इंटरसेक्शनलजेंडर कैसे सर्वाइकल कैंसर से जुड़ी शर्म और मिथक महिलाओं को इसके निदान और इलाज से दूर कर रही है  

कैसे सर्वाइकल कैंसर से जुड़ी शर्म और मिथक महिलाओं को इसके निदान और इलाज से दूर कर रही है  

यह सोच कि यह कैंसर सर्विक्स से जुड़ा है जिसका टेस्ट, वजाइना के माध्यम से किया जाएगा, हजारों महिलाओं को वैक्सीन तो दूर, सर्वाइकल कैंसर के स्क्रीनिंग से भी दूर हो रही हैं।

आज से एक या दो दशक पहले कैंसर न ही इतना चर्चित विषय था और न ही कैंसर के प्रति जागरूकता के लिए इतना हाहाकार मचता था। इस चिंता के पीछे मूल रूप से कारण यह है कि हजारों रिपोर्ट्स में बताया जा रहा है कि कैसे भारत कैंसर का गढ़ बनता जा रहा है। महिलाओं के लिए यह और भी चिंताजनक इसलिए है क्योंकि महिलाओं में सबसे ज्यादा स्तन और सर्वाइकल कैंसर होते हैं । लेकिन इन कैंसर पर बातचीत से लोग आज भी झिझकते हैं। भारत में, नौ में से एक व्यक्ति को अपने जीवनकाल में कैंसर होने की संभावना है। पुरुषों में फेफड़े और महिलाओं में स्तन कैंसर प्रमुख कैंसर हैं। चाइल्ड्हुड कैंसर (0-14 वर्ष) के कैंसर में, लिम्फोइड ल्यूकेमिया (लड़कों में 29.2 फीसद और लड़कियों में 24.2 फीसद) पर सबसे आगे है। राष्ट्रीय कैंसर रजिस्ट्री कार्यक्रम के आंकड़ों पर आधारित अनुमान अनुसार भारत में साल 2020 की तुलना में 2025 में कैंसर के मामलों में 12.8 प्रतिशत की वृद्धि होने का अनुमान है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार सर्वाइकल कैंसर महिलाओं में होने वाला चौथा सबसे आम कैंसर है। 2018 में, दुनिया भर में अनुमानित 5,70,000 महिलाओं में सर्वाइकल कैंसर का पता चला और लगभग 3,11,000 महिलाओं की इस बीमारी से मृत्यु हो गई। यह एक ऐसा कैंसर है जिससे शर्म और मिथक दोनों जुड़े हैं और लोगों को, विशेषकर महिलाओं को खुलकर बातचीत तो दूर, स्क्रीनिंग या टीका के लिए भी छूट नहीं देती। 2019 के ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज अध्ययन के अनुसार साल 1990 से 2019 तक भारत में सर्वाइकल कैंसर की घटनाओं में 21 प्रतिशत की कमी आई है, साथ ही मृत्यु दर में 32 प्रतिशत की कमी आई है। हालांकि इसके मृत्यु दर में कमी आई है लेकिन इसका जोखिम आज भी बना हुआ है।

हमारे संस्कृति में सर्वाइकल कैंसर को यौन संबंध रखने वाले लोगों का कैंसर माना जाता है। इसलिए कैंसर से भी ज्यादा यह शर्म और डर सताता है कि क्या स्क्रीनिंग के लिए जाने का मतलब ‘वर्जिन’ न होना होगा। स्क्रीनिंग के प्रक्रिया से आज भी महिलाएं झिझकती हैं।

कैसे सर्वाइकल कैंसर से जुड़ा शर्म काम करती है

सर्वाइकल कैंसर महिला के गर्भाशय ग्रीवा (योनि से गर्भाशय का प्रवेश के रास्ते) में विकसित होता है। सर्वाइकल कैंसर के लगभग सभी मामले (लगभग 99 फीसद मामले) उच्च जोखिम वाले ह्यूमन पैपिलोमावायरस (एचपीवी) के संक्रमण से जुड़े हैं, जो यौन संपर्क के माध्यम से फैलने वाला एक बेहद आम वायरस है। यह चिकित्सकीय विज्ञान की दिशा में महत्वपूर्ण कदम है कि एचपीवी के लिए आज वैक्सीन मौजूद है। लेकिन हमारे संस्कृति में सर्वाइकल कैंसर को यौन संबंध रखने वाले लोगों का कैंसर माना जाता है। इसलिए कैंसर के भी ज्यादा यह शर्म और डर सताता है कि क्या स्क्रीनिंग के लिए जाने का मतलब ‘वर्जिन’ न होना होगा। स्क्रीनिंग के प्रक्रिया से आज भी महिलाएं झिझकती हैं।

तस्वीर साभार: फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

यह सोच कि यह कैंसर सर्विक्स से जुड़ा है जिसका टेस्ट, वजाइना के माध्यम से किया जाएगा, हजारों महिलाओं को वैक्सीन तो दूर, सर्वाइकल कैंसर के स्क्रीनिंग से भी दूर हो रही हैं। वैक्सीन की जागरूकता की कमी के साथ-साथ यह सोच भी काम करती है कि वैक्सीन की जरूरत क्यों है जब कोई यौन संबंध में शामिल नहीं है। या क्या वैक्सीन का मतलब दुनिया को यह बताना नहीं कि वे यौन संबंध बना रहे हैं। जब देश में सेक्स, यौन और प्रजनन स्वास्थ्य पर बातचीत करना ही एक टैबू हो, तो ऐसी मानसिकता का होना कोई आश्चर्य की बात नहीं।

आज जबकि उसे तुरंत स्क्रीनिंग कराना चाहिए, वह इस बात से डर रही है। वह बताती है, “घर पर या यहां तक कि दोस्तों को भी नहीं बता सकती कि एचपीवी की स्क्रीनिंग के लिए जा रही हूं। चूंकि एचपीवी यौन संबंध से फैलता है, मुझे अपराधबोध महसूस हो रहा है।

कैंसर से जुड़ी रूढ़ियां इलाज को कैसे प्रभावित करती है  

जहां सेफ सेक्स की बातचीत तक खुलकर नहीं हो सकती, वहां ऐसे रोगों के बारे में बात करना ही अपनेआप में एक चुनौती है। डॉक्टर तक जाने, वैक्सीन और स्क्रीनिंग की बात तब आती है, जब व्यक्ति खुद अपने मन की झिझक या डर से बाहर आ सके। इसमें हमारा समाज और परिवार एक बहुत बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। जानकारी के अभाव और इससे जुड़ी शर्म के कारण आम तौर पर भारतीय परिवारों में सेक्स या यौन और प्रजनन स्वास्थ्य पर बातचीत करना मना है। एचपीवी के विषय में पूछने पर कोलकाता की रहने वाली स्मिता (नाम बदला हुआ) बताती हैं कि उसे अपने साथी के एचपीवी से ग्रसित होने की बात उसके ब्रेक अप के बाद पता चली। आज जबकि उसे तुरंत स्क्रीनिंग कराना चाहिए, वह इस बात से डर रही है।

वह बताती हैं, “घर पर या यहां तक कि दोस्तों को भी नहीं बता सकती कि एचपीवी की स्क्रीनिंग के लिए जा रही हूं। चूंकि एचपीवी यौन संबंध से फैलता है, मुझे अपराधबोध महसूस हो रहा है। अब हमारा ब्रेक अप भी हो चुका है, तो यह मेरे लिए और भी मुश्किल समय है।” हमारे देश में कैंसर से एक नहीं कई मिथक और रूढ़ि जुड़े हैं। ये रूढ़ियां और मिथक कैंसर के निदान, उपचार और देखभाल को प्रभावित करती है। कैंसर का तत्काल इलाज करा रही मुंबई की सलीमा कादिर कहती हैं कि वह मानती हैं कि जीवन में जो भी घटनाएं हो रही हैं, वह अल्लाह के मर्जी से हो रहा है। वह कहती हैं, “मैंने अब तक बहुत स्वस्थ जीवन जिया है। कभी कोई परेशानी नहीं रही। हालांकि इलाज चल रहा है, पर लाभ होगा ही इसके लिए मैं प्रार्थना नहीं करती, न ही पूरी तरह से ऐसी उम्मीद करती हूँ।”

नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन के एक हालिया अध्ययन में पाया गया कि कैंसर रोगी अपने बीमारी के संकेतों और लक्षणों के बारे में दोस्तों या परिवार के सदस्यों से सलाह लेने से पहले औसतन 271 दिन इंतजार करते हैं।

कैसे मिथक इलाज को बना रहा है मुश्किल

भारत में कैंसर की रोकथाम, पता लगाने और देखभाल की निरंतरता पर मिथक की सीमा और प्रभाव को कमतर समझा जाता है। कई अध्ययनों के अनुसार किसी ने भी कैंसर की धारणा और देखभाल के तरीकों को आकार देने में जागरूकता का स्तर, मिथक की भूमिका और अंतर्निहित विश्वास प्रणालियों का मूल्यांकन नहीं किया है। भारत में, निदान में देरी कैंसर मृत्यु दर की उच्च दर में एक प्रमुख योगदान कर्ता है। नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन के एक हालिया अध्ययन में पाया गया कि कैंसर रोगी अपने बीमारी के संकेतों और लक्षणों के बारे में दोस्तों या परिवार के सदस्यों से सलाह लेने से पहले औसतन 271 दिन इंतजार करते हैं। कैंसर के स्क्रीनिंग के मामले में स्मिता बताती है, “शायद मुझे वैजिनिज़्मस की भी शिकायत थी, जिसका निदान तो नहीं हुआ है। लेकिन इस वजह से भी स्क्रीनिंग की प्रक्रिया से मुझे झिझक और परेशानी हो रही है।”

दिल्ली के कैंसर रोगियों और उनके परिवारजन पर किए गए एक अध्ययन के अनुसार कैंसर सर्वाइवर ने निदान से पहले और बाद में कैंसर के बारे में अपनी जागरूकता और धारणाओं में एक महत्वपूर्ण बदलाव पाया। निदान से पहले, वे कैंसर का मतलब ‘मौत’ मानते और एक तरह से ‘जीवन का अंत’ मानते थे। प्रतिभागियों के अनुसार यह आखिरी चीज़ थी जिसकी उन्होंने कल्पना की थी कि उनके साथ ऐसा हो सकता है। अध्ययन में उन्होंने कहा कि उन्होंने कैंसर के बारे में कभी नहीं सोचा था। वह आखिरी चीज़ थी जो उनके दिमाग में आई। सभी कैंसर सर्वाइवर ने उल्लेख किया कि वे अपने बच्चों के भविष्य और परिवार की भलाई के लिए चिंतित, आशंकित थे। वे आत्म-जागरूक, शर्मिंदा, असहज, परेशान, डरे हुए भावनाओं से गुज़रे। उन्होंने माना कि निदान को स्वीकार करने और खुद को मानसिक रूप से तैयार करने से पहले वे कुछ समय के लिए सदमे की स्थिति में थे।

“मैंने अब तक बहुत स्वस्थ जीवन जिया है। कभी कोई परेशानी नहीं रही। हालांकि इलाज चल रहा है, पर लाभ होगा ही इसके लिए मैं प्रार्थना नहीं करती, न ही पूरी तरह से ऐसी उम्मीद करती हूँ।”

टीकाकरण से सर्वाइकल कैंसर को रोका जा सकता है

भारत में, सर्वाइकल कैंसर 1,23,907 नए मामलों के साथ महिलाओं में दूसरा सबसे आम कैंसर है। 2020 के दौरान 77,348 अनुमानित मौतों के साथ महिलाओं में कैंसर से होने वाली मौतों का दूसरा प्रमुख कारण है। उसी वर्ष, भारत में 21 फीसद नए मामले सामने आए। सर्वाइकल कैंसर और दुनिया में 23 फीसद मौतें सर्वाइकल कैंसर के कारण होती हैं। कैंसर एक रोग है और यह किसी भी क्षेत्र के लोगों को हो सकता है। यह कोई ग्रामीण या शहरी बीमारी नहीं। जब सर्वाइकल कैंसर का प्रारंभिक चरण में पता लगाया जाता है और उसका प्रबंधन किया जाता है, तो इसके ठीक होने की दर 93 प्रतिशत से अधिक पाई जाती है। यह ध्यान देने वाली बात है कि विभिन्न सर्वाइकल कैंसर स्क्रीनिंग विधियों की उपलब्धता के साथ-साथ भारत में बीमारी के बड़े बोझ के बावजूद, स्क्रीनिंग या टीकाकरण या दोनों द्वारा सर्वाइकल कैंसर की रोकथाम पर कोई सरकारी देशव्यापी सार्वजनिक स्वास्थ्य नीति नहीं है।

कैंसर से लड़ाई भले निजी लड़ाई दिखे, लेकिन यह एक सामूहिक लड़ाई है। यहां सरकार, परिवार और समुदाय की भी समान और महत्वपूर्ण भूमिका है। भले सरकार सर्वाइकल कैंसर के टीकाकरण की पहल कर रही है, लेकिन वैक्सीन तक पहुंच से पहले अभी हजारों लड़ाईयां बाकी हैं। जबतक ऐसे मुद्दों पर बातचीत एक टैबू है, तबतक महज वैक्सीन बनाने से उसतक पहुंच सुनिश्चित नहीं होती। साथ ही कैंसर को महामारी की तरह देखते हुए, हमें लिए न सिर्फ इलाज और निदान की जरूरत है, बल्कि इसके साथ जुड़े सांस्कृतिक, सामाजिक और सामुदायिक समस्याओं और रूढ़ियों के लिए पहल की जरूरत है।  

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content