इतिहास बीजिंग विश्व महिला सम्मेलनः तीस साल की विरासत और भविष्य की तैयारी 

बीजिंग विश्व महिला सम्मेलनः तीस साल की विरासत और भविष्य की तैयारी 

एनडब्ल्यूओ को एक संगठन के रूप में रजिस्ट्रर्ड किया गया। एनडब्ल्यूओ, अखिल भारतीय स्तर का पहला ऐसा महिला संगठन बना जिसने लंबे समय से भारतीय नारीवादी आंदोलन में प्रभाव रखने वाले अभिजात वर्ग की नारीवादियों और दिल्ली-केंद्रित संगठनों के प्रभुत्व को बदल दिया।

साल 1995 में बीजिंग में आयोजित चौथा विश्व महिला सम्मेलन केवल एक सम्मेलन नहीं था बल्कि एक क्रांति थी। जिसने यह स्पष्ट किया था कि महिलाओं के अधिकार भी मानवाधिकार है। तीस साल बाद भी उस रैली की गूंज लगातार सुनाई देती है, जो न केवल चिंतन की मांग कर रही है बल्कि सामूहिक रूप से हमारे भविष्य को बदलने के लिए नए सिरे से कार्रवाई की मांग भी करती है। साल 2025 ग्लोबल लैंगिक न्याय के संघर्ष में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है जब हम इस ऐतिहासिक घटना की 30वीं सालगिरह मना रहे होंगे। बीजिंग डिक्लरेशन एंड प्लेटफॉर्म फॉर एक्शन का मंच दुनिया भर की महिलाओं के मजबूत संकल्प से बना है जो पितृसत्ता और उत्पीड़न के ढांचों को खत्म करने के लिए प्रतिबद्धता का प्रतीक है।

बीजिंग डिक्लरेशन एंड प्लेटफॉर्म फॉर एक्शन की 12 महत्वपूर्ण चिंताओं/मुद्दों ने लैंगिक समानता के लिए ऐसा एंजेडा तय किया है जो आज भी नीतियों, आंदोलनों और वकालत को आकार दे रहा है। हम सम्मेलन की 30वीं सालगिरह की दहलीज पर खड़े हैं। हमें यह स्वीकार करना होगा कि बीजिंग यात्रा केवल एक मील का पत्थर नहीं है बल्कि संघर्षों और अथक प्रक्रियाओं का एक जटिल और समद्ध इतिहास है। जमीनी स्तर से उभरे नेताओं के रूप में यह क्षण हमारे लिए एक महत्वपूर्ण याद दिलाता है कि यह कैसे शुरू हुआ था। 

बीजिंग घोषणापत्र और प्लेटफॉर्म फॉर एक्शन ने निश्चत रूप से लैंगिक न्याय के परिदृश्य को आकार देते हुए विधायी प्रगति, नीतिगत सुधारों को बढ़ावा देते हुए जमीनी स्तर पर नारीवादी सक्रियता को संगठित किया है।

बीजिंग की राह बनाना

चौथा विश्व महिला सम्मेलन, महिलाओं के अधिकारों में वैश्विक विकास की परिणति को दिखाता है, जिसकी शुरुआत संयुक्त राष्ट्र के अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष (1975) और महिलाओं के दशक (1976-85) से हुई थी। साल 1979 में कन्वेंशन ऑन द एलीमिनेशन ऑफ ऑल फॉर्म ऑफ डिसक्रिमिएशन अगेस्ट वीमेन (CEDAW) को अपनाया गया, जिसने लैंगिक समानता को लागू करने के लिए वैश्विक मानक निर्धारित किए। वहीं, संयुक्त राष्ट्र के महिला सम्मेलन जैसे मैक्सिको सिटी (1975), कोपेनहेगन (1980) और नैरोबी (1985) में नारीवादी एजेंडा को आगे बढ़ाया गया। नैरोबी सम्मेलन में ‘फॉरवर्ड-लुकिंग स्ट्रैटेजीज’ को प्रस्तुत किया गया जिसका उद्देश्य लैंगिक समानता के लिए संरचनात्मक बाधाओं का खत्म करना था। वियना सम्मेलन (1993), महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा उन्मूलन की घोषणा और जनसंख्या सम्मेलन (1994) जैसे सम्मेलनों ने लैंगिक समानता के लिए एक व्यापक ढांचे की मांग को और मजबूत किया, जिसे 1995 में बीजिंग में आगे बढ़ाया गया। 

संयुक्त राष्ट्र का मुख्य आधिकारिक सम्मेलन, तस्वीर साभारः वीमंस वॉयस, बेंगलुरू

दशकों की वैश्विक नारीवादी लामबंदी के बावजूद अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की ओर से विशेषाधिकार प्राप्त नारीवादी कार्यकर्ता और विद्वानों का वर्चस्व रहा है। उन्होंने रणनीतिक रूप में खुद को आंदोलन की आवाज़ के तौर पर रखा। अभिजात वर्ग के लोगों के इस कब्जे ने हाशिये के समुदाय की महिलाओं की वास्तविकता को पीछे रखने का काम किया, जिससे वैश्विक नारीवादी विमर्श के भीतर संरचनात्मक बहिष्कार और गहरा हुआ। 1995 का बीजिंग सम्मेलन, ग्रासरूट नारीवादियों और महिला नेतृत्व वाले समुदायिक समूह के लिए एक निर्णायक मोड़ साबित हुआ। इस ऐतिहासिक क्षण में, वे भारत में नारीवादी आंदोलन के भविष्य को आकार देने में अपनी सही जगह हासिल करने और अभिजात वर्ग के द्वारा आंदोलन को हथियाने के ख़िलाफ़ खड़े हुए। 

भारत में बीजिंग सम्मेलन से पहले की प्रक्रिया

1995 में बीजिंग सम्मेलन को राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर बहुत सावधानी और बारीकी के साथ की गई कठोर प्रक्रिया के साथ तैयार किया गया। भारत में, रॉयल डेनिश एंबेसी ने भारत सरकार के सहयोग से महिलाओं की भागीदारी का समर्थन करने के लिए एक डोनर के तौर पर पहल का नेतृत्व किया। इन प्रयासों के समन्वय के लिए 1933 में बीजिंग के लिए इंटर-एजेंसी फैसिलिटेटिंग कमेटी (आईएफसीबी) का गठन किया गया। इस कमेटी ने बहुपक्षीय और द्विपक्षीय संगठनों, एनजीओ और डोनर्स के एक अभूतपूर्व गठबंधन को साथ लाने का काम किया। आईएफसीबी ने एक परिवर्तनकारी भूमिका निभाई, दानदाताओं (डोनर्स) के महिलाओं के मानवाधिकारों को आगे बढ़ाने पर फोकस के साथ जोड़ते हुए एक नई जमीन तैयार की। 

करुणा अनबरसन डेविड के नेतृत्व में एनजीओ और महिला समूहों के साथ कई परामर्शों के माध्यम से कोर्डिनेट यूनिट (सीयू) और नैशनल एनजीओ एडवाइजरी कमेटी की भूमिका उभरी। दिसंबर 1993 में सीयू का गठन किया गया, इसके बाद जुलाई 1994 में बेंगलुरु में इसकी स्थापना हुई। सीयू ने एक सुविधा प्रदान कराने वाली संस्था (फेसिलेटिंग बॉडी), एक संपर्क और नेटवर्किंग केंद्र के रूप में काम किया। सीयू ने जमीनी स्तर पर महिलाओं के मुद्दों को व्यापक राष्ट्रीय और वैश्विक नारीवादी मंचों से जोड़ने का काम किया। 

हिवोस इंडिया रीजनल ऑफिस की पूर्व डिप्टी डायरेक्टर शोभना रघुराजन और रूथ मनोरमा ने दक्षिण भारत में प्रक्रियाओं को सुगम बनाने के लिए बेंगलुरु में एक और कोर्डिनेट यूनिट (सीयू) की स्थापना की। सीता अनागोल समन्वयक (कोर्डिनेटर) थीं।

सुनीता धर, सीयू की कोर्डिनेटर थींं, उसके साथ विषय विशेषज्ञों की एक टीम थी। इस टीम में आशा रमेश (राजनीतिक भागीदारी), मधु मेहरा (महिला अधिकार), सुमिता घोष (अर्थव्यवस्था और आजीविका), प्रीति ओझा (स्वास्थ्य), सी.पी. जयालक्ष्मी (मीडिया/दस्तावेजीकरण/सूचना) थीं जिसमें दिल्ली के अन्य साहयक कर्मचारियों के साथ-साथ अकाउंट और एडमिन के लिए रीना क्षेत्रपाल का सहयोग था। इस प्रतिबद्ध टीम ने अग्रणी काम किया और बीजिंग प्रक्रिया (प्रोसेस) में महत्वपूर्ण योगदान दिया। 

चौथे विश्व महिला सम्मेलन का उद्धाटन समारोह का दृश्य, तस्वीर साभारः वीमंस वॉयस, बेंगलुरू

इसके तुरंत बाद नैशनल एनजीओ एडवाइयजरी कमेटी का गठन किया गया। सीयू को रणनीतिक दिशा और समर्थन देने अलावा इसके सदस्य सीयू के परामर्शों की योजना बनाने में भी भाग लेते थे। साथ ही अलग-अलग मुद्दों और क्षेत्रों के प्रमुख बिंदुओं पर काम करते हैं। इसके सलाहकारों में डॉ. इलिना सेन (मध्य प्रदेश महिला मंच), जरजुम एटे (एपीडब्ल्यूडब्ल्यूएस, अरूणाचल प्रदेश), मार्था ग्लैडस्टोन (आईडब्ल्यूआईडी, तमिलनाडु), नीलम गौरे (स्त्री अधिकार केंद्र महाराष्ट्र), डॉ. प्रेम राजपूत (सेंटर फॉर वीमेन स्टडीज, चंडीगढ़), प्रमिला स्वैन (एफएआरआर, ओडिशा), डॉ. रूथ मनोरमा (वीमेन वॉयस, कर्नाटक) शेबा जॉर्ज (संचेतना, गुजरात) और वसंत कन्नाबिरन (अस्मिता, आंध्र प्रदेश) शामिल थीं। सलाहकार समिति के सदस्यों ने अभिजात वर्ग के नेतृत्व से अलग नारीवादी आंदोलन का एक नया चेहरा पेश किया जो जमीनी स्तर की सक्रियता पर आधारित था। इसमें हाशिये के समुदायों की आवाज़ें भी शामिल थीं। वे सभी उन मुद्दों की नेटवर्किंग ताकत को साथ लेकर आए जिनके इर्द-गिर्द वे काम कर रहे थे।

हिवोस इंडिया रीजनल ऑफिस की पूर्व डिप्टी डायरेक्टर शोभना रघुराजन और रूथ मनोरमा ने दक्षिण भारत में प्रक्रियाओं को सुगम बनाने के लिए बेंगलुरु में एक और कोर्डिनेट यूनिट (सीयू) की स्थापना की। सीता अनागोल समन्वयक (कोर्डिनेटर) थीं। सिंथिया स्टीफन, संचार अधिकारी (कम्यूनिकेशन ऑफिसर) थीं और साथ ही साहयक कर्मचारी भी थे। बेंगलुरु में सीयू के लिए टास्क फोर्स के सदस्यों में मर्सी कप्पन (विस्तार, कर्नाटक) और  दक्षिण भारत से एनजीओ एडवाइजरी कमेटी के सदस्य शामिल थे। राघुराम ने प्रक्रिया और सहयोग को समर्थन देने के लिए बेंगलुरु स्थित विभिन्न दाता संगठनों (डोनर ऑर्गनाइजेशन) का एक डोनर एजेंसी नेटवर्क (डीएएन) भी स्थापित किया।   

भारत में व्यापक परामर्श प्रक्रिया

सीयू से सुनीता धर और वीमंस वॉयस और एनएफडीडब्ल्यू के सहयोगियों के साथ रूथ मनोरमा। तस्वीर साभारः वीमंस वॉयस, बेंगलुरू

सीयू ने अपनी एनजीओ सलाहकार समिति और तत्कालीन यूनीफेम दक्षिण एशिया कार्यालय (अब यूएन महिला) के साथ मिलकर देश भर में कई परामर्श प्रक्रियाओं का नेतृत्व किया। इस पहल ने एक विकेंद्रीकृत और समावेशी आंदोलन को बढ़ावा दिया, जिसके परिणामस्वरूण जमीनी स्तर पर काम करने वाली महिला कार्यकर्ताओं और महिला नेतृत्व वाले सामुदायिक संगठनों की असाधरण लामबंदी हुई। दो वर्षों के दौरान महिलाओं के जीवन को प्रभावित करने वाले महत्वपूर्ण मुद्दों को संबोधित करते हुए राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर सैकड़ों परामर्श और कार्यशालाएं आयोजित की गईं। इस जुड़ाव ने भारत में लैंगिक समानता के एजेंडे को आकार देने और सामूहिक आवाज़ों के लिए एक मजबूत मंच तैयार किया।

जमीनी स्तर पर परामर्श परिवर्तनकारी थे, जिसमें हाशिये के समुदायों की महिलाओं की आवाज़, एजेंसी और नेतृत्व को बढ़ावा देना, विकलांग महिलाएं, एचआईवी/एड्स सर्वाइवर महिलाएं, अकेली महिलाएं शामिल थीं। इसके अलावा ऐतिहासिक रूप से उपेक्षित भौगोलिक क्षेत्रों यानी पूर्वोत्तर, कश्मीर, केरल आदि को भी शामिल किया गया। बीजिंग प्लेटफ़ार्म फॉर एक्शन के 12 महत्वपूर्ण मुद्दों/चिंताओं को संबोधित करके महिलाओं और गरीबी, शिक्षा, स्वास्थ्य और महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा से लेकर, महिलाओं के नेतृत्व, मीडिया, पर्यावरण, बालिकाओं के अधिकार पर बात हुई। इन परामर्शों ने महिलाओं और लड़कियों को अपने अनुभव और समाधान अपनी शर्तों में जाहिर करने का सशक्त मंच दिया। 

इस लामबंदी ने गठबंधनों को मजबूत किया, नेटवर्क बनाए और हाशिये पर रहने वाली महिलाओं को बीजिंग प्रक्रिया (प्रोसेस) के प्रमुख प्रेरक तत्व के रूप में स्थापित किया। ये स्थानीय प्रक्रियाएं दक्षिण एशिया, एशिया-प्रशांत स्तर और उससे आगे के प्रक्रियाओं से भी जुड़ी थीं, जिसने राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर महिलाओं के अधिकारों और लैंगिक समानता की दिशा को आकार दिया।

प्रतिबद्धता सम्मेलन

महिलाओं की इस अभूतपूर्व जमीनी स्तर की लामबंदी का परिणाम एक दस्तावेज़ के विकास के रूप मे हुआ। इसमें बीजिंग की चिंता/मुद्दों के महत्वपूर्ण 12 क्षेत्रों को संबोधित किया गया। इन विषयों पर राष्ट्रीय नीतिगत बातचीत को प्रभावित करने के लिए भारत सरकार के साथ विस्तार से चर्चा की गई। इसके बाद यह दस्तावेज तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव को सौंपा गया। बीजिंग से पहले की यात्रा का एक महत्वपूर्ण पड़ाव 9 अगस्त 1995 को नई दिल्ली में एनजीओ सलाहकार समिति के सदस्यों द्वारा आयोजित ‘प्रतिबद्धता सम्मेलन’ था। महिला एवं बाल विकास विभाग (डब्ल्यूसीडी) ने इस पहल का समर्थन किया। इस सम्मेलन में देश भर से 1,500 से अधिक महिला प्रतिनिधियों ने नई दिल्ली में भाग लिया। इस कदम ने भारत के जमीनी स्तर के महिला आंदोलन की सामूहिक आवाज़ और ताकत को प्रदर्शित किया। 

1933 में बीजिंग के लिए इंटर-एजेंसी फैसिलिटेटिंग कमेटी (आईएफसीबी) का गठन किया गया जिसने बहुपक्षीय और द्विपक्षीय संगठनों, एनजीओ और डोनर्स के एक अभूतपूर्व गठबंधन को साथ लाने का काम किया।

इस सभा में, तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री माधवराज जे. सिंधिया जिनेक अंतर्गत महिला और बाल विकास विभाग (डब्ल्यूसीडी) भी आता था, ने केंद्र सरकार की ओर से सार्वजनिक घोषणा की। भारत सरकार ने महिलाओं के समूहों और कार्यकर्ताओं की सामूहिक मांगों के जवाब में महत्वपूर्ण प्रतिबद्धताएं जाहिर की। इन्हीं प्रतिबद्धताओं को सरकार ने आधिकारिक बीजिंग सम्मेलन में दोहराया। तत्कालीन महिला एवं बाल विकास विभाग में कार्यरत डॉ. सरला गोपालन और एस.के. गुहा ने बीजिंग प्रक्रिया के दौरान प्रतिबद्ध समर्थन की पेशकश की। वे सरकार के लैंगिक समानता से जुड़े प्रयासों को मुख्यधारा में लाने में सबसे आगे थे।  

इस सम्मेलन ने राष्ट्रीय महिला गठबंधन (एनडब्ल्यूओ), राष्ट्रीय दलित महिला संघ (एनएफडीडब्ल्यू), उत्तर पूर्व नेटवर्क (एनईएन) जैसे कई अन्य महत्वपूर्ण जमीनी नेटवर्क के गठन को भी गति दी। इससे देश भर में हाशिये की महिलाओं के आंदोलन की सामूहिक ताकत को मजबूत किया। बढ़ती एकजुटता ने बीजिंग सम्मेलन में विविध दृष्टिकोण के प्रतिनिधित्व के लिए एक मजबूत आधार तैयार करने में मदद की।

सिंतबर 1995 में जब बीजिंग सम्मेलन के लिए महिलाएं तैयार हो रही थीं तब वे सीयू, आईएफसीबी और एनजीओ सलाहकार समिति के द्वारा एक पारदर्शी चयन प्रक्रिया से गुज़रीं। इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप देश भर में 300 महिलाओं का चयन हुआ जो हाशिये के समूह और क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करती थीं। यह प्रतिनिधिमंडल अभूतपूर्व था। इससे पहले और उसके बाद कभी भी वैश्विक सम्मेलनों में भारतीय महिलाओं का इतना बड़ा, समावेशी और जमीनी स्तर पर नेतृत्व वाला प्रतिनिधित्व नहीं देखा गया। 

चीन के हुआरो में एनजीओ फोरम में वीमंस वॉयस और उसके सहयोगियों द्वारा आयोजित कार्यक्रम। तस्वीर साभारः वीमंस वॉयस, बेंगलुरु

महिलाओं पर चौथा विश्व सम्मेलन बीजिंग, 1995

4-15 सिंतबर 1995 को बीजिंग मे आयोजित चौथे विश्व महिला सम्मेलन में आधाकारिक अंतर-सरकारी बैठकों में 17,000 प्रतिभागियों ने हिस्सा लिया था। इसमें 6,000 सरकारी प्रतिनिधि, 4,000 से अधिक मान्यता प्राप्त गैर सरकारी संगठन प्रतिनिधि, अंतरराष्ट्रीय सिविल सेवक और 4,000 मीडिया प्रतिनिधि शामिल थे। इस बीच, बीजिंग के बाहर एक कस्बे हुयरो में समान रूप से महत्वपूर्ण एक एनजीओ फोरम का आयोजन किया गया। फोरम में दुनिया भर के 30,000 जमीनी कार्यकर्ता, एनजीओ और नारीवादी शामिल हुए। यह एक शक्तिशाली मंच बन गया, जहां विशेषतौर पर ग्लोबल साउथ से आने वाली हाशिये पर पड़ी महिलाओं ने अपने अधिकारों का मजबूती से दावा किया। इस फोरम ने श्वेत और अभिजात वर्ग की नारीवादियों का प्रभुत्व तोड़ दिया। वैश्विक नारीवादी नेटवर्किंग, एकजुटता और वकालत के लिए एक विकेंद्रीकृत स्थान का निर्माण किया।

बीजिंग सम्मेलन द्वारा निर्मित तालमेल और उत्साह कई पैमानों पर बेजोड़ रहा। इस सम्मेलन का समापन बीजिंग घोषणा पत्र और कार्रवाई के लिए मंच को अपनाने के साथ हुआ, जिस पर 189 सरकारों ने हस्ताक्षर किए। यह लैंगिक समानता को आगे बढ़ाने के लिए सबसे व्यापक वैश्विक ढांचा बना हुआ है। 

जमीनी और विविध नारीवादी नेतृत्व का उदय

बीजिंग सम्मेलन के बाद, एनजीओ सलाहकार समिति के सदस्य एक साथ आए और उन्होंने मिलकर नैशनल अलायंस ऑफ वीमेन (एनएडब्ल्यूओ) का गठन किया। एनएडब्ल्यूओ को एक संगठन के रूप में रजिस्ट्रर्ड किया गया। एनएडब्ल्यूओ अखिल भारतीय स्तर का पहला ऐसा महिला संगठन बना जिसने लंबे समय से भारतीय नारीवादी आंदोलन में प्रभाव रखने वाले अभिजात वर्ग की नारीवादियों और दिल्ली-केंद्रित संगठनों के प्रभुत्व को बदल दिया। इस वर्ग ने लंबे समय से भारतीय नारीवादी आंदोलन के भीतर प्रमुख जगहों पर अपना एकाधिकार बना कर रखा हुआ था।

पहली बार राष्ट्रीय नारीवादी नेटवर्क के नेतृत्व मुख्य रूप से हाशिये के समुदायों की महिलाओं ने किया। रूथ मनोरमा पहली दलित महिला अध्यक्ष बनीं और पूर्वोत्तर की आदिवासी महिला जारजुम एटे पहली महासचिव थीं। एनएडब्ल्यूओ ने समतावादी दृष्टिकोण अपनाते हुए नेतृत्व का 90 फीसदी हिस्सा पिछड़े और हाशिये के समुदायों की महिलाओं से बना था। उस समय यह न केवल एक प्रतीकात्मक बदलाव था, बल्कि एक क्रांतिकारी बदलाव भी था। यह पहली बार था जब दिल्ली से बाहर, ऐतिहासिक रूप से हाशिये के क्षेत्रों और समुदाय की महिलाएं राष्ट्रीय नारीवादी प्रक्रिया का नेतृत्व कर रही थीं।

चौथे विश्व महिला सम्मेलन की ओपनिंग सैरेमनी का एक दृश्य। तस्वीर साभारः वीमंस वॉयस, बेंगलुरु

चौथे विश्व महिला सम्मेलन के बाद एनएडब्ल्यूओ ने भारत में बीजिंग+5 से बीजिंग+20 तक हर प्रत्येक पोस्ट-बीजिंग प्रोसेस का संचालन और नेतृत्व किया। एनएडब्ल्यूओ ने यूएन वीमेन और सीएसओ स्टीयरिंग कमेटी के साथ मिलकर  बीजिंग+ प्रोसेस के लिए भी सहयोग दिया। एनएडब्ल्यूओ ने अपने सभी पदानुक्रमों में दलित, आदिवासी, मुस्लिम, मजदूर वर्ग की महिलाओं और अन्य हाशिये के महिलाओं की आवाज़ और संघर्षों को प्राथमिकता दी।

बीजिंग प्रोसेस की असली ताकत यह है कि इसका नेतृत्व जमीनी स्तर पर काम करने वाली महिलाओं ने किया था। उन लोगों के विपरीत जो अपने हितों के लिए आंदोलन में कभी-कभार सुविधा के अनुसार शामिल होते रहे हैं। एनएडब्ल्यूओ के सदस्य लगातार 30 वर्षों से जमीनी स्तर पर काम कर रहे हैं। भले ही एनएडब्ल्यूओ के पास अभिजात नारीवादी संगठनों के समान दान देने वाली एजेंसियां और फंड्स में ऊंचे स्थान पर बैठे सहयोगी नहीं हैं लेकिन जाति और वर्ग विशेषाधिकार प्राप्त स्थिति द्वारा आकार दी गई सामाजिक पूंजी है।

एनएडब्ल्यूओ के सदस्य, ग्रासरूट संगठनों में मामूली वेतन पर काम कर रहे हैं और अधिकतर स्वैछिक आधार पर काम करते हैं। पर्याप्त संसाधनों तक पहुंच के बिना एनएडब्ल्यूओ और अन्य जमीनी संगठनों को अपने महत्वपूर्ण काम को जारी रखने के लिए कठिन संघर्ष का सामना करना पड़ता है। हालांकि संघर्ष जारी है, क्योंकि हम जब तक यह नेक लड़ाई जारी रखेंगे तब तक हम एक ऐसी दुनिया में खड़े नहीं हो जाते जहां हर महिला और लड़की, चाहे वह किसी भी जाति, धर्म, नस्ल, लैंगिकता, वर्ग या पृष्ठभूमि से हो अपनी पूरी मानवीय क्षमता के साथ जी सके।

यह हमारी कहानी है। यह उन ग्रासरूट स्तर की महिलाओं की कहानी है जिनके अस्तित्व और सम्मान के लिए लड़ाई जितनी व्यक्तिगत रही है, उतनी ही राजनीतिक भी रही है। यह उस नारीवादी आंदोलन की कहानी है जिससे अगर परिवर्तनकारी होना है तो उसे सबसे पहले सबसे निचले पायदान पर खड़े लोगों के प्रति जवाबदेह रहना होगा। अब हमें पहले से कहीं अधिक बीजिंग में शुरू हुई क्रांति का सामना करना होगा। हमें लगातार दबा रही सत्ता, विशेषाधिकार और पितृसत्ता की व्यवस्था को खत्म करने के लिए अपनी प्रतिबद्धता को फिर से मजबूत करना चाहिए। 

एक बदलावाकारी भविष्य की कल्पना 

एनजीओ फोरम में वीमंस वॉयस और उसके सहयोगियों द्वारा आयोजित कार्यक्रम। तस्वीर साभारः वीमंस वॉयस, बेंगलुरु

बीजिंग घोषणापत्र और प्लेटफॉर्म फॉर एक्शन ने निश्चत रूप से लैंगिक न्याय के परिदृश्य को आकार देते हुए विधायी प्रगति, नीतिगत सुधारों को बढ़ावा देते हुए जमीनी स्तर पर नारीवादी सक्रियता को संगठित किया है। फिर भी, प्रगतिशील कानूनों और उनके कार्यान्वयन के बीच खाई बनी हुई है, जबकि दुनिया बहुत सारे संकटों जैसे हिंसक संघर्षों, जलवायु आपदाओं और गहरी होती असमानताओं का सामना कर रही है जो दशकों से नारीवादी लाभों को खत्म करने की धमकी देती है। 

जैसे-जैसे हम बीजिंग डिक्लरेशन एंड प्लेटफॉर्म फॉर एक्शन की 30वीं सालगिरह के करीब पहुंच रहे हैं, यह पल चिंतन से कही ज्यादा की मांग कर रहा है। 1995 का बीजिंग सम्मेलन अपने आप में एक अंत नहीं था, बल्कि लैंगिक समानता की दिशा में एक बड़ी छलांग थी। अब हम एक और चौराहे पर हैं, जहां दीर्घकालिक, प्रणालीगत बदलाव पर केंद्रित रणनीति के साथ आगे बढ़ने की ज़रूरत है।  

युवा नारीवादी, विशेष रूप से वैश्विक दक्षिण से, संसाधनों को जुटाने और एकजुटता नेटवर्क बनाने के लिए नए तरीके विकसित कर रही हैं। वे चुनौतियों से निपटने के लिए कदम बढ़ा रही हैं। परिवर्तनकारी बदलाव लाने के लिए नारीवादी आंदोलनों को अंतर-पीढ़ीगत रणनीतियों को अपनाना होगा जिसमें पुरानी नारीवादियों की अनुभव को नारीवादियों के नवाचार और गतिशीलता के साथ जोड़ना होगा। 

यह केवल अंतर-पीढ़ी संवादों के बारे में नहीं है। यह उन सुधारवादी गठबंधनों को बनाने के बारे में है जो उत्पीड़न की गहरी जड़ जमाए हुए सिस्टम को ध्वस्त कर सकते हैं। युवा नारीवादियों का नेतृत्व विशेष तौर पर ऐतिहासिक रूप से हाशिये के समुदायों से आने वाले लोगों को आगे होना चाहिए। यह ठीक उसी तरह होना चाहिए जैसे बीजिंग प्रोसेस के दौरान था। साथ ही यह भी सुनिश्चित करना होगा कि आंदोलन न केवल समावेशी हो, बल्कि गहन रूप से इंटरसेक्शनल भी हो।

साथ ही हमें यह जानना भी ज़रूरी है कि अब हमारे पास अलग-अलग काम करने का विशेषाधिकार नहीं हैं। हम जिन चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, वे आपस में जुड़े हैं। इन जटिल मुद्दों के समाधान निकालने के लिए, हमें सुधारवादी गठबंधन बनाने होंगे जो विविध आवाज़ों और विशेषज्ञता को साथ लाएं। अलग-अलग क्षेत्रों और आंदोलनों में काम करके हम अपने प्रभाव को बढ़ा सकते हैं, संधाधनों को साझा कर सकते हैं और प्रणालीगत बदलाव को आगे बढ़ाने के लिए मजबूत गठबंधन ला सकते हैं।

एनएडब्ल्यूओ के सदस्य लगातार 30 वर्षों से जमीनी स्तर पर काम कर रहे हैं। भले ही एनएडब्ल्यूओ के पास अभिजात नारीवादी संगठनों के समान दान देने वाली एजेंसियां और फंड्स में ऊंचे स्थान पर बैठे सहयोगी नहीं हैं लेकिन जाति और वर्ग विशेषाधिकार प्राप्त स्थिति द्वारा आकार दी गई समाजिक पूंजी है।

हम बीजिंग+30 की समीक्षा के लिए तैयार हैं। दुनियाभर की नारिवादियों विशेषतौर पर ग्लोबल साउथ से, दृढ़ संकल्प के साथ नेतृत्व करना चाहिए और हमारे समय की आवश्यकता के अनुसार तत्कालिक कार्रवाई की मांग करनी चाहिए। हालांकि सतत विकास लक्ष्य और पैक्ट फ़ॉर द फ़्यूचर जैसी वैश्विक पहल समानता के वादे को दोहराती हैं, यह कार्रवाई, इस एकजुट शक्ति के माध्यम से ही संचालित होगी जो वास्तविक और स्थायी प्रणालीगत परिवर्तन का रास्ता तैयार करेगी।


डॉ. रूथ मनोरमा और डॉ. पैम राजपूत, नैशनल अलायंस ऑफ वीमन (एनएडब्ल्यूओ) की सदस्य हैं। प्रियंका सामी एनएडब्ल्यूओ के सहयोगी संगठन नैशनल फेडरेशन ऑफ दलित वीमन (एनएफडीडब्ल्यू) की सदस्य हैं। 

नोटः यह लेख मूल रूप से अंग्रेजी में ‘द वायर’ पर प्रकाशित हुआ है। इस लेख का अनुवाद पूजा राठी ने किया है

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