भारत के संविधान में महिलाएं और पुरुष को बराबर रखा गया है इसलिए एक महिला के साथ महिला होने के कारण भेदभाव किया जाना असंवैधानिक है। हालांकि समाज की भेदभावपूर्ण शक्तियों के कारण एक लड़की को जीवन जीने के बाद ही नहीं बल्कि जन्म लेने से पहले भी हिंसा का सामना करना पड़ता है। लड़कियों के प्रति भेदभाव के कारण देश में कन्या भ्रूण हत्या की घटनाएं बड़े पैमाने पर होती है। इसे बढ़ाने में तकनीक ने भी मदद की है। एक तरफ विज्ञान और तकनीक की प्रगति हमारे जीवन को आसान कर रही है, ब्रह्मांड की गुत्थियों को सुलझाने का काम कर रही है दूसरी और तकनीक की मदद से कन्या भ्रूण हत्या तक की जा रही है।
भारत में लिंग निर्धारण परीक्षणों की लोकप्रियता की जड़ें समाज में व्याप्त गहरी बेटे की चाहत में है। धर्म, परंपरा और संस्कृति में बेटों को महत्व देने का चलन है। भारत में लड़कियों के प्रति भेदभाव का एक लंबा इतिहास है। लैंगिक असमानता आधारित रीति-नीति हमारे व्यवहार में स्थापित है। स्वास्थ्य, पोषण, शिक्षा, भोजन हर जगह लड़कियों-महिलाओं को असमानता का सामना करना पड़ता है। आज उन्नत तकनीकी युग में लिंग चयन के तरीकों से जन्म से पहेल ही कन्या भ्रूण हत्या के माध्यम से बाल लिंग अनुपात में भारी गिरावट आई है।
साल 1991 की जनगणना से चौकाने वाले आंकड़ें सामने आये जो बताते है कि देश में लड़कों की तुलना में लड़कियों की संख्या काफी कम थीं। कन्या शिशु लिंगानुपात पुरुष शिशु की तुलना में काफी कम था। शोध के नतीजे बताते है कि इक्कीसवीं सदी में भी, लड़कों को लड़कियों की तुलना में अधिक प्राथमिकता दी जाती है। 0 से 6 वर्ष की आयु के बीच, 2011 में प्रति 1000 लड़कों पर 919 लड़कियां थीं, जो 2001 में 927 और 1991 में 945 थीं। यह अनुपात 2021 में बढ़कर 1020 हो गया। इसके बावजूद कन्या भ्रूण हत्या के मामले सामने आते रहते हैं। साल 2022 में सबसे अधिक शिशुहत्या के मामलों वाला भारतीय राज्य महाराष्ट्र था, जिसमें 25 मामले थे। उस वर्ष मध्य प्रदेश राज्य में शिशुहत्या के 11 मामले सामने आए।
पीसीपीएनडीटी ऐक्ट क्या है?
भारतीय राज्यों में लिंग परीक्षण को अवैध बनाने के लिए एक व्यापक कानून की आवश्यकता थी क्योंकि तकनीकी प्रगति के परिणामस्वरूप भ्रूण के लिंग का निर्धारण करने की प्रथा ने सरकार को कानून स्थापित करने के लिए मजबूर किया था ताकि कन्या भ्रूण हत्या को प्रतिबंधित या विनियमित किया जा सके। भारत में घटते लिंग अनुपात की समस्या को हल करने के लिए संसद में साल 1994 में गर्भाधान और प्रसवपूर्व निदान तकनीक (PCPNDT) अधिनियम को लागू किया। इस अधिनियम का उद्देश्य लिंग आधारित भ्रूण हत्या को रोकना था। लिंग चयन का अर्थ है भ्रूण के लिंग की पहचान करना और अगर वह ‘अनचाहा’ (महिला) लिंग हो तो भ्रूण का अबॉर्शन कराना। जीने का अधिकार मानव अधिकारों का अभिन्न अंग है और किसी लड़की को इससे वंचित करना जघन्य उल्लंघनों में से एक है।
अधिनियम की प्रमुख विशेषताएं
● अधिनियम गर्भधारण से पहले या बाद में लिंग चयन पर रोक लगाने का प्रावधान करता है।
● यह अल्ट्रासाउंड और एमनियोसेंटेसिस जैसी प्रसव पूर्व निदान तकनीकों के उपयोग को नियंत्रित करता है, जिससे उन्हें केवल आनुवंशिक असामान्यताएं, चयापचय संबंधी विकार, गुणसूत्र असामान्यताएं, कुछ जन्मजात विकृतियां, हीमोग्लोबिनोपैथी और लिंग से जुड़े विकार आदि जैसी बीमारियों का पता लगाने के लिए उनके उपयोग की अनुमति मिलती है।
● कोई भी प्रयोगशाला, केंद्र या क्लिनिक भ्रूण के लिंग का निर्धारण करने के उद्देश्य से अल्ट्रासोनोग्राफी सहित कोई परीक्षण नहीं करेगा।
● कोई भी व्यक्ति, जिसमें कानून के अनुसार प्रक्रिया का संचालन करने वाला व्यक्ति भी शामिल है, गर्भवती महिला या उसके रिश्तेदारों को शब्दों, संकेतों या किसी अन्य तरीके से भ्रूण के लिंग के बारे में नहीं बताएगा।
● नोटिस, परिपत्र, लेबल, रैपर या किसी दस्तावेज़ के रूप में, इंटरनेट या अन्य मीडिया के माध्यम से इलेक्ट्रॉनिक-प्रिंट रूप में या किसी भी दृश्य प्रतिनिधित्व के माध्यम से प्रसव पूर्व और गर्भधारण पूर्व लिंग निर्धारण सुविधाओं के लिए विज्ञापन नहीं दिया जायेगा। ऐसे व्यक्ति, संस्थान या केंद्र के संचालक को तीन वर्ष तक की कैद हो सकती है और 10,000 रुपए का जुर्माना लगाया जा सकता है।
● यह प्रत्येक अपंजीकृत प्रयोगशाला या केंद्र या क्लिनिक के कामकाज पर रोक लगाता है।
● यह किसी भी अपंजीकृत स्थान पर प्रयोगशाला या केंद्र या क्लिनिक के कामकाज पर रोक लगाता है।
● यह किसी भी अपंजीकृत और अयोग्य चिकित्सा व्यवसायी या उसके सहायकों के रोजगार पर प्रतिबंध लगाता है।
● यह किसी भी अपंजीकृत प्रयोगशाला या केंद्र या क्लिनिक को अल्ट्रासाउंड मशीनों और अन्य उपकरणों की बिक्री पर रोक लगाता है।
● पीसी और पीएनडीटी अधिनियम सामाजिक विकार को संबोधित करने के लिए एक कानूनी आदेश है। ‘यह अन्य सामाजिक कानूनों से अलग है क्योंकि इसमें सामाजिक व्यवहार और अभ्यास में कोई बदलाव शामिल नहीं है बल्कि यह नैतिक चिकित्सा अभ्यास और चिकित्सा प्रौद्योगिकी के विनियमन की मांग करता है जिसमें मेडिकल चिकित्सकों द्वारा अपनी क्षमता का दुरुपयोग नहीं किया जाए।’
पीसीपीएनडीटी एक्ट की आवश्यकता
संपत्ति के अधिकार के संबंध में सांस्कृतिक मानदंडों और पितृसत्तात्मक उत्तराधिकार रेखा के कारण, हमेशा बेटी से ऊपर बेटे को प्राथमिकता दी गई है। महिलाओं के प्रति सामाजिक पूर्वाग्रह और लड़कों को प्राथमिकता देने के कारण कन्या भ्रूण हत्या को विभिन्न तरीकों से प्रोत्साहित किया गया है, जिसने देश के लिंग संतुलन को पुरुषों के पक्ष में स्थानांतरित कर दिया है। परिणामस्वरूप, परिवारों में तब तक बच्चे पैदा करने की प्रवृत्ति बनी रही जब तक कि लड़का पैदा न हो जाए, जिससे भारत की अधिक जनसंख्या की समस्या बढ़ गई। लोग बेटा पैदा करने की इच्छा में गर्भ में मौजूद बच्चे के लिंग की जांच अल्ट्रासाउंड तकनीक से पता करने लगे। 1990 के दशक तक यही मानक रहा था। अल्ट्रासाउंड तकनीक के विकास ने जन्मपूर्व लिंग निर्धारण को एक सामान्य प्रक्रिया बना दिया। इसके परिणामस्वरूप हजारों करोड़ के व्यवसाय में वृद्धि हुई जहां डॉक्टर शुल्क लेकर अबॉर्शन करते थे।
इस अधिनियम के तहत आने वाले अपराध निम्नलिखित हैं:
- लिंग चयन निषिद्ध है।
- अपंजीकृत स्वास्थ्य केंद्रों में प्रसवपूर्व निदान तकनीकों का उपयोग करना एक अपराध है।
- इस अधिनियम में निर्दिष्ट उद्देश्य के अतिरिक्त किसी अन्य उद्देश्य के लिये प्रसवपूर्व निदान तकनीक का इस्तेमाल करना अपराध है।
- इस अधिनियम के तहत किसी भी अल्ट्रासाउंड मशीन अथवा भ्रूण लिंग का पता लगाने में सक्षम किसी भी अन्य उपकरण की बिक्री, वितरण, आपूर्ति, किराए पर लेना आदि निषिद्ध है।
प्रसवपूर्व निदान प्रैक्टिस क्या हैं?
प्रसवपूर्व निदान प्रैक्टिस को पीसीपीएनडीटी अधिनियम, 1994 की धारा 2(i) के तहत परिभाषित किया गया है। यह सभी चिकित्सीय ऑपरेशनों को संदर्भित करता है, जिनमें अल्ट्रासोनोग्राफी, फोएटोस्कोपी, कोरियोनिक विली, एमनियोटिक द्रव के नमूने प्राप्त करना या निकालना, रक्त का नमूना, ऊतक का नमूना, किसी अन्य शारीरिक तरल पदार्थ को लेना और गर्भधारण से पहले या बाद में लिंग चयन के लिए किसी भी प्रसवपूर्व निदान के लिए आनुवंशिक प्रयोगशाला या आनुवंशिक क्लिनिक में भेजना आदि शामिल हैं।
प्रसवपूर्व निदान प्रक्रियाओं को धारा 2(के) में निम्नानुसार परिभाषित किया गया हैः यह क्रोमोसोमल असामान्यताएं, जन्मजात दोष, हीमोग्लोबिनोपैथी या सेक्स-संबंधी बीमारियों को देखने के लिए एक अल्ट्रासाउंड या गर्भवती महिला के रक्त, एमनियोटिक द्रव, कोरियोनिक विली, ऊतकों या तरल पदार्थ के किसी भी परीक्षण या अध्ययन को संदर्भित करता है। इन प्रक्रियाओं और परीक्षणों को एक साथ धारा 2(जे) में प्रसव पूर्व निदान विधियों के रूप में संदर्भित किया गया है।
पीसीपीएनडीटी एक्ट में संशोधन
लिंग चयन में उपयोग की जाने वाली तकनीक को बेहतर ढंग से नियंत्रित करने के लिए, प्री-नेटल डायग्नोस्टिक तकनीक (विनियमन और दुरुपयोग की रोकथाम) अधिनियम, 1994 (पीएनडीटी) को 2003 में प्री-कंसेप्शन और प्री-नेटल डायग्नोस्टिक तकनीक (लिंग चयन पर प्रतिबंध) में संशोधित किया गया था।
अधिनियम के संशोधन का प्राथमिक लक्ष्य गर्भधारण पूर्व लिंग चयन की प्रैक्टिस को शामिल करना था। 2003 के संशोधन में निम्नलिखित बातें जोड़ी गई हैं:
- इसके दायरे में अल्ट्रासोनोग्राफी को भी शामिल किया गया।
- राज्य स्तरीय पर्यवेक्षी बोर्ड का गठन एवं केन्द्रीय पर्यवेक्षी बोर्ड का सुदृढ़ीकरण किया गया।
- संशोधित अधिनियम में कठोर दंड का प्रावधान रखा गया।
- सक्षम अधिकारियों को उल्लंघनकर्ताओं की मशीनों और उपकरणों की खोज करने, जब्त करने और सील करने के लिए सिविल कोर्ट का उपयोग करने का अधिकार दिया गया।
- अधिकृत संगठनों को अल्ट्रासाउंड उपकरणों की सीमित बिक्री करने का प्रावधान रखा गया।
लैंगिक असमानता के व्यापक दृष्टिकोण में कन्या भ्रूण हत्या जैसे गंभीर अपराध को भी शामिल करना जरूरी है। महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार को खुलेआम समर्थन देना, हिंसा का प्रयोग, आर्थिक संभावनाओं को नकारना और अपने परिवार के पालन-पोषण जैसे निजी और महत्वपूर्ण विषय पर भी उनकी आवाज को पूरी तरह से खामोश कर देना, ये सभी हमारे समाज में गहरी पैठ बनाए हुए पितृसत्तात्मक रवैये को प्रकट करते हैं। ऐसी गतिविधियों और अपमानजनक प्रथाओं में चिकित्सा पेशे के सदस्यों की क्रूरता और लालच को इंडियन मेडिकल एसोसिएशन जैसे पेशेवर संगठनों द्वारा बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए।
पीएनडीटी अधिनियम को एक मौलिक परिवर्तन बनाने के लिए, कन्या भ्रूण और अजन्मी बेटियों को बचाने के लिए पर्याप्त शिक्षा, पैरवी, प्रचार और प्रतिबद्धता पर भी जोर दिया जाना चाहिए ताकि उनके जीवन के अधिकार को मान्यता दी जा सके और संरक्षित किया जा सके, यहां तक कि उन स्थितियों में भी जहां डॉक्टर सीधे तौर पर शामिल नहीं हैं । यदि उनके पास विशिष्ट जानकारी है, तो सक्षम अधिकारियों को ऐसे कृत्यों की रिपोर्ट करने में उनकी सतर्कता निश्चित रूप से मदद कर सकती है। लामबंदी और विरोध की एक विधि के रूप में एक रचनात्मक कानूनी सहभागिता योजना का निर्माण अंततः आवश्यक है।