतरिक लैंगिक पहचान उसके जन्म के समय निर्धारित जेंडर  से मेल नहीं खाती है। यह केवल ‘लड़का होना चाहना’ या ‘लड़की जैसा महसूस करना’ भर नहीं है, बल्कि एक गहरे असंतोष, बेचैनी और अपने शरीर से असहजता का अनुभव हो सकता है।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

यह स्थिति अक्सर बचपन या किशोरावस्था में शुरू होती है, लेकिन बहुत से लोगों में इसे समझने और स्वीकार करने में सालों लग सकते हैं। कुछ लोग अपने जेंडर पहचान के साथ आगे बढ़ते हैं, तो कुछ के लिए यह संघर्ष उम्र भर चलता है। यह सिर्फ एक चिकित्सीय शब्द नहीं है बल्कि कई लोगों का अपनी असली पहचान के हिसाब से न जी पाने का दर्द भी है जिन्हें समाज अब तक न पूरी तरह समझ पाया है, न स्वीकार कर पाया है। दुनिया भर में ऐसी स्थिति से गुजरने वाले लोगों के आंकड़ें उपलब्ध हैं। हालांकि भारत के संदर्भ में कोई निश्चित आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं।

जेंडर डिस्फोरिया को समझने के लिए जेंडर आइडेंटिटी (लैंगिक पहचान) और जेंडर एक्सप्रेशन (लैंगिक अभिव्यक्ति) को समझना भी महत्वपूर्ण है। जेंडर आइडेंटिटी और जेंडर एक्सप्रेशन अलग-अलग है। जहां जेंडर आइडेंटिटी किसी व्यक्ति की मानसिक रूप से अपने लिंग को लेकर पहचान को बताती है वहीं जेंडर एक्सप्रेशन यह दिखाता है कि कोई व्यक्ति समाज के सामने किस प्रकार से अपने लिंग को प्रस्तुत करता है। उदाहरण के लिए आम तौर पर साड़ी  पहनना फेमीनिन एक्सप्रेशन माना जाता है और शर्ट-पैन्ट पहनना मैस्क्यूलिन एक्सप्रेशन समझा जाता है। इस प्रकार की अपेक्षाएं सांस्कृतिक रूप से तय होती हैं। यह संस्कृति और समय के अनुसार अलग-अलग हो सकती हैं। किसी शख्स का जेंडर एक्सप्रेशन उसकी जेंडर आइडेंटिटी से मेल खाए यह जरूरी नहीं हैं। 

बीबीसी की साल 2017 की रिपोर्ट बताती है कि जेंडर डिस्फोरिया से गुजरने वाला व्यक्ति अपने जन्म से मिले शरीर में असहज महसूस करता है। इस स्थिति में ऐसा हो सकता है कि लड़के के रूप में जन्मा कोई व्यक्ति लड़की जैसा महसूस करे और लड़की के रूप  में जन्मा व्यक्ति लड़के जैसा महसूस करे।

जेंडर डिस्फोरिया की पहचान और लक्षण

तस्वीर साभार: Everyday Health

अमेरिकन साइकीऐट्रिक एसोसिएशन के अनुसार जेंडर डिस्फोरिया बचपन से ही शुरू हो जाता है और इसे बच्चे के खिलौनों और कपड़ों के विपरीत जेंडर के तौर पर पसंद से पहचना जा सकता हैं। हालांकि कभी- कभी ऐसा होना  बच्चों में नॉर्मल भी समझा जाता है। वहीं कुछ लोग इस स्थिति को अपनी युवावस्था के बाद या फिर उससे भी काफी समय बाद में अनुभव कर सकते हैं। इस संदर्भ में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जेंडर डिस्फोरिया को जेंडर इनकंग्रुएंस के अंतर्गत दो अलग-अलग श्रेणी में विभाजित करके इसके लक्षण और पहचान को परिभाषित किया है जिसे बचपन की लिंग इनकंग्रुएंस और किशोरावस्था या वयस्कता की लिंग इनकंग्रुएंस का नाम दिया गया है।  विश्व स्वस्थ संगठन की ICD-11 को ध्यान में रखकर अमेरिकन साइकीऐट्रिक एसोसिएशन की नई प्रकाशित डायग्नॉस्टिक एंड स्टैटिस्टिकल मैनुअल ऑफ मेंटल डिसऑर्डर्स  (DSM-5-TR) में  बच्चों के लिए और किशोरों और वयस्कों के लिए जेंडर डिस्फोरिया के अलग-अलग विशिष्ट मापदंड निर्धारित किए गए हैं।

जेंडर डिस्फोरिया का प्रभाव

कुछ साल तक जेंडर डिस्फोरिया को जेंडर आइडेंटिटी डिसॉर्डर के नाम से जाना जाता था लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) द्वारा जारी 2019 की नवीनतम ICD-11 में जेंडर डिस्फोरिया को मानसिक रोग के बजाय यौन स्वास्थ्य से संबंधित स्थितियों के तहत रखा गया है और इसे जेंडर इनकंग्रुएंस कहा गया है। इस उद्देश्य से ताकि ट्रांसजेंडर या नॉन बाइनरी लोगों से जुड़ी स्वास्थ्य समस्याओं को और बेहतर किया जा सके। हालांकि यह कोई मानसिक बीमारी नहीं हैं लेकिन फिर भी जेंडेर डिस्फोरिया की स्थिति में एक शख्स को अवसाद, चिंता, सामाजिक अलगाव जैसी मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। इससे उनका मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित होता है। कभी- कभी इस स्थिति में मानसिक स्वस्थ पर इतना गहरा असर होता है कि व्यक्ति आत्महत्या से मौत के ख्याल भी आते हैं।

विशेषज्ञों और मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि जेंडर डिस्फोरिया को ध्यान में रखकर हम ऐसे किसी व्यक्ति के साथ वैसे ही बर्ताव करें और उसे वैसा देखें जैसाकि वो चाहता है। यानी जिस जेंडर आइडेंटिटी और पहचान में वह ज्यादा सहज महसूस करता हैं।

इसका कारण यह होता है कि जन्म से मिले शरीर में उनको सहज महसूस नहीं होता। इस मानसिक असहजता के चलते व्यक्ति अक्सर अपने शरीर के कुछ हिस्सों जैसे स्तन, जननांग से गहरी असहमति या घृणा का भाव भी रखता है। जेंडर डिस्फोरिया से गुजर रहा कोई व्यक्ति समाज में अपने वास्तविक लिंग के अनुसार व्यवहार करने की प्रबल चाह रखते हैं। बीबीसी की एक रिपोर्ट अनुसार जब किसी व्यक्ति को इस असमंजस और असहजता के बीच समझ ही नहीं आता कि उनकी असली आइडेंटिटी यानी पहचान क्या है, वो डिप्रेशन में चले जाते हैं और कई बार ये खुद को नुकसान पहुंचाने या आत्महत्या से मौत के विचारों का भी सामना करते हैं।  

क्या हो सकता है आगे का रास्ता

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

विशेषज्ञों और मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि जेंडर डिस्फोरिया को ध्यान में रखकर हम ऐसे किसी व्यक्ति के साथ वैसे ही बर्ताव करें और उसे वैसा देखें जैसाकि वो चाहता है। यानी जिस जेंडर आइडेंटिटी और पहचान में वह ज्यादा सहज महसूस करता हैं। लेकिन अगर फिर भी कोई शख्स अपने जन्म से मिले शरीर में जेंडर डिस्फोरिया के चलते सहज महसूस नहीं करता है, तो वह  सर्जरी और चिकित्सकीय प्रक्रिया के माध्यम इसे बदल भी सकता है। इसे मेडिकल भाषा में ‘सेक्स रिअसाइन्मेंट सर्जरी’ कहते हैं। हालांकि अमेरिकन साइकीऐट्रिक एसोसिएशन के अनुसार ‘सेक्स रिअसाइन्मेंट सर्जरी’ एक जटिल और लंबी प्रक्रिया है। इसके तहत किसी व्यक्ति को लंबे सायकायट्रिक सेशन्स से लेकर हार्मोनल थेरपी आदि से सर्जरी तक के लंबे दौर तक गुजरना पड़ता है। बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक सर्जरी और ऑपरेशन में कुल मिलाकर तक़रीबन 10-20 लाख रुपये तक का खर्च आता है।

भारत में सेक्स रिअसाइन्मेंट सर्जरी को मेडिकल इंश्योरेंस में कवर नहीं किया जाता है। इस लंबी मेडिकल प्रक्रिया के बाद एक लंबे सामाजिक-कानूनी पहचान की प्रक्रिया भी पूरी करनी पड़ती हैं। द क्विन्ट में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अनुभव पर आधारित एक रिपोर्ट के अनुसार जेंडर डिस्फोरिया से जूझ रहे व्यक्तियों को सुधारने और बदलने की नहीं बल्कि समझने, अपनाने, स्वीकार करने और साथ देने की ज़रूरत है। मौलिक अधिकार के अंतर्गत हर कोई अपने मन मुताबिक पहचान के हिसाब से जी सकता है। हालांकि सामाजिक जागरूकता और शिक्षा की कमी के चलते अक्सर समाज में जेंडर डिस्फोरिया लोगों के साथ सामाजिक भेदभाव का कारण बनता है। इसलिए, हमें एक ऐसे समावेशी समाज को बनाने की जरूरत है, जहां प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह किसी भी लैंगिक पहचान से जुड़ा हो उसे सुरक्षा, सम्मान और गरिमा के साथ जीने का अधिकार मिले।

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