संस्कृतिसिनेमा “मर्द को दर्द होता है”, आखिर बॉलीवुड को टॉक्सिक मैस्कुलिनिटी से छुटकारा कब मिलेगा!

“मर्द को दर्द होता है”, आखिर बॉलीवुड को टॉक्सिक मैस्कुलिनिटी से छुटकारा कब मिलेगा!

भारतीय सिनेमा में हमेशा से एक मजबूत आदमी के विचार को आगे रखा गया है। यहां मजबूती से मतलब गुस्से और पितृसत्ता के द्वारा तय की गई मर्दानगी है। आक्रोश और ताकत उसका प्रतीक है। हर दौर के सिनेमा में यह देखने को मिलता है। वर्तमान की बात करे तो बीते कुछ सालों में रिलीज हुई ‘कबीर सिंह’ और ‘एनिमल’ जैसी फिल्मों ने भारतीय सिनेमा में इस विषय पर बहुत चर्चा हुई है।

‘”मर्द को दर्द नहीं होता”, उसने तेरी खुदार्री को ललकारा है, क्या कर रहा है यार…मर्द बन मर्द, चूड़ियां पहन रखी है क्या? ये बॉलीवुड के वो डायलॉग है जिनके द्वारा मर्दानगी के बारे में बात की गई है। इस तरह के डायलॉग और टाइटल भारत की फिल्मों में हर दौर में चले आ रहे हैं और जो बार-बार दर्शकों के बीच बहुत लोकप्रिय भी होते हैं। फिल्मों में पर्दे पर दिखाई जाने वाली यह विषाक्त मर्दानगी ने बॉलीवुड या कोई भी क्षेत्रीय सिनेमा अपनी विरासत बना चुका है। इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि फिल्मों में हिट करने का एक फार्मूल बन गया है। टॉक्सिक मैस्कुलिनिटी को बढ़ावा देने वाली फिल्में करोड़ों की कमाई तक करती है। इन फिल्मों में महिलाओं के प्रति उत्पीड़न और हिंसा को सामान्य की तरह दिखाया जाता है। 

सिनेमा के माध्यम से समाज की अनेक संस्कृतियों, पहचानों और मुद्दों को विभिन्न तरीकों से बात की जाती है लेकिन कभी-कभी ये प्रस्तुतियां सवाल भी उठाती है। सिनेमा में टॉक्सिक मर्दानगी को बहुत उचित ठहराया जाता है। फ़िल्मों के ज़रिये दिखाई जाने वाली मर्दानगी पर बात करना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि फिल्में देखकर बड़े होते हमारे समाज में लोग फिल्मों और फिल्मी कलाकारों से प्रेरणा लेते हैं। फिल्में हमेशा हमारे दैनिक जीवन, समाजीकरण और सोच को प्रभावित करने की क्षमता रखती है। बॉलीवुड में मर्दानगी के स्वरूप समय के साथ बदला है लेकिन विषाक्त मर्दानगी यानी टॉक्सिक मैस्कुलिनिटी के विचार से मुक्ति कभी नहीं मिली है। शुरुआत से लेकर मौजूदा दौर तक फिल्मों के ज़रिये यह स्थापित करने का काम बखूबी किया गया है कि एक पुरुष को कैसा होना चाहिए। 1960 से लेकर 1990 के दशक के एंग्री यंग मैन के दौर ने बॉलीवुड की फिल्मों की गहरी छाप आज भी है। इस दौर में फिल्मों का हीरो की मर्दानगी को परिभाषित करते हुए खलनायकों से लड़ते हुए या अपनी माँ और हीरोइन को बचाते नज़र आते हैं। 

1970 के दशक में पर्दे पर मर्दानगी की एक परिभाषा अमिताभ बच्चन द्वारा निभाए गए किरदारों ने स्थापित की। जहां गंभीर, क्रोधित और निराश बच्चन ने उस समय के सुपरस्टार जो रोमांटिक और आकर्षक राजेश खन्ना या देव आनंद से बिल्कुल अलग थे। ‘एंग्री मैन’ की इस छवि ने मर्दानगी, स्टारडम की धारणाओं को सिनेमा में नए सिरे से आकार दिया।

अमिताभ बच्चन, धर्मेंद्र वो नाम है जो पर्दे पर मर्दानगी को स्थापित करने वाले चेहरे बने। ये अभिनेता अपने मशहूर डायलॉग के ज़रिये आक्रमकता के लिए प्रसिद्ध हुए। ये पर्दे पर हमेशा मर्द होने अपराधियों, गलत काम करने वालों और धोखेबाज़ों से लड़ने पर ही केंद्रित रहा। सिनेमा के उस दौर में मर्दानगी का विचार सख्त, दबंग और माचो होने के रूप में दिखाया गया। एंग्री यंग मैन हिंसक था, लेकिन रॉबिनहुड की तरह गरीबों का दोस्त और अमीरों का दुश्मन था। अमिताभ बच्चन की फ़िल्म जंजीर (1973) में एंग्री यंग मैन की छवि बनाई। 

एंग्री यंग मैन का दौर

तस्वीर साभारः India Today

1970 के दशक में पर्दे पर मर्दानगी की एक परिभाषा अमिताभ बच्चन द्वारा निभाए गए किरदारों ने स्थापित की। जहां गंभीर, क्रोधित और निराश बच्चन ने उस समय के सुपरस्टार जो रोमांटिक और आकर्षक राजेश खन्ना या देव आनंद से बिल्कुल अलग थे। ‘एंग्री मैन’ की इस छवि ने मर्दानगी, स्टारडम की धारणाओं को सिनेमा में नए सिरे से आकार दिया। इन फिल्मों की कामयाबी और आर्थिक फायदा को भी ध्यान में रखा गया। इसके बाद इस तरह की फिल्मों का एक सिलसिला बन गया। इस तरह की फ़िल्मों में अमिताभ बच्चन के हिस्से सबसे ज्यादा फिल्में आती है। उनकी फ़िल्मों ने उनकी इस छवि से उन्हें सुपरस्टार बना दिया। ‘शोले’, ‘दीवार’, ‘ज़मीर’, ‘त्रिशूल’, ‘डॉन’, ‘कुली’, ‘शाहंशाह’ और ‘अग्निपथ’ जैसी फिल्मों के जरिए भारतीय सिनेमा में यादगार अभिनय तो किया लेकिन ये किरदार मुख्य रूप से गुस्से से भरे थे। इनमें बदला लेना, गुस्सा जैसी भावनाओं पर ज्यादा जोर था और हिंसा हर समस्या का समाधान थ। अमिताभ बच्चन के अलावा इस कड़ी में बहुत सारे नाम आगे भी हैं। 

इसी तरह के किरदार आर्टहाउस सिनेमा में नसीरुद्दीन शाह और ओम पुरी को मिलें। दोनों को अपने समय का सर्वश्रेष्ठ माना गया और उन्होंने ‘अल्बर्ट पिंटो’ या गोविंद निहलानी की ‘आक्रोश’ (1980) के ‘भीकू लहाण्या’ जैसे किरदारों को निभााया। नसीरुद्दीन शाह को सईद अख्तर मिर्जा की फ़िल्म ‘अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है’ (1980) में व्यवस्था से हताश लेकिन अहिंसक युवक के रूप में दिखाया गया है। भारतीय फ़िल्मों में एक मजबूत और गुस्सैल आदमी के विचार को प्रधानता दी गई। उनके गुस्से को सिस्टम में बदलाव और अन्याय के ख़िलाफ़ दिखाया गया। गुस्से को न्याय के रूप में दिखाया जो कानून का उल्लंघन करता है तो भी तालियां की गड़गड़हट सुनाई पड़ती है। दीवार, अग्निपथ या फिर बाजीगर जहां गुस्से से भरे हीरो को पर्दे पर दिखाया गया। 

टॉक्सिक मर्दानी यानी सफलता की गारंटी

भारतीय सिनेमा में हमेशा से एक मजबूत आदमी के विचार को आगे रखा गया है। यहां मजबूती से मतलब गुस्से और पितृसत्ता के द्वारा तय की गई मर्दानगी है। आक्रोश और ताकत उसका प्रतीक है। हर दौर के सिनेमा में यह देखने को मिलता है। वर्तमान की बात करे तो बीते कुछ सालों में रिलीज हुई ‘कबीर सिंह’ और ‘एनिमल’ जैसी फिल्मों ने भारतीय सिनेमा में इस विषय पर बहुत चर्चा हुई है। हाल के वर्षों में पारंपरिक लैंगिक भूमिका के लिए पुरुषों की श्रेष्ठता को लगातार हाइपर मैस्कुलिनिटी वाले किरदार फिल्मों में रचे जा रहे हैं। सलमान खान की फ़िल्म ‘तेरे नाम’ और ‘टाइगर-3’ हो या ‘RRR’ में राम चरण और जूनियर एनटीआर के किरदार माचो और ताकतवर पुरुष की छवि वाले हैं। सुपरहिट फिल्मों में एक बड़ा नाम ‘पुष्पा’ में अल्लू अर्जुन का किरदार टॉक्सिक मर्दागनी वाला है। शाहरुख खान की दो हालिया फिल्में ‘पठान’ और ‘जवान’ में भी हाइपर मैस्कुलिनिटी को भुनाया गया है। इससे पहले ‘डर’ और ‘बाजीगर’ में टॉक्सिक मैस्कुलिनिटी वाले किरदारों में नज़र आ चुके हैं। 

तस्वीर साभारः GQ India

बॉलीवुड में सफल फिल्मों का एक तय फॉर्मूला है; जैसे एक्शन थ्रिलर जिसमें हीरो हाइपर मैस्कुलिन है। वर्तमान के दौर में भी सफल फिल्मों के यह फॉर्मूला एक लॉबी द्वारा माना जा रहा है क्योंकि जैसे ही “कबीर सिंह” और “एनिमल” जैसी फिल्में लोकप्रियता और बॉक्स ऑफिस पर सफलता हासिल करती हैं, वे इसे दर्शकों भारी मांग और पसंद के रूप में देखते हैं। ऐसी फ़िल्में जिनमें आक्रामकता, प्रभुत्व और महिलाओं के प्रति असम्मान को सेलिब्रेट किया गया है। इस तरह की फ़िल्में लोकप्रिय जब होती है तो समाज में विषाक्त मानसिकता और व्यवहार के बनाने का काम करती है। रील और वास्तविकता के बीच  अंतर है लेकिन यह भी साफ है कि दर्शक अनजाने में इस तरह के व्यवहारों को अपनाते है। 

सिनेमा में हाइपर-मास्कुलिनिटी की ओर झुकाव क्यों?

भारतीय सिनेमा में टॉक्सिक मर्दानगी को सेलिब्रेट करने का रूझान लगातार देखा जा रहा है। मसल पावर और अत्यधिक हिंसा को सफलता के पर्याय के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है जो पारंपरिक लैंगिक आधारित पूर्वाग्रहों को मजबूत करता है। हाइपर मैस्कुलिन वाले हीरो के किरदार हमेशा महिला पात्रों के हाशिए पर धकेलने और उनके ऑब्जेक्ट करने से जुड़े होते हैं। पर्दे पर औरतों को केवल एक वस्तु और उन पर अपना अधिपत्य स्थापित करने वाले होते हैं। इससे महिलाओं की प्रतिष्ठा, उनकी एजेंसी को खत्म करने वाले व्यवहार को बढ़ावा मिलता है। ऐसी फिल्मों का सफल होना चिंताजनक है। टॉक्सिक मैस्कुलिनिटी का चित्रण करने वाली फिल्मों का हिट होना व्यक्तियों के दृष्टिकोण को प्रभावित करना है। बच्चे और बड़े इस तरह के व्यवहार को स्वीकार करते है। विषाक्त व्यवहार के सामान्यीकरण से हानिकारक स्टीरियोटाइप्स को बढ़ावा मिलता है। 

अमिताभ बच्चन, धर्मेंद्र वो नाम है जो पर्दे पर मर्दानगी को स्थापित करने वाले चेहरे बने। ये अभिनेता अपने मशहूर डायलॉग के ज़रिये आक्रमकता के लिए प्रसिद्ध हुए। ये पर्दे पर हमेशा मर्द होने अपराधियों, गलत काम करने वालों और धोखेबाज़ों से लड़ने पर ही केंद्रित रहा।

भारतीय समाज पितृसत्तात्मक है और विशेष रूप से फिल्म उद्योग एक पुरुष-प्रधान क्षेत्र है, जहां अधिकांश तकनीकी दल, जिनमें फिल्म निर्माता और निर्माता शामिल हैं, पुरुष ही होते हैं। ‘मेल गेज़’ यह तय करता है कि हमारे सिनेमा में जेंडर की राजनीति और परस्पर संबंधों को कैसे प्रस्तुत किया जाएगा। सिनेमा के क्षेत्र में जेंडर स्टीरियोटाइप को खत्म करने के लिए इस क्षेत्र में मौजूद जेंडर गैप को तो खत्म करना ज़रूरी है। साथ ही इस मुद्दे पर मजबूत होकर बात करना भी आवश्यक है। इस तरह का चलन न केवल टॉक्सिक मैस्कुलिनिटी को सामान्य बना रहा है बल्कि एक ऐसा समाज भी गढ़ रहा है जहां हिंसा और आक्रामकता को शक्ति और सफलता के प्रतीक के रूप में देखा जाता है। हिंसा का सामान्यकरण भी हो रहा है। ऐसे किरदार, चाहे जितने भी लोकप्रिय हो जाएं, लंबे समय में समाज पर गहरा प्रभाव छोड़ते हैं लैंगिक पूर्वाग्रह और असमानता को बढ़ाने का काम करते है।

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