‘द मून इनसाइड यू’ की कहानी डायना फैबियानोवा की व्यक्तिगत यात्रा से शुरू होती है। उनके ये जानने की उत्सुकता से की स्वस्थ होने के बाद भी उन्हें हर बार अपने पीरियड्स के दौरान इतना असहनीय दर्द क्यों होता है। डॉक्टर्स उन्हें चेक करने के बाद कहती हैं कि ये आम सी बात है। यह डॉक्यूमेंट्री मेंस्ट्रुअल साइकल यानी पीरियड्स को एक ऐसे विषय के रूप में प्रस्तुत करती है, जो केवल बायोलॉजिकल प्रक्रिया न होकर सामाजिक, सांस्कृतिक और व्यक्तिगत अनुभवों से गहराई से जुड़ा हुआ है। डॉक्यूमेंट्री उन लोगों की भावनाओं और अनुभवों को दिखाती है जो हर महीने इस प्रक्रिया से गुजरती हैं, फिर भी अपने दर्द और असुविधा को एक ‘स्वाभाविक’ पहलू मानकर स्वीकार कर लेती हैं।
डॉक्यूमेंट्री में डायना की व्यक्तिगत यात्रा को दिखाया गया है। जिसमें वह अपने पीरियड्स के अनुभवों को समझने और उनसे जुड़े सांस्कृतिक मिथकों को चुनौती देने का प्रयास करती हैं। यह फिल्म डायना फैबियानोवा जो इसकी निर्देशक भी हैं, उनके अपने मेंस्ट्रुअल साइकल के बारे में अधिक जानने की खोज के साथ आगे बढ़ती है। जिसमें वो अलग-अलग पुरुषों से पीरियड्स पर सवाल करती हैं। जिनमें कुछ पुरुष इस सवाल को हँस कर टाल देते हैं, तो कुछ इस गंभीर बीमारी मानते है। इतना ही नहीं कुछ लोग इस पर बात करने में घृणा महसूस तक करते हैं।
अपने सवालों के जवाब ढूंढते हुए डायना अपने पुराने स्कूल पहुंच जाती हैं ,जहां उन्हें अपनी सोच और व्यवहार से मिलती-जुलती 11 वर्षीय डोमिनिका मिलती है, जिसे वो उसके पीरियड्स को सहज और आसान बनाने का वादा करते हुए एक कैमरा देती है, जिससे वो एक वीडियो डायरी बनाती है। ये वीडियो डायरी इस डॉक्यूमेंट्री का एक बेहतरीन हिस्सा है। इसमें डोमिनिका के पीरियड्स से पहले के अनुभव, संदेह, स्कूल में बातचीत, पीरियड्स की शिक्षा, उसके शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक बदलाव के अनुभवों को अच्छी तरह से दिखाया गया है। निर्देशक ने इस फिल्म में पीरियड्स की प्रक्रियाओं को अच्छी तरह से समझाने के लिए एक एनीमेशन का भी उपयोग किया है।
इससे आगे अपने सवालों के सही और तार्किक जवाब के खोज में डायना पश्चिमी देशों का रुख करती है, जहां वो अलग-अलग पेशे के लोग से मिलती हैं और उनकी सोच, साहित्य के जरिए से पीरियड्स को समझती हैं। वहां उन्हें पता चलता है कि पीरियड्स एक ऐसा मुद्दा है जिस पर डॉक्टर्स भी बहुत बात नहीं करते हैं। इसे शोध करने लायक कोई गंभीर विषय नहीं माना जाता है। ना किताबों में इस बारे में बात होती है, ना सिनेमा में इस पर कोई चर्चा होती है। बल्कि ज़्यादातर मामलों में इससे जुड़े मिथक ही सामने आते हैं। इसलिए पीरियड्स का दर्द का सामना कर रहे लोगों के लिए के सामने ये एक गंभीर स्वास्थ्य संबंधी मुद्दा है। जिस पर या तो बात नहीं की जाती है या गलत धारणाएं फैलाई जाती हैं। इसलिए महिलाएं पीरियड्स से जुड़े दर्द और परेशानी को सिर्फ़ अपना दुर्भाग्य और किस्मत मानकर टाल देती हैं।
यह फिल्म दर्शाती है कि दुनिया भर में पीरियड्स को किस तरह अलग-अलग नजरिये से देखा जाता है। कहीं इससे शुभ माना जाता है तो कहीं अभिशाप की तरह देखा जाता है। कुछ मान्यताओं में जैसे स्लोवाकिया की प्रथा में पीरियड्स वाली महिलाओं को काठ की खुली गाड़ी में बिठा कर खेतों में खींचा जाता है। ऐसा करने का कारण है कि उसका खून ज़मीन पर गिरता है और ज़मीन ज्यादा उपजाऊ बन जाती है। ऐसे ही भारत के तमिलनाडु में पीरियड्स से जुड़े उत्सवों में दिखाया जाता है। इससे उलट ऑस्ट्रेलिया की कुछ आदिवासी जनजाति पीरियड्स को किसी विनाशकारी शक्ति के रूप में देखती हैं इसलिए पीरियड शुरू होने पर लड़की को रेत में दबा देते हैं। इस तरह अमेजॉन के रहने वाली एक जनजातीय समूह में इस दौरान महिला को आसमान और ज़मीन के बीच झूले में बांध कर रखते हैं।
इस तरह की सारी प्रथाएं दिखाती है कि पीरियड्स को लेकर समाज में सांस्कृतिक धारणाएं बनी हुई हैं। फिल्म में दिखाया गया है कि कई जगहों पर पीरियड्स को छूत की बीमारी मानते हैं। ऐसे महिलाओं के किसी बच्चे को मात्र छू देने से उसे पूजो नाम की बीमारी लग जाती है। कुछ समुदाय में लोगों का मानना है कि पीरियड्स होने वाले लोगों के कारण पौधे जंगली हो जाते हैं और जानवर मर जाते हैं। कुछ लोगों का मानना है कि पीरियड्स से ग्लोबल वार्मिंग भी हो सकती है। ये फिल्म दिखाती है कि पीरियड्स को लेकर कैसे अलग-अलग संस्कृतियों ने विभिन्न अर्थों से जोड़ा जाता है और अलग-अलग मिथ भी है।
फ़िल्म में मानवविज्ञानी और इतिहासकार भी इस तरह की विभिन्न प्रथाओं के कारण का विश्लेषण करते और पीरियड्स में अशुद्धता की अवधारणा को समझाते हुए दिखाई देते हैं। डॉक्यूमेंट्री में दिखाया गया है कि कैसे सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक संस्थान महिलाओं पर पीरियड्स के नाम पर दबाव बनाते हैं। फिल्म में सैनिटरी नैपकिन और अन्य पीरियड्स प्रोडक्ट जैसे उद्योगों के बढ़ते बाज़ार और महिलाओं पर पड़ने वाले इसके आर्थिक दबाव की भी बात की गई है। साथ ही फ़िल्म में दर्शाया है कि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान किस तरह महिलाओं की शक्तियों को सामाजिक ज़रूरत के अनुसार अलग-अलग तरह से दर्शाया गया और ज़रूरत ख़त्म होने पर ये साबित करने की पूरी कोशिश की गई कि महिलाएं, पुरुषों के मुकाबले कमज़ोर हैं क्योंकि उन्हें पीरियड्स होता है।
फ़िल्म में डायना बताती है कि पीरियड्स के पहले महिलाओं को अनेक तरह के पीएमएस (प्री मेंस्ट्रुअल सिम्टम्स) का सामना करना पड़ता हैं। इस पर वे दूसरी महिलाओं से पूछती हैं तो उनमें से कई महिलाओं के अनुभवों को फिल्म बहुत संवेदनशीलता से दिखाया गया है। पीरियड्स के दौरान होने वाली दर्द को महिलाएं किस तरह से सहती है, उसके समाधान के लिए किस तरह के उपाय करती है। इन उपायों की वजय से बाद में वे कई तरह की अन्य परेशानियों का सामना भी करती है। फ़िल्म में बहुत ही संवेदनशीलता से पीरियड्स पेन पर बात की गई है। जेंडर रोल्स पर बात करते हुए भी इस मुद्दे को एड्रेस किया गया है। जैसे फिल्म के एक दृश्य में एक यहूदी महिला को अपने बेटी के पहले पीरियड्स पर थप्पड़ मारते हुए अपने रीति रिवाज़ों को समझते हुए दिखाया गया है।
फिल्म में पीरियड्स को लेकर विस्तार से बात की गई है। अलग-अलग मान्यताओं को लेकर लोगों का क्या सोचना है उन बातों को भी रखा गया है जैसे कुछ महिला पीरियड्स की पैरोकारी करती हैं। वे कहती हैं कि किसी भी लड़की के लिए ये महिला बनने की अनुभूति का एहसास है। हर पीरियड्स की शुरुआत उसके लिए एक नया जन्म है। कुछ महिलाओं का मानना है कि ये बोझ समझने या भागने जैसा कुछ नहीं, बल्कि इसे जानना है। अपने शरीर में चल रहे इस चक्र को समझने की ज़रूरत है, उसके साथ ताल-मेल बिठाने की ज़रूरत है। यह ख़ुद को समय देने का वक्त है।
अंत में फ़िल्म में दिखाया गया है कि एक महिला का पीरियड्स साइकल आदर्श रूप से चंद्र चक्र के पैटर्न का अनुसरण करता है। इस जैविक क्रिया और प्रकृति के संबंध को दिखाते हुए कहा गया है कि मैं अपने अंदर चंद्रमा का अनुभव करने की कोशिश करती हूं, मैं अपने अंडाशय की लय को सुनना सीखती हूं, ये मुझे मेरे आस-पास की प्रकृति और ब्रह्मांड के साथ मेरे अटूट संबंध को याद रखने में मदद करते हैं”, इन शब्दों के साथ यह फ़िल्म ख़त्म होती है।
आख़िर में ये कहा जा सकता है कि “द मून इनसाइड यू” एक बेहतरीन डॉक्यूमेंट्री है, जो पीरियड्स को केवल एक शारीरिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि एक गहरे व्यक्तिगत और सामाजिक अनुभव के रूप में प्रस्तुत करती है। यह फिल्म विशेष तौर पर पीरियड्स की बायोलॉजिकल पहलू से परे जाकर इसे एक व्यापक सांस्कृतिक और मानवीय दृष्टिकोण से समझने के लिए प्रेरित करती है। हास्य और आत्म-विडंबना के साथ यह डॉक्यूमेंट्री पीरियड्स को लेकर बनी ग़लत धारणाओं को तोड़ती है और महिलाओं के अनुभवों को नए सिरे से परिभाषित करती है।